या रब वो न समझे हैं न समझेंगे मेरी बात..




पुरानी दिल्ली में बल्लीमारां की उन पोशीदा सी गलियों से तकरीबन पंद्रह सौ किलोमीटर की दूरी पर महाराष्‍ट्र में एक जगह है शोलापुर, वहां कुछ वर्दीधारी लोगों को यह इलहाम हुआ है कि चाचा का एक शेर तो इन्कलाबी है- ''मौज- ए- खूं सर से गुजर ही क्यों न जाए , आस्तान-ए-यार से उठ जाएं क्या! '', इसमें साफ- साफ तौर पर बगावत की बू आती है, बगावत भी क्या हुजूर, दहशतगर्दी की !



गालिब का एक मशहूर शेर है कि ''पूछते हैं वह कि गालिब कौन है, कोई बतलाओ कि हम बतलाएं क्या!'' आज फिर गालिब की पहचान जेरेबहस है और रात गालिब ख्वाब में आए और बोले -'मियां, मैं गालिब हूं, मेरा यकीन करो मैं आतंकवादी नहीं हूं।' माजरा आपकी निगाह में आ गया होगा, फिर भी सहाफत का तकाजा है, जरा संक्षेप में अर्ज कर दूं कि चचा गालिब के एक शेर की बिना पर किसी को आतंकवादी ठहराने का करिश्मा अंजाम दिया जा रहा है। इस शेर के आधार पर सिमी के एक कार्यकर्ता पर यह आरोप लगाया है। वह आतंकवादी है या नहीं और सिमी की गतिविधियां ठीक हैं या नहीं, यह हमारी बहस का सवाल नहीं है, उन्हें कुसूरवार या निर्दोष तो कानून साबित करेगा। पुरानी दिल्ली में बल्लीमारां की उन पोशीदा सी गलियों से तकरीबन पंद्रह सौ किलोमीटर की दूरी पर महाराष्‍ट्र में एक जगह है शोलापुर, वहां कुछ वर्दीधारी लोगों को यह इलहाम हुआ है कि चाचा का एक शेर तो इन्कलाबी है- ''मौज- ए- खूं सर से गुजर ही क्यों न जाए , आस्तान-ए-यार से उठ जाएं क्या! '', इसमें साफ- साफ तौर पर बगावत की बू आती है, बगावत भी क्या हुजूर, दहशतगर्दी की ! तो साहिब जिस शेर के मानी यह हैं कि चाहे खून की लहर ही हमारे सिर के उपर से गुजर जाए, हम तो अब ये दर, महबूब का दरवाजा नहीं छोडेंगे यानी चाहे सर कलम हो जाए ...के उन आलिमों फाजिलों ने क्या- क्या मानी निकाल लिए हैं। अरे, प्रो. सादिक साहब, गोपीचंद नारंग साहब और हिंदुस्तान के तमाम उर्दू शाइरी के तनकीदनिगारो ! आप सुन रहे हैं क्या ! इन नए वर्दीवाले आलोचकों का स्वागत कीजिए, हमारे साहित्य की नई व्याख्याएं हो रही हैं।


उर्दू और फिर पूरी दुनिया की शाइरी को इशारे का आर्ट या फन माना जाता है। इशारे में कही गई बात के मानी कई कई खुलें, यह शाइरी की ताकत मानी जाती है। पहली बात तो यह कि इस शेर के बहुत सारे मानी है नहीं.. और जो है वह बलिदान के तो हैं (चाहे प्रेमिका के लिए, देश के लिए या कौम के लिए), मारने के नहीं। यानी ठीक वैसे ही जैसे महात्मा गांधी भारत छोडो आंदोलन के समय इसी महाराष्‍ट्र में मुम्बई के अगस्त क्रांति मैदान में (जो नाम इस घटना के बाद दिया गया था) कहते हैं- 'करो या मरो '। उसमें 'मारो' शामिल नहीं था, इसका अर्थ था -आजादी की राह में आगे बढें और करना पडें तो जान दें दे।


इत्तेफाक देखिए कि हमने जहां से बात शुरू की वह शेर- ''पूछते हैं वह..'' भी इसी गजल का है। बहरहाल शाइरी की बात ना करें सियासत की कर लें, कहना चाहिए कि यह जल्दी का बयान है, कुछ वक्त बाद बयान बदल जाएंगे, फिलवक्त तो यही है। वैसे गौर करें तो चाचा गालिब का दौरे सुखन अंग्रेजों का दौर था जैसे भगतसिंह का दौर था, नजरूल इस्लाम का दौर था। हालांकि ये बात ओर है कि बहुत खुल के चाचा गालिब ने अंग्रेजों की मुखालफत कम ही की या कहें ना के बराबर ही की तो चाचा किस के खिलाफ दहशतगर्दी करते, प्रेम में प्रेमिका के लिए करते या जमाने के खिलाफ एक आम लेखक के तरह से जैसे हर लेखक बुनियादी तौर पर एंटीएस्टाब्लिशमेंट का एटीटयूड रखता है।


उन्होंने फारसी में कहा है कि ''आराइश-ए-जमाना जि बेदाद करद: अंद, हर खूं कि रेख्त गाज-ए- रू-ए-जमीं शनास'' यानी जमाने का सिंगार अत्याचार से किया गया है और जो भी खून बहाया गया है, यह धरती का अंगराग बन गया है। अफसोस भरे लहजे में ऐसा लिखनेवाला शाइर दहशतगर्दी की परस्ती कर सकता है क्या? उनके कितने ही शेर इनसान को दुनिया या कायनात का मर्कज यानी केंद्र घोषित करते हैं। कभी कभी हमें यह सोच लेना चाहिए, वैसे भी महंगाई के जमाने में यही काम बचा है जो अब भी निशुल्क संभव है, सोच की कोई इंतिहा भी नहीं होती.. तो सोचना का नुक्त- ए- नजर यह है कि चाचा गालिब को फिरकापरस्त भी नहीं कह सकते, दहशतगर्द कहना तो बहुत दूर की बात है, मैं उम्मीद करता हूं कि आप मेरी बात से इत्तेफाक रखेंगे।


वैसे मैं यह भी मान लेता हूं कि अदब यानी साहित्य के मरहले ऐसे हैं कि 'या रब वो न समझे हैं न समझेंगे मेरी बात'...यह भी चचा ने कहा था तो उनकी बातों को कौन समझता है, कौन समझेगा! चाचा को भी पता था, है ना! जाहिर सी बात है कि कहने और समझने का फासला हमारे समय में बढ रहा है यह मान लेना चाहिए पर यह हमारे वक्त की पैदाइश है, ऐसा तो हरगिज नहीं कहा जा सकता। कहने और समझने के बीच इत्मीनान से सुनने अदब और एहतराम से सुनने का बडा जरूरी मकाम है, और जीवन की आपाधापी तथा अहम के पहाड जब इतने उतिष्ठ हो जाते हैं तो चिल्लाना भी बेमानी हो जाता है, धीरे से कान में की गई फुसफुसाहट सुन जाए तो करिश्मा होगा। शेरों और कविताओं मे अपनी बात कहना उसी फुसफुसाहट जैसा है, ये सरगोशियां बेमानी ना हों आओ कुछ ऐसा करें। गालिब के ही हमशहरी दाग देहलवी के शब्दों में कहें तो 'चल तो पडे हो राह को हमवार देखकर, यह राहे शौक है सरकार देखकर।


अकसर यह भी होता है कि किसी अदीब को उसके गुजरने के बाद जाना- समझा जाता है इज्जत दी जाती है। गालिब को तो गुजरे भी जमाना हो गया, अब तो उसे हम कायदे से समझ लें पर साहिब जिस दौर से गुजर रहे हैं, वहां अपनी तहजीबो रवायत के कर्णधारों - विचारकों, चिंतकों, कवियों, लेखकों को सबसे गैरजरूरी मान लिया गया है तो बाकी सब रास्ते और मंजिलें भी तो वैसी ही होंगी। इस बात पे अगर आज फिर चचा गालिब अगर मेरे ख्वाब में आए तो माफी मांगते हुए उन्हीं के शब्दों में कहूंगा कि '' हुई मुद्दत कि गालिब मर गया पर याद आता है, वो हर एक बात पर कहना कि यूं होता तो क्या होता'' ।
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Published on April 11, 2012 02:58
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