सन् 2014 में कांग्रेस के भाग्य को लेकर अटकलें
इन दिनों अटकलों का बाजार गर्म है कि आगामी लोकसभाई चुनाव जो साधारणतया सन् 2014 में होने हैं, में क्या होगा।
एक पखवाड़े पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने निर्वतमान राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल के सम्मान में रात्रिभोज दिया था। यह कार्यक्रम हैदराबाद हाउस में सम्पन्न हुआ।
औपचारिक रात्रिभोज शुरु होने से पूर्व दो वरिष्ठ केंद्रीय मंत्रियों के साथ हुई अनौपचारिक चर्चा में मैंने इन दोनों मंत्रियों के दिमाग में उमड़ रही चिंताओं को महसूस किया। उनकी आशंकाएं निम्न थीं:
(क) सोलहवीं लोकसभाई चुनावों में न तो क्रांग्रेस और न ही भाजपा ऐसा कोई गठबंधन बना पाने में सफल होंगे जिसका लोकसभा में स्पष्ट बहुमत हो।
(ख) इसलिए सन् 2013 या 2014 में, जब भी लोकसभाई चुनाव होंगे, संभवतया जिस ढंग की सरकार बनेगी वह तीसरे मोर्चे जैसी हो सकती है। कांग्रेसी मंत्रियों के मुताबिक यह न केवल भारतीय राजनीति की स्थिरता अपितु राष्ट्रीय हितों के लिए भी अत्यन्त नुकसानदायक होगी।
इन कांग्रेसजनों द्वारा प्रकट की गई चिंताओें पर मेरी प्रतिक्रिया थी: मैं आपकी चिंता को समझता हूं मगर उससे सहमत नहीं हूं। मेरे अपने विचार हैं कि :
(1) पिछले ढाई दशकों में राष्ट्रीय राजनीति का जो स्वरुप बना है उसमें यह प्रत्यक्षत: असंभव है कि नई दिल्ली में कोई ऐसी सरकार बन पाए जिसे या तो कांग्रेस अथवा भाजपा का समर्थन न हो। इसलिए तीसरे मोर्चे की सरकार की कोई संभावना नहीं है।
(2) हालांकि एक गैर-कांग्रेसी, गैर-भाजपाई प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाली सरकार जिसे इन दोनों प्रमुख दलों में से किसी एक का समर्थन हो, बनना संभव है। ऐसा अतीत में भी हो चुका है।
लेकिन, चौ. चरण सिंह, चन्द्रशेखरजी, देवेगौड़ाजी और इन्द्र कुमार गुजरालजी के प्रधानमंत्रित्व वाली सरकारें (सभी कांग्रेस समर्थित) और विश्वनाथ प्रताप सिंह (भाजपा समर्थित) सरकार के उदाहरणों से स्पष्ट है कि ऐसी सरकारें ज्यादा नहीं टिक पातीं।
(3) केंद्र में तभी स्थायित्व रहा है जब सरकार का प्रधानमंत्री या तो कांग्रेस का हो या भाजपा का। दुर्भाग्यवश, सन् 2004 से यूपीए 1 और यूपीए 2-दोनों सरकारें इतने खराब ढंग चल रहीं कि सत्ता प्रतिष्ठान में घुमड़ रहीं वर्तमान चिंताओ को सहजता से समझा जा सकता है।
सामान्यतया लोग मानते हैं कि लोकसभाई चुनावों में कांग्रेस का सर्वाधिक खराब चरण आपातकाल के पश्चात् 1977 के चुनावों में था। लेकिन इस पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए यदि आगामी लोकसभाई चुनावों में कांग्रेस का हाल सन् 1952 से अब तक के इतिहास में सर्वाधिक खराब रहे।
भविष्यवक्ता यह नहीं जानना चाहते कि किसने यह भविष्यवाणी की है कि यह पहली बार होगा कि कांग्रेस पार्टी का स्कोर मात्र दो अंकों तक सिमट कर रह जाएगा यानी कि सौ से भी कम!
हाल ही में सम्पन्न हुए उत्तर प्रदेश विधानसभाई चुनावों में ‘परिवार विशेष‘ के गढ़ समझने जाने वाले रायबरेली, अमेठी इत्यादि में पार्टी का दयनीय प्रदर्शन और उत्तर प्रदेश के नगर निगम चुनावों में कांग्रेस की निराशाजनक हालत, जबकि 12 निगमों में से भाजपा की झोली में दस निगम आए, कांग्रेस को मिली असफलता, पार्टी के डूबते भाग्य के साफ संकेत हैं।
कर्नाटक की गड़बड़ी के बावजूद, जहां तक भाजपा का सम्बन्ध है तो हाल ही के सभी जनमत सर्वेक्षण साफ तौर पर बताते हैं कि कांग्रेस पार्टी के तेजी से सिकड़ते आधार से मुख्य फायदे में रहने वाली पार्टी - भाजपा ही रहेगी!
****
भारत 1947 में स्वतंत्र हुआ। पहले दो दशकों में देश की राजनीति पर कांग्रेस पार्टी का पूर्ण रुप से वर्चस्व रहा। स्वतंत्रता आंदोलन कांग्रेस पार्टी के बैनर तले चला जोकि एक व्यापक मंच था। स्वाभाविक रुप से केन्द्र और अधिकांश राज्यों में कांग्रेस सत्ता में थी।
यहां प्रकाशित चुनावी नतीजों का चार्ट बताता है कि पहली बार सन् 1977 में तब कांग्रेस के हाथों से केन्द्र सरकार की सत्ता खिसकी, जब जनता पार्टी ने कांग्रेस को पराजित किया। श्री मोरारजी भाई देसाई ने प्रधानमंत्री का पद संभाला और श्री वाजपेयी विदेश मंत्री बने।
1977 के पश्चात् राजनीति तेजी से बदली है। 1980 में भाजपा की स्थापना के बाद से इस पार्टी ने सुनियोजित ढंग से इस बदलाव हेतु दो मुखी रणनीति अपनाई। पहली रणनीति थी कांग्रेस पार्टी के एकाधिकार को समाप्त करना और दूसरी रणनीति का लक्ष्य था कि भाजपा को न केवल एक शक्तिशाली राष्ट्रीय पार्टी बनाना और साथ ही उन राज्यों में भी मजबूत करना जहां पहले से ही इसकी बड़ी संभावनाएं मौजूद थीं।
1984 में आतंकवादियों के हाथों श्रीमती गांधी की हत्या और इस त्रासदी से राजीव गांधी के पक्ष में उपजी शक्तिशाली सहानुभूति लहर ने सत्तारुढ़ दल और मुख्य विपक्षी दल के लिए इस वर्ष के चुनाव ने अनोखी स्थिति पैदा कर दी।
चुनावों में जीती गई लोकसभाई सीटों की संख्या :
वर्ष
कांग्रेस
जनसंघ-जनता-भाजपा
1952
364
3 (जनसंघ)
1957
371
4 (जनसंघ)
1962
361
14 (जनसंघ)
1967
283
35 (जनसंघ)
1971
352
23 (जनसंघ)
1977
154
295 (जनता)
1980
353
31 (जनता)
1984
415
2 (भाजपा)
1989
197
86 (भाजपा)
1991
232
120 (भाजपा)
1996
140
161 (भाजपा)
1998
141
182 (भाजपा)
1999
114
182 (भाजपा)
2004
145
138 (भाजपा)
2009
206
116 (भाजपा)
राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी ने 415 सीटें जीतकर सर्वाधिक उच्च स्कोर हासिल किया और हमारी पार्टी पूरे देश में 2 सीटें लेकर सर्वाधिक निचले स्तर पर रही! हालांकि इस गंभीर असफलता ने हमें दो-मुखी रणनीति को और अधिक उत्साह और मजबूत इरादों के साथ अपनाने को प्रेरित किया तथा पंद्रह वर्षों के भीतर-1984 से 1999-हम एक पार्टी के प्रभुत्व वाली राजनीति को द्विध्रुवीय राजनीति में परिवर्तित करने में सफल रहे।
डा. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार अपनी ही सरकार और यहां तक कि अपने सहयोगियों को साथ लेकर चलने में असफल रही है। हालांकि यूपीए 2 का एक ऐसा सहयोगी है जो भले ही राजनीतिक सहयोगी नहीं होगा लेकिन यह उसका सर्वाधिक महत्वपूर्ण साथी है जो इसके मुश्किल पैदा करने वाले सहयोगियों को ‘मैनेज‘ करता है, जिसे मैं अक्सर कांग्रेस पार्टी का सर्वाधिक निर्भर रहने वाला सहयोगी निरुपित करता हूं। यदि कांग्रेस पार्टी अभी तक लोकसभा के चुनाव सफलतापूर्वक टालने में सफल रही है तो सिर्फ इसलिए कि यह गठबंधन सहयोगी है-सी.बी.आई!
लालकृष्ण आडवाणी
नई दिल्ली
5 अगस्त, 2012

L.K. Advani's Blog
- L.K. Advani's profile
- 10 followers
