फ़रवरी की यूँही वाली कोई शाम

इधर अचानक से इस बात पर ध्यान गया कि एक आर्टिस्ट - लेखक मान लो, और बाक़ी लोगों में क्या अंतर होता है। घटना छोटी सी थी, लेकिन उससे पता चला कि कोई आर्टिस्ट हमेशा चीज़ों को उसके डिटेल्ज़ के साथ देखता है। जबकि आम तौर से लोग चीज़ों को हमेशा generalise कर के देखते हैं। मेरे लिए लोगों को किसी भी वर्गीकरण में रखना मुश्किल होता है। मैं जिन्हें जानती हूँ, उनके डिटेल्ज़ के साथ जानती हूँ। उनके शहर का आसमान, उनके वसंत के रंग, उनके पसंद की किताबें... उनकी आवाज़ की कोमलता, उनकी सहृदयता ... दोस्तों के साथ के उनके क़िस्से... सब से जानती हूँ ...
यहाँ मैं भी एक generalisation ही कर रही हूँ। लेकिन ऐसा देखा है कि किसी भी आर्टिस्ट की नज़र बहुत चीज़ों पर होती है। उसे रोज़ के आसमान के अलग रंग दिखते हैं। क्लाद मौने ने एक ही जगह के अलग अलग मौसमों में चित्र बनाए कि सूरज की रौशनी हर मौसम को अलग छटा बिखेरती थी। किसी भी महान कलाकृति में अक्सर छोटी छोटी चीज़ों पर पूरा अटेंशन दिया गया होता है। हमारे मन्दिरों में जो मूर्तियाँ होती हैं उनमें गंधर्वों और अप्सराओं के कपड़े इतने अलग अलग होते हैं कि किन्हीं दो पर एक डिज़ायन नहीं मिलता।
दूसरी जिस चीज़ पर कल ध्यान गया वो ये था कि हमें बचपन में जब वर्गीकरण सिखाया गया तो हर चीज़ को एक पहले से बेहतर या कमतर तरीक़े से आँकना ही सिखाया गया। दो चीज़ें अलग हो सकती हैं, जिनकी आपस में तुलना बेमानी है, ये कम सिखाया गया। हमेशा किसी दूसरे बच्चे से बेहतर होना, किसी से ज़्यादा मार्क लाना रिपोर्ट कार्ड में, दौड़ में आगे बढ़ना जैसी चीज़ें... लेकिन हम सबकी ज़िंदगी अलग अलग होगी और हम किसी से हमेशा कॉम्पटिशन में नहीं हैं, ये कम सिखाया गया। कम लोगों को सिखाया गया। इसलिए भले ही मैं किसी की तुलना में कुछ ज़्यादा हासिल करना नहीं चाहूँ, यहाँ कुछ लोग हमेशा होंगे जो मुझसे होड़ लगाएँगे। जिन्हें इस बात से ख़ुशी मिलेगी या दुःख होगा कि हम पीछे रह गए या आगे निकल गए.
मेरे घर में कभी बहुत ज़्यादा दबाव नहीं था कि बहुत ज़्यादा पढ़ो या उससे ज़्यादा नम्बर लाओ। हाँ, लोगों को ये शौक़ ज़रूर था कि मुझे ख़ूब ख़ूब पढ़ता देखें और टोकें, कि इतना मत पढ़ो। वो एक सुख मैंने कभी नहीं दिया किसी को। पता नहीं कैसे तो, पर बचपन में सीख गए थे कि क्लास में तीसरी या चौथी पोज़ीशन लाने के लिए बहुत कम पढ़ना पड़ता है लेकिन फ़र्स्ट आने के लिए बहुत ज़्यादा पढ़ना पड़ता है और उसके बाद भी चान्स है कि आप सेकंड कर जाएँगे। कितना भी पढ़ लो, फ़र्स्ट आने की गारंटी कभी नहीं है। तो हमने तय कर लिया था। पढ़ पढ़ के जान नहीं देना है। ज़िंदगी जिएँगे ख़ुश ख़ुश। IIMC में गए तो मालूम था कि बाद की ज़िंदगी पता नहीं कैसी होगी। यहाँ रिपोर्ट कार्ड तो मिलना नहीं है तो जितना वक़्त है, थोड़ा मज़े ले लेते हैं। 
माँ के नहीं रहने पर बहुत सी चीज़ों का हिसाब ही गड़बड़ा गया था। लोग मुझे मेरे बिखरे कमरे से जज करने की कोशिश करते और मैं उन्हें करने देती। अब भी मेरे घर में स्टडी को छोड़ के सब बिखरा हुआ ही है। लेकिन मैं जानती हूँ, मुझे हर चीज़ में फ़र्स्ट नहीं आना है। एक छोटी सी ज़िंदगी है। मुझे वो करना है जिसमें मुझे ख़ुशी मिलती है। जैसे कि लिखना। लूप में जैज़ सुनना। रात को साड़ी का आँचल लहराते, बाल खोल के डान्स करना। मैं कहानी अच्छी सुनाती हूँ, लिखती अच्छा हूँ। तो लिखना पढ़ना करेंगे। बाक़ी साफ़ घर रखने वाले लोग उसमें ख़ुशी पाते हैं तो करें। मेरे घर को जज करें तो हम उनसे सर्टिफ़िकेट लेने के इंतज़ार में तो हैं नहीं। 
चीज़ों की ये absoluteness या uniqueness मैंने अब बहुत हद तक समझी और सीखी... कि मुझे सबसे अच्छी चीज़ नहीं चाहिए... कुछ ख़ास चाहिए जो ख़ास कारणों से पसंद है। लोगों के साथ भी ऐसा ही है। मेरे क़िस्म के लोग। मेरे जैसे थोड़े थोड़े। कि इसलिए वो सिंपल सी फ़िल्म Ye Jawani Hai Deewani मुझे बहुत पसंद है। वो कहती है, तुम मुझसे बेहतर नहीं हो, बस मुझसे अलग हो। 
अपने आप को इस दौड़ से थोड़ा बाहर निकाल के रखना बहुत सुकूनदेह है। मेरे पास मेरे क़िस्म की किताबें, मेरे क़िस्म के लोग हैं। मेरी चुनी हुयी चुप्पी और मेरी चुनी हुयी बातें हैं। मेरे चुने हुए सुख और मेरे ना चुन पा सकने वाले दुःख हैं। कि ज़िंदगी मेहरबान है। और जितना है, वो काफ़ी है।
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Published on February 11, 2019 05:29
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