कर्नाटक का सबक भाजपा और कांग्रेस, दोनों के लिए

कर्नाटक में मिली पराजय का मुझे दु:ख है। लेकिन मैं आश्चर्यचकित नहीं हूं। आश्चर्य तब होता यदि हम विजयी हुए होते।


 


वर्तमान में, मुझे लगता है कि कर्नाटक के नतीजे भाजपा के लिए एक गम्भीर सबक हैं। एक प्रकार से यह कांग्रेस के लिए भी सबक हैं। हम दोनों के लिए आम आदमी का सबक है : आम आदमी को अपनी जेब में पड़ा मानकर मत चलिए। हो सकता है कि वह स्वयं कई मौकों पर नैतिक आचरण से इतर व्यवहार करता है परन्तु राष्ट्रीय मामलों के शीर्ष पर बैठे हुए लोगों के अनैतिक आचरण पर अत्यन्त क्रोधित होता है। यही मुख्य कारण है जिसके चलते इन दिनों सामान्य तौर पर राजनीतिज्ञों के प्रति गहन वितृष्णा का भाव बना हुआ है।


 


यदि भ्रष्टाचार कर्नाटक में नाराजगी का कारण बना है, तो क्यों नहीं यही भावना नई दिल्ली में भी महसूस की जाएगी?


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वास्तव में, मैं मानता हूं कि कोलगेट और रेलगेट काण्डों में लिए गए निर्णयों में कर्नाटक के नतीजों ने ठोस निर्णायक योगदान दिया है!  कर्नाटक चुनावी नतीजों से पूर्व, कांग्रेस पार्टी इन दोनों घोटालों में कुछ भी न करने का मन बनाकर बैठी थी, भले ही इसके चलते बजट सत्र का दूसरा भाग व्यर्थ चला जाए।


 


इस तरह के समाचार प्रकाशित हुए हैं कि हम कर्नाटक इसलिए हारे क्योंकि हमने येदिरुप्पा को पार्टी से बाहर कर दिया था। मुझे कुछ प्रमुख स्तम्भकारों की यह टिप्पणियां देखने को मिलीं: देखो कैसे सोनियाजी ने वीरभद्र सिंह पर लगे आरोपों को दरकिनार कर कांग्रेस के लिए फायदा पाया। कर्नाटक में उठाए गए सैध्दान्तिक फैसले पर भाजपा को अपने आप पर गर्व है। नतीजा सामने है कि भाजपा ने ‘दक्षिण में जमाई अपनी जमीन को खो दिया।


 


सर्वप्रथम, भाजपा ने येदिरूप्पा को बाहर नहीं निकाला; उन्होंने स्वयं ही पार्टी छोड़ी और केजीपी के नाम से अपनी एक अलग पार्टी बनाने का निर्णय किया।  वास्तव में, जब यह स्पष्ट हो गया था कि वह खुलेआम भ्रष्टाचार में लिप्त हैं, यदि तभी पार्टी ने तुरंत कड़ी कार्रवाई की होती तो हालात आज कुछ और होते।


 


लेकिन अनेक महीनों तक उनकी कारगुजारियों को नजरअंदाज कर किसी तरह उन्हें मनाने के प्रयास होते रहे। इसके लिए तर्क दिया जाता रहा कि यदि पार्टी ने ‘व्यवहारिक‘ दृष्टि नहीं अपनाई तो वह दक्षिण में अपनी एकमात्र सरकार को गंवा देगी।


 


mookerjiइस अवधि में, अक्सर मैं पार्टी के अपने सहयोगियों को बताया करता था कि ऐसा संकट प्रारम्भिक वर्षों में राजस्थान में भी आया था। भाजपा की पूर्ववर्ती जनसंघ की स्थापना सन् 1951 में डा0 श्यामा प्रसाद मुकर्जी ने सन् 1952 के पहले आम चुनावों से पहले की थी।


 


स्वतंत्रता के पहले दशक (1947-57) के दौरान राजस्थान जनसंघ का एक पदाधिकारी होने के नाते मैं सन् 1952 के चुनावों में पार्टी की शानदार सफलता का प्रत्यक्षदर्शी रहा हूं और बाद में उत्पन्न हुए संकट का भी।


 


सन् 1952 में जनसंघ ने तीन लोकसभाई और सभी राज्य विधानसभाओं में 35 सीटें जीती थीं। इन तीन सीटों में से दो पश्चिम बंगाल (डा. एस.पी. मुकर्जी और श्री दुर्गा चरण बनर्जी) और एक राजस्थान (बैरिस्टर उमाशंकर त्रिवेदी) से थीं।


 


राज्य विधानसभाओं की कुल 35 सीटों में से 9 पश्चिम बंगाल और 8 राजस्थान से मिली थीं। राजस्थान में पार्टी के सम्मुख उपजा संकट यह था कि पार्टी ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में जागीरदारी प्रथा के उन्मूलन का वायदा किया था; लेकिन राजस्थान में चुने गए आठों विधायक स्वयं जागीरदार थे!


 


जब राज्य विधानसभा शुरु हुई तो कांग्रेस पार्टी ने अपना स्पीकर बनाया और डिप्टी स्पीकर पद जनसंघ को दिया। श्री लाल सिंह शखातावत डिप्टी स्पीकर चुने गए।


 


विधानसभा के पहले ही सत्र में कांग्रेस पार्टी ने जो विधेयक प्रस्तुत किए उनमें से एक था जागीरदारी प्रथा के उन्मूलन का। जब हमने अपनी पार्टी के विधायकों को पार्टी के घोषणा पत्र में किए गए वायदे की ओर ध्यान दिलाते हुए इस विधेयक को समर्थन देने को कहा तो उनमें से अधिकांश ने साफ इंकार कर दिया।


 


हमने नई दिल्ली में डा. मुकर्जी को फोन पर इस संकट की जानकारी दी। उन्होंने कहा कि वे स्वयं जयपुर आकर विधायकों से बात करेंगे।


 


मैं उन दिनों को और उस तनाव को जो उस दौर में हमने झेला, को कभी नहीं भूल सकता। जब डा. मुकर्जी वहां पहुंचे तो तनाव और बढ़ गया। 8 में 6 विधायक चुपचाप अपने-अपने क्षेत्रों में चले गए। इनमें नवनिर्वाचित डिप्टी-स्पीकर भी शामिल थे। जो दो विधायक वहां थे वे डा. मुकर्जी से मिले और उन्हें सूचित किया कि वे पार्टी के निर्णय का पालन करेंगे; जबकि शेष विधायकों ने इस प्रस्तावित विधेयक के विरोध का मन बनाया।


 


डा. मुकर्जी ने पार्टी के पदाधिकारियों को परामर्श दिया कि इन असंतुष्टों को मनाने का एक और अंतिम प्रयास किया जाए, लेकिन यदि वे तब भी नहीं मानते तो उनके विरुध्द अनुशासनात्मक कार्रवाई करने में संकोच न करें।


 


bhairo-singh-shekhawatयह आसान निर्णय नहीं था। हम उस समय के महासचिव पण्डित दीनदयाल उपाध्यक्ष के सतत् सम्पर्क में थे। मैं  यह कभी नहीं भूल सकता कि 8 में से 6 विधायकों को निष्कासित करने का निर्णय पार्टी ने किया। और जो दो शेष बचे थे, उनमें से एक थे स्वर्गीय श्री भेरों सिंह शेखावत, जो तीन बार राजस्थान के मुख्यमंत्री बने और बाद में भारत के उपराष्ट्रपति पद तक पहुंचे। देश में ऐसे कितने दल होंगे जो इस तरह के निर्णय लेने की हिम्मत रखते हों? ओर जनसंघ ने ऐसी हिम्मत अपने शैशवकाल में ही दिखाई!


 


इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि ऐसे अनेक उदाहरण गिनाए जा सकते हैं जब अन्य दलों ने गंभीर दुराचारों को नजर अंदाज कर दिया, लेकिन हमें यह अहसास रहना चाहिए कि लोग जिस पैमाने पर भाजपा को तौलते हैं वह दूसरी पार्टियों के नजरिए से अलग है! वह इसलिए कि इन वर्षों में हमारे शानदार कामों से जनता में हमसे बड़ी आशाएं पैदा हुई हैं, इसलिए एक छोटी सी भी असावधानी हमारे लिए महंगी साबित हो सकती है। और कर्नाटक संकट से निपटने में हमारा रुख किसी भी रुप में एक छोटी असावधानी कदापि नहीं थी। मैं निरंतर कहता रहा हूं कि कर्नाटक से निपटने में हमारी दृष्टि पूर्णतया अवसरवादी थी।


 


टेलपीस (पश्च्यलेख)


 


आज के पायनियर दैनिक के मुख पृष्ठ पर एक बॉक्स प्रकाशित हुआ है, जिसका शीर्षक है: स्नब टू पीएम (Snub to PM)? इसमें कहा गया है कि श्रीमती सोनिया गांधी शीघ्र ही पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से मिलकर मंत्रिमंडल विस्तार पर चर्चा करेंगी।


 


क्या प्रधानमंत्री ने अपनी केबिनेट के बारे में निर्णय लेने का अधिकार छोड़ दिया है? दो केंद्रीय मंत्रियों के हटाए जाने सम्बंधी आज प्रकाशित समाचारों में मुख्यतया यह भाव है कि सोनियाजी ने ही प्रधानमंत्री के इन ‘दोनों लोगों‘ को हटवाया।


 


तनिक आत्म सम्मान का भी तकाजा है कि प्रधानमंत्री समय की मांग को समझें और शीघ्र चुनावों का आदेश दें।


 


लालकृष्ण आडवाणी


नई दिल्ली


12 मई, 2013


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Published on May 12, 2013 09:42
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