जब वी.पी. मेनन ने एक ब्रिटिश जनरल के छक्के छुड़ाए

पिछले महीने, मैंने ‘डा. मुंशी का पण्डित नेहरू को ऐतिहासिक पत्र‘ शीर्षक से एक ब्लॉग लिखा था।


 


o-rajagopalइस ब्लॉग के पश्च्यलेख (टेलपीस) में मैंने स्मरण कराया था कि पिछले दिनों पॉयनियर दैनिक में एक समाचार पढ़ा था कि पण्डितजी हैदराबाद के मुद्दे को भी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को सौंपना चाहते थे तथा हैदराबाद में सरदार पटेल द्वारा सेना भेजने के निर्णय का भी उन्होंने कड़ा विरोध किया था।


 


पॉयनियर का समाचार एक आईएएस अधिकारी एमकेके नायर द्वारा लिखित पुस्तक पर आधारित था। डा. मुंशी के पत्र से सम्बन्धित ब्लॉग में मैंने कहा था कि इस पुस्तक को मैं व्याकुलता से तलाश रहा हूं लेकिन न तो यह मुझे पुस्तक की दुकानों पर मिली और न ही  पुस्तकालय में। पॉयनियर के सम्पादक श्री चंदन मित्रा भी इसे खोज पाने में सफल नहीं हुए। इस ब्लॉग के जरिए मैंने अपने सभी पाठकों से अपील की थी कि जो भी मुझे यह पुस्तक उपलब्ध करा पाएगा मैं उसका ‘अत्यन्त आभारी‘ रहूंगा। मैंने केरल भाजपा के एक वरिष्ठ नेता और मेरे पूर्व संसदीय सहयोगी श्री ओ. राजगोपाल से भी इस पुस्तक को खोजने का अनुरोध किया था।


 


मुझे खुशी है कि मेरे यह प्रयास रंग लाए हैं। ऐसा लगता है कि यह पुस्तक मलयालम में लिखी गई है। पॉयनियर में प्रकाशित समाचार इसी पर आधारित था। पुस्तक के अंग्रेजी में अनुवाद होने की प्रक्रिया चल रही है। अनुवादक श्री गोपाकुमार ने मुझे एक पत्र भेजा है और साथ में अनुदित पाण्डुलिपी की प्रति जोकि प्रकाशक द्वारा यथोचित सम्पादन के पश्चात् प्रकाशित की जाएगी।


 


इस पुस्तक के सम्बन्धित प्रसंग को पढ़ने के बाद मैंने पाया कि जिस मंत्रिमण्डलीय बैठक में नेहरू और पटेल के बीच तीखी झढ़प हुई वह 1948 में तथाकथित ‘पुलिस एक्शन‘ से कुछ समय पूर्व ही हुई थी। यह वह समय था जब लार्ड माऊण्टबेंटन लंदन जा चुके थे और राजाजी गर्वनर जनरल बने थे।


 


एमकेके नायर की पुस्तक में एक प्रसंग ऐसा है जो भारत के प्रति पूर्वाग्रह रखने वाले ब्रिटिश सैन्य अधिकारियों पर गंभीर टिप्पणियां करता है। इस प्रसंग को बगैर किसी टीका-टिप्पणी के, मैं नायर द्वारा ”द स्टोरी ऑफ एन इरा टोल्ड विदआऊट इल विल” पुस्तक में लिखे गए को ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर रहा हूं: नायर लिखते हैं:


 


nizamkasim-rizvi”30 अप्रैल, 1948 को भारतीय सेना हैदराबाद से पूरी तरह हट चुकी थी। उसके बाद, रिजवी और रजाकरों ने पूरे राज्य में पाश्विक व्यवहार करना शुरू कर दिया। माऊण्टबेंटन जा चुके थे और राजाजी गर्वनर जनरल थे। नेहरू, राजाजी और पटेल, सभी हैदरराबाद में व्याप्त खतरनाक परिस्थियों से परिचित थे। पटेल का मानना था कि निजाम की स्वच्छंदता को समाप्त करने के लिए सेना को भेजा जाना चाहिए। लगभग उसी समय निजाम ने अपना एक दूत पाकिस्तान भेजा और लंदन स्थित अपनी सरकार के खाते से पाकिस्तान को एक बड़ी राशि स्थानांतरित कर दी। मंत्रिमण्डल की बैठक में पटेल ने इन घटनाओं का ब्यौरा देते हुए मांग की कि हैदराबाद में आतंकी राज के खात्मे के लिए सेना को भेजा जाए। नेहरू जो सामान्यतया शांत, मृदुभाषी और अंतरराष्ट्रीय नजाकत के साथ बोलते थे, अपना आपा खो बैठे और चीखे ”तुम पूरी तरह से साम्प्रदायिक हो। मैं कभी तुम्हारी सिफारिश नहीं मानूंगा।”


 


पटेल शांत बैठे रहे परन्तु अपने पेपरों के साथ कक्ष से बाहर चले गए।


 


patelrajajiहैदराबाद में स्थिति दिन-ब-दिन बदतर होती जा रही थी। राजाजी मूल मुद्दे का समाधान करना चाहते थे और साथ ही नेहरू तथा पटेल के बीच मेल-मिलाप करना भी। उन्होंने वी.पी. मेनन को बातचीत के लिए बुलाया। वी.पी. ने राजाजी को जानकारी दी कि सेना कार्रवाई के लिए तैयार है और किसी भी समय उसे हमला करने को कहा जा सकता है। राजाजी ने नेहरू और पटेल को अगले दिन राष्ट्रपति भवन (तत्कालीन गर्वनर-जनरल हाऊस) आने का न्यौता दिया। वी.पी. मेनन को भी मौजूद रहने को कहा गया। जब वी.पी. मेनन राष्ट्रपति भवन की बैठक हेतु जा रहे थे तो एक आईसीएस अधिकारी बुच (जोकि स्टेट होम मिनिस्ट्री से थे और जिसने ट्रावनकोर एवं कोच्चि के एकीकरण हेतु वार्ताएं की थीं) ने उन्हें रोककर एक पत्र थमाया। वह ब्रिटिश उच्चायुक्त की ओर से था और जिसमें दो दिन पूर्व ही रजाकरों द्वारा एक सत्तर वर्षीय नन से बलात्कार को लेकर विरोध जताया गया था। बैठक में पहुंचने पर वी.पी. मेनन ने राजाजी को वह पत्र सौंप दिया।


 


nehru-stadiumनेहरू और पटेल के पहुंचने के बाद राष्ट्रपति भवन में बैठक शुरू हुई। राजाजी ने अपनी चिर-परिचित शैली में हैदराबाद की स्थिति का वर्णन किया। उनका मानना था कि भारत की प्रतिष्ठा बचाने के लिए निर्णय और अधिक नहीं टाला जाना चाहिए। नेहरू अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो सकने वाले परिणामों को लेकर चिंतित थे। तब राजाजी ने तुरूप का पत्ता -ब्रिटिश उच्चायुक्त द्वारा दिया गया पत्र- चला। नेहरू ने इसे पढ़ा। उनका चेहरा लाल हो गया अैर उनके गंजे सिर पर नसें तनने लगीं। गुस्से में उनके शब्द नहीं निकल रहे थे। वह कुर्सी से उठे, मेज पर गुस्से से मुक्का मारा और चिल्लाए, एक मिनट भी हमको नहीं गंवाना चाहिए। हम उन्हें सबक सिखाएंगे।


 


राजाजी ने तुरंत वी.पी. मेनन को कहा, ”वी.पी. कमाण्डर-इन-चीफ को योजना के अनुसार आगे बढ़ने को कहो।”


 


वी.पी. ने जनरल बुशर को आदेश बताया। नेहरू अपने सिर को हाथों से पकड़े बैठे रहे। वह चाय पीते रहे और चुप थे। राजाजी मुस्कराए और कहा: ”यदि यह कैंसर है, तो इसे हटाना ही होगा, चाहे कितना भी दर्द हो।”


 


वी.पी. मेनन बैठक से अपने कार्यालय आए और जल्दी-जल्दी योजना बनाने लगे कि क्या-क्या करना है। पाकिस्तान के कमाण्डर-इन-चीफ भी एक अंग्रेज था जो भारतीय नेताओं के साथ शत्रुता की भावना रखता था। जब बुशर ने जनरल लॉकहार्ट से कमाण्डर-इन-चीफ का दायित्व संभाला तब उन्होंने ईश्वर के नाम पर भारत के प्रति वफादार रहने की शपथ ली थी। जैसे ही बुशर ने वी.पी. मेनन से सुना तो उन्होंने राजेन्द्र सिंह को निर्देशित किया, जिसने जनरल चौधरी को अगली सुबह तीन बजे कार्रवाई करने का निर्देश दिया। उस दिन शाम सात बजे बुशर ने कराची से सम्पर्क कर वहां अपने समकक्ष से बातचीत की। बातचीत फ्रैंच भाषा में थी।


 


अगले दिन सुबह दस बजे वी.पी. मेनन बुशर के कक्ष में पहुंचे। यह मानकर कि वह हैदराबाद एक्शन का ब्यौरा लेने आए होंगे, बुशर ने उन्हें ताजा जानकारी से अवगत कराया। तब वी.पी. ने कहा मुझे यह सब पता है। मैं किसी और चीज के लिए आया हूं। क्या आपने कल शाम पाकिस्तान के कमाण्डर-इन-चीफ से बातचीत की। यह सुनते ही बुशर का चेहरा पीला पड़ गया।


 


‘वी.पी., क्या आप यह कह रहे हैं कि हम दोस्त आपस में एक-दूसरे से बातचीत नहीं कर सकते?’


 


‘क्या यह दोस्ताना वार्ता थी?’


 


‘क्या तुम्हें इसमें संदेह है?’


 


‘तुमने फ्रेंच में क्यों बात की?’


 


‘क्या तुमने टेलीफोन ‘टेप‘ करना शुरू कर दिया है?’


 


‘यदि परिस्थितियों की मांग हो तो क्यों नहीं? क्या वास्तव में वह दोस्ताना बातचीत थी?’


 


‘बिल्कुल!‘


 


vp-menonवी.पी. मेनन ने एक दस्तावेज निकाला और बुशर को पकड़ाया। यह एक दिन पूर्व शाम को हुई बातचीत का अंग्रेजी अनुवाद था , जिसमें लिखा था:


 


बुशर: हैदराबाद पर हमला आज रात को होगा। ज्यादा दिन नहीं चलेगा। यदि तुम कुछ कर सकते हो तो अभी से करो।


 


पाकिस्तान कमाण्डर-इन-चीफ: धन्यवाद। लियाकत अली को सूचित करूंगा। जिन्ना तो मृत्यु शैय्या पर हैं।


 


बुशर: अपनी डयूटी करने के बाद मैं तुम्हारे हाथों में रहूंगा।


 


बुशर जो टेलीफोन-टेपिंग से अपमानित होने का दिखावा कर रहा था, अब पसीने से तरबतर था। उसने दु:ख के साथ वी.पी. मेनन को देखा और कहा, ‘मैं क्या करूं वी.पी.? मुझसे गलती हो गई। मुझे खेद है।‘


 


वी.पी. मेनन ने उससे पूछा, ‘क्या तुमने अपने हाथ में बाइबिल लेकर भारत के प्रति वफादार रहने की ईश्वर के सम्मुख शपथ नहीं ली थी?’


 


बुशर: ‘वी.पी., कृपया मुझे बचाओ। मैंने जो किया है उसका प्रायश्चित करने को मैं तैयार हूं। मुझे अपमानित मत करो। हमारी पुरानी दोस्ती का हवाला कि मेरी सहायता करो।‘


 


वी.पी. मेनन ने बुशर से एक पत्र लिया जिसमें लिखा गया था, ‘मैं निजी और स्वास्थ्य कारणों से इस्तीफा दे रहा हूं। कृपया इसे तुरंत स्वीकार किया जाए‘ और वह चला गया। तब भारतीय सेना की कमान जनरल करिअप्पा को सौंपी गई।


 


 


लालकृष्ण आडवाणी


नई दिल्ली


5 नवम्बर, 2013


 •  0 comments  •  flag
Share on Twitter
Published on November 05, 2013 19:10
No comments have been added yet.


L.K. Advani's Blog

L.K. Advani
L.K. Advani isn't a Goodreads Author (yet), but they do have a blog, so here are some recent posts imported from their feed.
Follow L.K. Advani's blog with rss.