जम्मू एवं कश्मीर का भारत में विलय रोकना चाहता था ब्रिटेन
सन् 1947 बैच के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी स्वर्गीय श्री एमकेके नायर द्वारा मलयालम भाषा में लिखी गई पुस्तक पर आधारित मेरे पिछले ब्लॉग ने एक विवाद खड़ा कर दिया है। कुछ समाचारों में बताया गया है कि निजाम के विरुध्द सैनिक कार्रवाई के मुद्दे पर नेहरु और पटेल के बीच ‘झड़प‘ सम्बन्धी रिपोर्टें आधारहीन हैं। तथ्य यह है कि 1947 में कबाइलियों और पाकिस्तान द्वारा जम्मू एवं कश्मीर पर हमले के बाद वहां सेना भेजने के मुद्दे पर भी नेहरु को ऐसी ही आपत्ति थी।
‘नेट‘ खंगालते हुए मुझे प्रेम शंकर झा द्वारा भारतीय सेना के पहले फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ से लिया गया दिलचस्प साझात्कार ‘रिडिफ‘ पर पढ़ने को मिला। स्वतंत्रता प्राप्ति के शुरुआती वर्षों में मानेकशॉ कर्नल थे जिन्हें वी.पी. मेनन के साथ कश्मीर भेजने के लिए तब चुना गया, जब वी.पी. जम्मू एवं कश्मीर के भारत में विलय की प्रक्रिया पूरी करने में लगे थे। प्रेमशंकर झा द्वारा कर्नल मानेकशॉ के विचारों को निम्नलिखित रुप में प्रस्तुत किया गया है:
”दोपहर में करीब 2.30 बजे, जनरल सर राय बुशर मेरे कक्ष में आए और बोले ‘ए, एस/सी विमान करीब 4 बजे उड़ान भरेगा। मैंने कहा ‘मैं ही क्यों, सर?’
क्योंकि हम सैन्य स्थिति को लेकर चिंतित हैं। वी.पी. मेनन वहां महाराजा और महाजन से विलिनीकरण दस्तावेज लेने जा रहे हैं।‘ मैं वी.पी. मेनन के साथ डाकोटा विमान में सवार हो गया। विंग कमाण्डर दिवान, जो उस समय स्क्वाड्रन लीडर दिवान थे। वह हमारे साथ थे। लेकिन उनके काम का का सैन्य स्थिति का जायजा लेने से कोई लेना-देना नहीं था। उन्हें एयर फोर्स ने इसलिए भेजा था चूंकि हम एयर फोर्स के विमान से जा रहे थे।‘
चूंकि मैं मिलट्री ऑपरेशन निदेशालय में था और पूरे भारत, पश्चिमी सीमांत पंजाब तथा अन्य स्थानों पर चल रहे ऑपरेशनस की जिम्मेदारी मेरे उपर थी, इसलिए मुझे पता था कि कश्मीर में हालात क्या हैं। मुझे पता था कि कबाईली घुसे हैं- शुरुआत में पाकिस्तानी समर्थन प्राप्त सिर्फ कबाईली।
हमारे लिए और कश्मीर के लिए यह शुक्र था कि वे लूटमार और बलात्कार जैसे कामों में लगे थे। बारामूला में उन्होंने कर्नल डी.ओ.टी. डाइक्स की हत्या कर दी। डाइक्स और मैं वरिष्ठता में एक समान थे। 1934-35 में हम दोनों ने अपना पहले वर्ष का एटैचमेंट लाहौर में रायल स्कॉट्स में किया था। टॉम सिख रेजीमेंट में चले गए थे। मैं फ्रंटियर फोर्स रेजीमेंट में। बाद में हमारा कोई सम्पर्क नहीं रहा। वह लेफ्टीनेंट कर्नल बने। मैं कर्नल बना।
बारामूला में जब टॉम और उनकी पत्नी छुट्टियां मना रहे थे तब कबाईलियों ने उनकी हत्या कर दी।
महाराजा की सेना में 50 प्रतिशत मुस्लिम और 50 प्रतिशत डोगरा थे।
मुस्लिमों (सैनिकों) ने विद्रोह कर पाकिस्तानी सेना के साथ हाथ मिला लिया। यह मौटे तोर पर सैन्य स्थिति थी। कबाईली श्रीनगर से 7 से 9 किलोमीटर की दूरी पर बताए जाते थे। मुझे सैन्य स्थिति की वास्तविक जानकारी लेने के लिए भेजा गया। सेना को पता था कि यदि हमें सैनिक भेजने हैं तो उन्हें विमान से भेजना पड़ेगा। इसलिए कुछ दिन पूर्व हमने विमानों का प्रबन्ध कर लिया था तथा सैनिकों को भेजने हेतु तैयार रहने का भी।
लेकिन हम उन्हें तब तक नहीं भेज सकते थे जब तक कश्मीर राज्य भारत में शामिल नहीं हो जाता। राजनीतिक दृष्टि से सरदार पटेल और वी.पी. मेनन महाजन और महाराजा से सम्पर्क में थे, योजना यह थी कि वी.पी. मेनन विलीनीकरण सम्बन्धी काम करेंगे और मैं सैन्य स्थिति का हवाला लाकर सरकार को बताऊंगा। सेना की टुकड़ियां पहले से ही हवाई अड्डे पर थीं, और उड़ान भरने को तैयार। एयरचीफ मार्शल इल्महस्ट वायु सेना प्रमुख थे और उन्होंने नागर विमानन तथा सैन्य सूत्रों से विमानों का प्रबन्ध किया हुआ था।
खैर, हमने उड़ान भरी। हम श्रीनगर पहुंचे। हम महल गए। मैंने अपनी जीवन में कभी इतनी अव्यवस्था नहीं देखी। महाराजा एक कक्ष से दूसरे कक्ष में दौड़ लगा रहे थे। मैंने जीवन में इतने ज्यादा जेवर-जवाहरात नहीं, देखे-मोतियों की माला, रुबी, एक कमरे में पडे थे; इधर, उधर और सभी जगह पैंकिग हो रही थी। वाहनों की पंक्ति बनी हुई थी। महाराजा एक कमरे से बाहर और दूसरे कमरे में जाते हुए कह रहे थे ‘ठीक है, यदि भारत सहायता नहीं करता, तो मैं अपनी सेना के साथ लड़ूंगा।‘
मैं अपने पर काबू नहीं रख पाया और कहा ‘सर, इससे उनका मनोबल बढ़ेगा।‘ वास्तव में, हमारे आस-पास के सभी लोगों से सैन्य स्थिति मुझे पता चल चुकी थी और पूछा जा रहा था कि क्या हो रहा है तथा मैंने पाया कि कबाईली खराब छोटे सी हवाई पट्टी से करीब सात या नौ किलोमीटर ही दूर थे।
इस बीच वी.पी. मेनन महाजन और महाराजा से विचार-विमर्श कर रहे थे। वास्तव में, महाराजा ने विलीनीकरण के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर कर दिए और देर रात्रि को हम डाकोटा से वापस आ गए। विमान पट्टी पर रात्रि को उड़ान भरने की कोई सुविधा नहीं थी और जो लोग उड़ान भरने में हमारी सहायता कर रहे थे उनमें शेख अब्दुल्ला, कासिम साहब, सादिक साहब, बख्शी गुलाम मोहम्मद और दुर्गा प्रसाद धर देवदार की टार्च लेकर खड़े थे और इस तरह हम दिल्ली वापस लौट सके। मुझे एकदम सही समय तो याद नहीं फिर भी उस समय सुबह के 3 या 4 अवश्य बज रहे होंगे।
(दिल्ली लौटने पर) पहला काम मैंने यह किया कि मैं सर राय बुशर को मिला। उन्होंने कहा ‘ए, तुम पहले जाकर दाढ़ी बनाकर, नहाधो कर आओ। 9 बजे कैबिनेट की बैठक है। मैं तुम्हें साथ ले लूंगा।‘ अत: मैं घर गया, दाढ़ी बनाई, कपड़े इत्यादि बदले, और रॉय बुशर ने मुझे साथ में लिया तथा हम कैबिनेट मीटिंग में पहुंचे।
कैबिनेट मीटिंग की अध्यक्षता माऊण्टबेंटन कर रहे थे। उसमें जवाहरलाल नेहरु थे, सरदार पटेल थे और सरदार बलदेव सिंह भी। अन्य मंत्रीगण भी थे जिन्हें मैं नहीं जानता था और जानना भी नहीं चाहता था क्योंकि मुझे उनसे कुछ लेना-देना नहीं था।
सरदार बलदेव सिंह को मैं जानता था क्योंकि वह रक्षा मंत्री थे और मैं सरदार पटेल को जानता था क्योंकि पटेल वी.पी. मेनन पर दवाब बनाए रखते थे कि वह मुझे विभिन्न राज्यों में ले जाएं।
लगभग प्रत्येक सुबह सरदार-वी.पी., एच.एम पटेल और मुझे बुलाते थे। जबकि मणिबेन (पटेल की बेटी और एक तरह से सचिव) पारकर फाउंटेन पेन लेकर पांव पर पांव रखे नोट्स लेती थीं, पटेल कहते ‘वी.पी. मुझे बड़ोदा चाहिए। इसे अपने साथ ले जाओ।‘ मैं समझदार था। अत: मैं सरदार को अच्छे ढंग से जानने लगा था।
सुबह की बैठक में उन्होंने (विलीनीकरण सम्बन्धी कागजात) सौंपे। माऊंटबेंटन पलटे और कहा ”आइए मानेकजी (वह मुझे मानेक शा के बजाय मानेक जी पुकारते थे), सैन्य स्थिति कैसी है?” मैंने सैन्य स्थिति की जानकारी दी और उन्हें बताया कि यदि तुरंत हमने विमान से अपनी टुकड़ियां नहीं भेजी तो हम श्रीनगर को गवां बैंठगें। क्योंकि सड़क मार्ग से जाने में अनेक दिन लगेंगे और एक बार कबाईलियों ने हवाई अड्डे और श्रीनगर पर कब्जा कर लिया तो हम टुकड़ियां भी नहीं भेज सकेंगे। हवाई अड्डे पर सभी चीजें तैयार थीं।
सदैव की भांति नेहरु संयुक्त राष्ट्र , रुस, अफ्रीका, सर्वशक्तिमान परमात्मा सहित सभी के बारे में बात करने लगे जब तक कि सरदार पटेल ने अपना धैर्य नहीं खो दिया। उन्होंने कहा ‘जवाहरलाल क्या तुम कश्मीर चाहते हो या इसे गंवा देना चाहते हो।‘ उन्होंने (नेहरु) कहा ‘निस्संदेह, मुझे कश्मीर चाहिए। तब उन्होंने (पटेल) कहा ‘कृपया अपने आदेश दीजिए।‘ और इससे पहले कि वह कुछ कह पाते सरदार पटेल मेरी तरफ मुड़े और कहा ‘तुम्हें अपने लिए आदेश मिल गए हैं।‘
मैं वहां से बाहर निकला और हमने लगभग 11 या 12 बजे टुकड़िया को रवाना करना शुरु कर दिया। मुझे लगता है यह रंजीत राय के नेतृत्व में सिख रेजीमंट थी जो सबसे पहले विमान से रवाना की गई। जो हुआ, वह इतना ही मैं जानता हूं। उसके बाद सारी लड़ाई लड़ी गई। मैं ब्रिगेडियर बना और मिलट्री ऑपरेशन्स का निदेशक और यदि आपकों (जनवरी 1949) को हुए युध्द विराम के आदेशों पर हस्ताक्षर देखने को मिलेंगे तो आप पाएंगे कि भारत के कमाण्डर-इन-चीफ सर रॉय बुशर की तरफ से कर्नल मानेकशॉ के हस्ताक्षर हैं। यह दस्तावेज मिलिट्री ऑपरेशन्स निदेशालय में अवश्य ही मिल जाएगा।
***
5 नवम्बर के मेरे ब्लॉग प्रकाशित होने के बाद एक मित्र ने बताया कि मैंने जनरल बुशर का नाम गलत लिखा है। इसे मैंने अपने ब्लॉग में सही कर लिया।
लेकिन इसके थोड़ी देर पश्चात् मैंने जनरल सर रॉय बुशर सम्बन्धी वेबसाईट देखी और उनके नाम से लिखे गए लेख में पाया कि 1946-47 और 1947-48 के भारत-पाक युध्द के समय जनरल बुशर ही भारतीय सेना के कमांडर-इन-चीफ थे।
1947 का भारत-पाक युध्द एक ऐसा युध्द था जिसमें जम्मू एवं कश्मीर प्रदेश पर कबाईलियों और पाकिस्तानी सैनिकों ने हमला बोला; इन सबका नेतृत्व सैनिक अधिकारी कर रहे थे। जनरल बुशर की वेबसाइट कहती है:
1947-48 का भारत-पाक युध्द आधुनिक सैन्य इतिहास में अनोखा था क्योंकि यह एकमात्र ऐसा युध्द था जो दो आधुनिक सेनाओं (दो विभिन्न देशों की) में लड़ा गया और दोनों के कमाण्डर ब्रिटिश जनरल थे। भारतीय सेना के कमाण्डर-इन-चीफ जनरल सर रॉय बुशर थे तो पाकिस्तान ने जनरल डगल्स ग्रेसी। भारत और पाकिस्तान में तीनों सेनाओं की कमाण्ड ब्रिटिश अफसरों के हाथों में थी।
लेकिन 1948 में नेहरु इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि यह तत्काल व्यवहार्य उपाय नहीं है। कमाण्डर-इन-चीफ जनरल बुशर ने उन्हें सलाह दी कि चूंकि ब्रिटेन भी पाकिस्तान को सहयोग कर रहा है, इसलिए सैन्य रुप से समूचे जम्मू एवं कश्मीर क्षेत्र पर नियंत्रण रखना सम्भव नहीं होगा। पाकिस्तान को आशंका थी कि महाराजा भारत के साथ मिलना चाहते हैं और इसलिए वह बलात राज्य पर कब्जा कर इसे निष्फल बनाना चाहता था।
12 सितम्बर को इस बारे में अंतिम निर्णय लेने हेतु कैबिनेट बैठक बुलाई गई। बैठक में उपस्थितों में प्रधानमंत्री नेहरु, गृहमंत्री पटेल, रक्षा मंत्री बलदेव सिंह, गोपालास्वामी आयंगर, जनरल बुशर, लेफ्टिनेंट जनरल (बाद में फील्ड मार्शल और भारतीय सेना के कमाण्डर-इन-चीफ) के.एम. करिअप्पा और एयर मार्शल सर थामस डब्ल्यू। अल्महॉयरिस्ट (आइएएफ के कमाण्डर-इन-चीफ) थे।
जैसे ही निर्णय हो रहा था कि जनरल बुशर उठे ओर कहा ”सज्जनों, आपने एक कठिन मामले में निर्णय किया है। मैं भी अपनी चेतावनी से अवगत कराना चाहता हूं। हम भी कश्मीर में उलझे हुए है। मैं नहीं कह सकता कि इसमें कितना समय लगेगा, और हमारे दोनों ऑपरेशन्स कब पूरे होंगे। यह करने योग्य नहीं है इसलिए आपके कमाण्डर-इन-चीफ होने के नाते मैं कहूंगा कि ऑपरेशन्स शुरु न किए जाएं।” उन्होंने कहा यदि उनकी सलाह नहीं मानी जाती है तो वह अपना त्यागपत्र दे देंगे।
एकदम चुप्पी छा गई और निराश तथा चिंतित नेहरु इधर-उधर झांकने लगे। पटेल ने उत्तर दिया , ”आप त्यागपत्र दे सकते हैं जनरल बुशर लेकिन पुलिस कार्रवाई कल शुरु होगी।” क्रोधित जनरल बुशर उठकर चले गए और संयोग से अगले कुछ दिनों में कश्मीर कार्रवाई में तेजी आ गई।
जनरल सर रॉय बुशर (पूर्ववर्ती कमाण्डर-इन-चीफ) और श्रीमती बुशर, श्री सी राजगोपालचारी और कमान्डर-इन-चीफ, जनरल के एम. करिअप्पा
जनवरी, 1949 में भारत के अपने पहले कमाण्डर-इन-चीफ जनरल करिअप्पा थे। इस युध्द की समाप्ति के अंतिम चरण में ब्रिटेन की एक बड़ी चिंता यह थी कि जनरल करिअप्पा जो कदम उठा रहे थे उसे जनरल सर रॉय बुशर नियंत्रित नहीं कर पा रहे थे। ब्रिटिश भारत-पाक युध्द नहीं चाहते थे। उन्हें पता था कि झड़पें हो सकती हैं और उन्होंने सभी ब्रिटिश अधिकारियों को गुप्त निर्देश भेजे थे कि युध्द की स्थिति में ‘वे तटस्थ रहें‘। इन अधिकारियों को बताया गया था कि वे जहां सलाहकार की हैसियत से हैं, वे वहां से अपने दायित्व से त्यागपत्र दे सकते हैं।
ब्रिटेन साफ तौर पर नहीं चाहता था कि पूरा जम्मू एवं कश्मीर भारत के साथ जाए। लंदन में यह व्यापक धारणा थी कि यदि भारत के नियंत्रण में पाकिस्तान से लगे क्षेत्र रहे तो पाकिस्तान जिंदा नहीं रह पाएगा।
भारत और पाकिस्तान तथा व्हाईटहाल के ब्रिटिश उच्चायोगों के बीच आदान-प्रदान किए गए अत्यन्त गोपनीय ‘केबल्स‘ सच्ची कहानी कहते हैं। कमाण्डर-इन-चीफ नई दिल्ली स्थित ब्रिटिश उच्चायोग से निर्देश प्राप्त कर रहे थे। नेहरु ने पाकिस्तान में कबाइलियों के अड्डों पर हमला करने का निर्णय लिया परन्तु माऊंटबेंटन इसके विरोध में थे।
लालकृष्ण आडवाणी
नई दिल्ली
7 नवम्बर, 2013

L.K. Advani's Blog
- L.K. Advani's profile
- 10 followers
