Ek Anuja Quotes
Ek Anuja
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Neelam Jain2 ratings, 4.00 average rating, 0 reviews
Ek Anuja Quotes
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“दुआएँ तो हमेशा-हरसंभव दी ही होंगी लेकिन जब कभी भी मन बहुत ज्यादा दुखा होगा, न चाहते हुए भी बद्दुआएँ भी कभी मन से निकली होंगी. तो फिर क्या मन से निकली हुई उन बद्दुआओं का पश्चाताप होता है ? कभी होता है अनु दा, कभी नहीं होता. शायद होना चाहिए, लेकिन कभी-कभी फिर भी नहीं होता. कोशिशें की जाएँ तो भी नहीं होता !”
― Ek Anuja
― Ek Anuja
“अनु दा, जाने किसने यह बात कही होगी कि 'डर के आगे जीत है'. यह तो नहीं कह सकती कि पूरी तरह से गलत है, लेकिन पूरी तरह से सही भी नहीं है. कभी-कभी डर के आगे केवल डर होते हैं. नए-नए डर. और भी बड़े से डर. अजेय से लगने वाले डर, जिन्हे शायद कभी जीता नहीं जा सकता ...!”
― Ek Anuja
― Ek Anuja
“कहते हैं कि तुम हो.
कौन जाने.
कभी पार्थ मान लो और सही राह,
सही दिशा दिखा दो तो जानें.
कभी सुदामा मान लो और
सारी मुश्किलें बाँट लो तो जानें.
कभी रुक्मणी मान लो और
इंद्रलोक का पारिजात ला दो तो जानें.
कभी यशोदा मान लो और
मुख में अपने ब्रह्मांड दिखा दो तो जानें.
कहते हैं कि तुम हो.
कौन जाने.
आह्वान फिर भी तुम्हारा ही है.
ध्यान फिर भी तुम्हारा ही है.
मीरा की सी कृष्णमय ज़िन्दगी... !!!”
― Ek Anuja
कौन जाने.
कभी पार्थ मान लो और सही राह,
सही दिशा दिखा दो तो जानें.
कभी सुदामा मान लो और
सारी मुश्किलें बाँट लो तो जानें.
कभी रुक्मणी मान लो और
इंद्रलोक का पारिजात ला दो तो जानें.
कभी यशोदा मान लो और
मुख में अपने ब्रह्मांड दिखा दो तो जानें.
कहते हैं कि तुम हो.
कौन जाने.
आह्वान फिर भी तुम्हारा ही है.
ध्यान फिर भी तुम्हारा ही है.
मीरा की सी कृष्णमय ज़िन्दगी... !!!”
― Ek Anuja
“कच्ची माटी का सा था जीवन और,
परिष्कृत होते जाने की कामनाएं थीं
निखरते जाने की कामनाएं थीं
तुम्हारा सानिध्य शिल्पकार और सामीप्य,
इसीलिए ध्येय था ! एकमात्र !
चाक पर सतत घूमते जाना परेशानी नहीं थी
जो तुम थामे रखते, तराशते रहते !
आग में तपते जाना भी परेशानी नहीं थी
जो तुम चुन लेते अपने सर्वश्रेष्ठ शिल्प की तरह !
और कभी ओझल नहीं होने देते
अपनी निगाहों से !”
― Ek Anuja
परिष्कृत होते जाने की कामनाएं थीं
निखरते जाने की कामनाएं थीं
तुम्हारा सानिध्य शिल्पकार और सामीप्य,
इसीलिए ध्येय था ! एकमात्र !
चाक पर सतत घूमते जाना परेशानी नहीं थी
जो तुम थामे रखते, तराशते रहते !
आग में तपते जाना भी परेशानी नहीं थी
जो तुम चुन लेते अपने सर्वश्रेष्ठ शिल्प की तरह !
और कभी ओझल नहीं होने देते
अपनी निगाहों से !”
― Ek Anuja
“पुरुषार्थ धुरी है.
उत्थान की. ऊर्ध्वारोहण की.
जानती हूँ.
लम्बे-पथरीले फासलों की फ़िक्र नहीं थी.
दिशाएँ लेकिन धूमिल लगती रहीं.
कोई इंतज़ार मानो छलता रहा.
साथ कम लगता रहा.
राहें भीतर भी थीं तय करने को
राहें बाहर भी थीं.
समन्वय की कोशिशें थकाती रहीं.”
― Ek Anuja
उत्थान की. ऊर्ध्वारोहण की.
जानती हूँ.
लम्बे-पथरीले फासलों की फ़िक्र नहीं थी.
दिशाएँ लेकिन धूमिल लगती रहीं.
कोई इंतज़ार मानो छलता रहा.
साथ कम लगता रहा.
राहें भीतर भी थीं तय करने को
राहें बाहर भी थीं.
समन्वय की कोशिशें थकाती रहीं.”
― Ek Anuja
“न होना तेरा कभी सबब नहीं था मेरी उदासी का
आज क्यूँ फिर खल रहा है तेरा यूँ
वक़्त से पहले गुज़र जाना ?
वो आया और आकर चला गया
तोड़ गया सब्र के मेरे सारे बाँध
हाँ, वही था वह ! वही चिर-परिचित साया तेरा !”
― Ek Anuja
आज क्यूँ फिर खल रहा है तेरा यूँ
वक़्त से पहले गुज़र जाना ?
वो आया और आकर चला गया
तोड़ गया सब्र के मेरे सारे बाँध
हाँ, वही था वह ! वही चिर-परिचित साया तेरा !”
― Ek Anuja
“बिम्ब छलते रहे,
मनमानी करते रहे.
विस्तृत होकर,
आवर्तित होकर.
कुहासे बढ़ते रहे.
इंद्रधनुषी छोर थे,
ओझल से होते रहे... !”
― Ek Anuja
मनमानी करते रहे.
विस्तृत होकर,
आवर्तित होकर.
कुहासे बढ़ते रहे.
इंद्रधनुषी छोर थे,
ओझल से होते रहे... !”
― Ek Anuja
“बिम्ब छलते रहे,
मनमानी करते रहे.
विस्तृत होकर,
आवर्तित होकर.
कुहासे बढ़ते रहे.
इंद्रधनुषी छोर थे,
ओझल से होते रहे... !”
― Ek Anuja
मनमानी करते रहे.
विस्तृत होकर,
आवर्तित होकर.
कुहासे बढ़ते रहे.
इंद्रधनुषी छोर थे,
ओझल से होते रहे... !”
― Ek Anuja
“कर्म योग और भक्ति योग,
ज्ञान योग और राज योग,
आसान नहीं था,
कुछ भी अपनाना और मुक्त हो जाना.
विरक्त हो जाना.
अपने हिस्से की पीड़ाएँ थीं,
जिनसे होकर हर-हाल गुज़रना था.
कितने निमित्त, कितने पुरुषार्थ,
इन प्रश्नों का सोचा जाना व्यर्थ था !”
― Ek Anuja
ज्ञान योग और राज योग,
आसान नहीं था,
कुछ भी अपनाना और मुक्त हो जाना.
विरक्त हो जाना.
अपने हिस्से की पीड़ाएँ थीं,
जिनसे होकर हर-हाल गुज़रना था.
कितने निमित्त, कितने पुरुषार्थ,
इन प्रश्नों का सोचा जाना व्यर्थ था !”
― Ek Anuja
“जाने क्या बन कर रही उन के मन में उम्र भर,
आँख का तारा या आँख की किरकिरी.
या कभी कोई स्थान ही नहीं बना पाई,
केवल एक साधारण सी बात की तरह बीत गयी.”
― Ek Anuja
आँख का तारा या आँख की किरकिरी.
या कभी कोई स्थान ही नहीं बना पाई,
केवल एक साधारण सी बात की तरह बीत गयी.”
― Ek Anuja
“अश्रुधाराएँ बह निकलीं थीं
मन को थामने की कोशिशों में.
मन ने कहाँ लगाम पायी थी
शायद ही सुलझाई हों कभी
बातें सारी उलझाईं थीं.
किसी अंतर्ध्यान में इसी लिए
खो जाना चाहती थी.
मन के सारे कोलाहल
कम करना चाहती थी.”
― Ek Anuja
मन को थामने की कोशिशों में.
मन ने कहाँ लगाम पायी थी
शायद ही सुलझाई हों कभी
बातें सारी उलझाईं थीं.
किसी अंतर्ध्यान में इसी लिए
खो जाना चाहती थी.
मन के सारे कोलाहल
कम करना चाहती थी.”
― Ek Anuja
“हम सभी के मन का कोई न कोई हिस्सा, शायद इस क़िताब की एक अनुजा का सा होता है... थोड़ा eccentric, थोड़ा abstract, थोड़ा super-sensitive सा... यथार्थ से दूर, थोड़ा कभी कल्पनाओं में विचरता हुआ सा... कभी कहीं कुछ सवालों में, विचारों में उलझा हुआ सा... कहीं थोड़ा allergic to being pragmatic सा... !”
― Ek Anuja
― Ek Anuja
“जाने रोशनी की यह आस भीतर के अँधेरे के लिए है,
या बाहर के अँधेरे के लिए.
कौन जाने अँधेरा भीतर ज्यादा गहरा है या बाहर... !”
― Ek Anuja
या बाहर के अँधेरे के लिए.
कौन जाने अँधेरा भीतर ज्यादा गहरा है या बाहर... !”
― Ek Anuja
“सुनी-पढ़ी-बुनी तमाम कहानियों में से
कोई तो एक कहानी
सुनाते रहते हैं हम अक्सर ख़ुद को ही.
चुन लेते हैं कुछ किरदार
और बतियाते रहते हैं अक्सर उनसे यूँ ही.
ख़ुद की अपने ही किस्सों में
बस इतनी सी, बित्ती भर की सत्ता
फिर चुन लो आरंभ नया
और फिर चुन लो कोई अंत नया.
बाक़ी कड़ियाँ जुड़ते रहने दो
क़िस्सागोई चलती रहने दो.”
― Ek Anuja
कोई तो एक कहानी
सुनाते रहते हैं हम अक्सर ख़ुद को ही.
चुन लेते हैं कुछ किरदार
और बतियाते रहते हैं अक्सर उनसे यूँ ही.
ख़ुद की अपने ही किस्सों में
बस इतनी सी, बित्ती भर की सत्ता
फिर चुन लो आरंभ नया
और फिर चुन लो कोई अंत नया.
बाक़ी कड़ियाँ जुड़ते रहने दो
क़िस्सागोई चलती रहने दो.”
― Ek Anuja
“जो कुछ भी मैं सोचती हूँ,
वह पहले भी सोचा जा चुका.
जो कुछ भी मैं कहती हूँ,
वह पहले भी कहा जा चुका.
जो कुछ भी मैं सहती हूँ,
वह पहले भी सहा जा चुका.
जो कुछ भी मैं करती हूँ,
वह पहले भी किया जा चुका.
जो कुछ भी मैं जीती हूँ,
वह पहले भी जिया जा चुका.
तो फिर मन की इस यायावरी का
मेरे इस तरह सोचने का,
इस तरह कहने का, इस तरह सहने का,
इस तरह कुछ भी करने का
और इस तरह जीने का -
वैशिष्टय क्या, औचित्य क्या ?”
― Ek Anuja
वह पहले भी सोचा जा चुका.
जो कुछ भी मैं कहती हूँ,
वह पहले भी कहा जा चुका.
जो कुछ भी मैं सहती हूँ,
वह पहले भी सहा जा चुका.
जो कुछ भी मैं करती हूँ,
वह पहले भी किया जा चुका.
जो कुछ भी मैं जीती हूँ,
वह पहले भी जिया जा चुका.
तो फिर मन की इस यायावरी का
मेरे इस तरह सोचने का,
इस तरह कहने का, इस तरह सहने का,
इस तरह कुछ भी करने का
और इस तरह जीने का -
वैशिष्टय क्या, औचित्य क्या ?”
― Ek Anuja
“मेरे अपने - मैं होने की प्रकिया में
जो कुछ छूट गया सा लगता हो
जो कमतर सा लगता हो, वो क्या है ?
तुम्हारे - तुम हो पाने की प्रकिया में
जो बिल्कुल पूरा सा लगता हो
जो बेहतर सा लगता हो, वो क्या है ?”
― Ek Anuja
जो कुछ छूट गया सा लगता हो
जो कमतर सा लगता हो, वो क्या है ?
तुम्हारे - तुम हो पाने की प्रकिया में
जो बिल्कुल पूरा सा लगता हो
जो बेहतर सा लगता हो, वो क्या है ?”
― Ek Anuja
“थोड़ा खुद को कम आँकना,
थोड़ा खुद को छलते जाना.
थोड़ा सच से आँख चुराना,
थोड़े किस्से गढ़ते जाना.
थोड़ा झूठा जी बहलाना,
थोड़ा कुछ-कुछ ढलते जाना.
कभी दौड़ कर, कभी घिसट कर,
थोड़ा-थोड़ा चलते जाना... !”
― Ek Anuja
थोड़ा खुद को छलते जाना.
थोड़ा सच से आँख चुराना,
थोड़े किस्से गढ़ते जाना.
थोड़ा झूठा जी बहलाना,
थोड़ा कुछ-कुछ ढलते जाना.
कभी दौड़ कर, कभी घिसट कर,
थोड़ा-थोड़ा चलते जाना... !”
― Ek Anuja
“हर क़तरा जो बहा आँखों से
मेरे लिए अनमोल था
हर हर्फ़ जो डूबा स्याही में
वो तेरा ही बोल था
इन कतरों में इन हर्फों में
मेरी तो दुनिया समायी है
जाने क्यों हर बार मग़र
तुम पर ही ये दौलत लुटाई है... !”
― Ek Anuja
मेरे लिए अनमोल था
हर हर्फ़ जो डूबा स्याही में
वो तेरा ही बोल था
इन कतरों में इन हर्फों में
मेरी तो दुनिया समायी है
जाने क्यों हर बार मग़र
तुम पर ही ये दौलत लुटाई है... !”
― Ek Anuja
“कभी कहीं उम्मीदों से परे अपनत्व मिले,
कभी कहीं अपनत्व की कमी खलती रहे.
न तो मिलने वाले की अनदेखी संभव,
न ही कमी खलने वाले की अनदेखी संभव... !”
― Ek Anuja
कभी कहीं अपनत्व की कमी खलती रहे.
न तो मिलने वाले की अनदेखी संभव,
न ही कमी खलने वाले की अनदेखी संभव... !”
― Ek Anuja
“थोड़ा खुद को कम आँकना,
थोड़ा खुद को छलते जाना.
थोड़ा सच से आँख चुराना,
थोड़े किस्से गढ़ते जाना.
थोड़ा झूठा जी बहलाना,
थोड़ा कुछ-कुछ ढलते जाना.
कभी दौड़ कर, कभी घिसट कर,
थोड़ा-थोड़ा चलते जाना.
कमोबेश, इसी तरह जीवन-यात्रा चलती रहती है ना हम सभी की ? कोई थकना नहीं चाहता, कोई रुकना नहीं चाहता. बस, नए-नए उपक्रम ढूँढ़ते रहना, चलते रहना और चलते रहना... !”
― Ek Anuja
थोड़ा खुद को छलते जाना.
थोड़ा सच से आँख चुराना,
थोड़े किस्से गढ़ते जाना.
थोड़ा झूठा जी बहलाना,
थोड़ा कुछ-कुछ ढलते जाना.
कभी दौड़ कर, कभी घिसट कर,
थोड़ा-थोड़ा चलते जाना.
कमोबेश, इसी तरह जीवन-यात्रा चलती रहती है ना हम सभी की ? कोई थकना नहीं चाहता, कोई रुकना नहीं चाहता. बस, नए-नए उपक्रम ढूँढ़ते रहना, चलते रहना और चलते रहना... !”
― Ek Anuja
“तुम प्लीज, सिरे से ख़ारिज नहीं कर देना मेरी इन बातों को. एक अंतराल के बाद पीछे मुड़ कर देखने पर हो सकता है इन सारी बातों की कड़ियाँ जुड़ती नज़र आएं. अक्सर यही तो होता है. जो बीत जाता है, वह बाद में ज्यादा ठीक से समझ आता है.”
― Ek Anuja
― Ek Anuja
“बस मन के विचारों की श्रृंखला ही मानो अनादि सी है. कहाँ शुरू हुई, कब शुरू हुई, कुछ जान नहीं पड़ता. और चलती ही चली जाती है, अथक. ख़त्म ही नहीं होती. कभी कहीं न ओर न छोर.”
― Ek Anuja
― Ek Anuja
“जाने कैसी ये बात है वात्सल्य के बारे में - जितना भी मिले, कम ही लगता है. जितना भी लुटा पाओ, कम ही लगता है. और जाने केवल मुझे ही ये लगता है या और लोगों को भी लगता है.”
― Ek Anuja
― Ek Anuja
“न खुद को ही ठीक से जान पाते हैं हम उम्र भर, न हमारे अपनों को न ही दूसरों को. जाने क्या ही हासिल कर पाते हैं जीवन में फिर. है ना अनु दा ?”
― Ek Anuja
― Ek Anuja
“अनु दा, कैसे इस तरह कुछ निमित्त, हमारे जीवन में हित या अहित के हेतु बन के अचानक से सामने आते हैं और अपना काम करके चुपचाप ऐसे निकल जाते हैं, ग़ायब हो जाते हैं, मानो कभी अस्तित्त्व में थे ही नहीं. चाहे लोग हों या घटनाएं.”
― Ek Anuja
― Ek Anuja
“उनका 'गूगल मैप' होना, किसी विषय विशेष पर उनका 'इनसाइक्लोपीडिया' होना, उनका भाषा पर अधिकार, उनका खाने का शौक़ीन होना, उनकी मिलनसारिता, उनकी सह्रदयता, उनकी सहभागिता, उनकी मेहनत, उनके संघर्ष. साथ ही उनका गुस्सा, उनकी ज़िद, उनकी चिढ़, उनका गुटका. बस यादें ही तो रह गयीं अनु दा !”
― Ek Anuja
― Ek Anuja
“बात आस्था और विश्वास की एक तरफ अनु दा. बात जीवन के प्रति अनुगृहीत होने की एक तरफ. लेकिन बात उन सख़्त सच्चाइयों की एक तरफ - जो कभी बदलने वाली नहीं. जैसे उनके लिए नहीं बदल पायी. जैसे हम सब के लिए नहीं बदल पाती.”
― Ek Anuja
― Ek Anuja
“बड़े डरों में से एक यह सब से बड़ा डर, अनु दा. अपने प्रियजनों को कभी खो देने का. उनके चले जाने से आने वाले खालीपन के कभी नहीं भर पाने का. खुद में भीतर कुछ, फिर हमेशा के लिए बदल जाने का. किसी एक के जाने के बाद बाकियों के भी कभी चले जाने का !”
― Ek Anuja
― Ek Anuja
