जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियां Quotes

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जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियां जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियां by Jaishankar Prasad
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जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियां Quotes Showing 1-30 of 52
“निद्रा भी कैसी प्यारी वस्तु है। घोर दु:ख के समय भी मनुष्य को यही सुख देती है।”
जयशंकर प्रसाद [Jaishankar Prasad], जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियां
“वर्षा की रात में झिल्लियों का स्वर उस झुरमुट में गूँज रहा”
जयशंकर प्रसाद [Jaishankar Prasad], जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियां
“हाथ में हरौती की पतली-सी छड़ी, आँखों में सुरमा, मुँह में पान, मेंहदी लगी हुई लाल दाढ़ी, जिसकी सफेद जड़ दिखलाई पड़ रही थी, कुव्वेदार टोपी, छकलिया अँगरखा और साथ में लैसदार परतवाले दो सिपाही! कोई मौलवी साहब हैं।”
जयशंकर प्रसाद [Jaishankar Prasad], जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियां
“बलिष्ठ और दृढ़ था। चमड़े पर झुर्रियाँ नहीं पड़ी थीं। वर्षा की झड़ी में, पूस की रातों की छाया में, कड़कती हुई जेठ की धूप में, नंगे शरीर घूमने में वह सुख मानता था। उसकी चढ़ी मूँछें बिच्छू के डंक की तरह, देखनेवालों की आँखों में चुभती थीं। उसका साँवला रंग, साँप की तरह चिकना और चमकीला था। उसकी नागपुरी धोती का लाल रेशमी किनारा दूर से ही ध्यान आकर्षित करता। कमर में बनारसी सेल्हे का फेंटा, जिसमें सीप की मूठ का बिछुआ खुँसा रहता था। उसके घुँघराले बालों पर सुनहले पल्ले के साफे का छोर उसकी चौड़ी पीठ पर फैला रहता। ऊँचे कन्धे पर टिका हुआ चौड़ी धार का गँडासा, यह थी उसकी धज! पंजों के बल जब वह चलता, तो नसें चटाचट बोलती थीं। वह गुण्डा था।”
जयशंकर प्रसाद [Jaishankar Prasad], जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियां
“उस दीन भिखारी की तरह, जो एक मुट्‌ठी भीख के बदले अपना समस्त संचित आशीर्वाद दे देना चाहता है,”
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“पिंजड़े की वन-विहंगनी को वसन्त की फूली हुई डाली का स्मरण हो आया था।”
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“बेला में यह उच्छृंखल भावना विकट ताण्डव करने लगी। उसके हृदय में वसन्त का विकास था। उमंग में मलयानिल की गति थी। कण्ठ में वनस्थली की काकली थी। आँखों में कुसुमोत्सव था और प्रत्येक आन्दोलन में परिमल का उद्‌गार था। उसकी मादकता बरसाती नदी की तरह वेगवती थी।”
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“रहस्य मानव-हृदय का है, मेरा नहीं। राजकुमार, नियमों से यदि मानव-हृदय बाध्य होता, तो आज मगध के राजकुमार का हृदय किसी राजकुमारी की ओर न खिंचकर एक कृषक-बालिका का अपमान करने न आता।”
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“सम्मान और लज्जा उसके अधरों पर मन्द मुस्कराहट के साथ सिहर उठते;”
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“यन्त्र से बनी हुई रत्न-जटित नर्तकी नाच उठी। उसके नूपुर की झंकार उस दरिद्र भवन में गूँजने लगी।”
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“ऐश्वर्य का यांत्रिक शासन जीवन को नीरस बनाने लगा। उसके मन की अतृप्ति, विद्रोह करने के लिए”
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“धनकुबेर की क्रीत दासी नहीं हूँ। मेरे गृहिणीत्व का अधिकार केवल मेरा पदस्खलन ही छीन सकता है।”
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“मूर्खता सरलता का सत्यरूप है। मुझे वह अरुचिकर नहीं। मैं उस निर्मल-हृदय की देख-रेख कर सकूं, तो यह मेरे मनोरंजन का ही विषय होगा।”
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“मूर्खता सरलता का सत्यरूप है।”
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“ऐश्वर्य का मदिरा-विलास किसे स्थिर रहने देता है!”
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“नींबू के फूल और आमों की मंजरियों की सुगन्ध”
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“मदिरा-मन्दिर के द्वार-सी खुली हुई आँखों में गुलाब की गरद उड़ रही थी। पलकों के छज्जे और बरौनियों की चिकों पर भी गुलाल की बहार थी। सरके हुए घूँघट से जितनी अलकें दिखलाई पड़तीं, वे सब रँगी थीं। भीतर से भी उस सरला को कोई रंगीन बनाने लगा था। न जाने क्यों, क्या इस छोटी अवस्था में ही वह चेतना से ओत-प्रोत थी। ऐसा मालूम होता था कि स्पर्श का मनोविकारमय अनुभव उसे सचेष्ट बनाए रहता, तब भी उसकी आँखें धोखा खाने ही पर ऊपर उठतीं। पुरवा रखने ही भर में उसने अपने कपड़ों को दो-तीन बार ठीक किया, फिर पूछा—और कुछ चाहिए?”
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“मनुष्य के सुख-दुःख का माप अपना ही साधन तो है। उसी के अनुपात से वह तुलना करता है।”
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“मेघ घिरे थे, फूही पड़ रही थी।”
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“कल्पना के सुख से सुखी होकर सो रहता।”
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“मैं उपहार देता हूँ, बेचता नहीं। ये विलायती और कश्मीरी सामान मैंने चुनकर लिए हैं। इसमें मूल्य ही नहीं, हृदय भी लगा है। ये दाम पर नहीं बिकते।”
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“उसमें विलास का अनन्त यौवन है, क्योंकि केवल स्त्री-पुरुष के शारीरिक बन्धन में वह पर्यवसित नहीं है, बाह्य साधनों के विकृत हो जाने तक ही, उसकी सीमा नहीं, गार्हस्थ्य जीवन उसके लिए प्रचुर उपकरण प्रस्तुत करता है, इसलिए वह प्रेय भी है और श्रेय भी है।”
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“कुलवधू होने में जो महत्त्व है, वह सेवा का है, न कि विलास का।”
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“तुम्हारा व्यवसाय कितने ही सुखी घरों को उजाड़कर श्मशान बना देता है।” “महाराज, हम लोग तो कला के व्यवसायी हैं। यह अपराध कला का मूल्य लगाने वालों की कुरुचि और कुत्सित इच्छा का है।”
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“कंगाल मनुष्य स्नेह के लिए क्यों भीख माँगता है? वह स्वयं नहीं करता, नहीं तो तृण-वीरुध तथा पशु-पक्षी भी तो स्नेह करने के लिए प्रस्तुत हैं।”
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“संगीत-ध्वनि पवन के हिंडोले पर झूल रही”
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“संगीत की ध्वनि समीप आ रही थी। वज्रनिघोष को भेदकर कोई कलेजे से गा रहा था। अँधकार में, साम्राज्य में तृण, लता, वृक्ष सचराचर कम्पित हो रहे थे।”
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“दूर से एक संगीत की—नन्हीं-नन्हीं करुण वेदना की तान सुनाई पड़ रही थी। उस भाषा को मैं नहीं समझता था। मैंने समझा, यह भी कोई छलना होगी। फिर सहसा मैं विचारने लगा कि नियति भयानक वेग से चल रही है। आँधी की तरह उसमें असंख्य प्राणी”
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“वसन्त के आगमन से प्रकृति सिहर उठी। वनस्पतियों की रोमावली पुलकित थी। मैं पीपल के नीचे उदास बैठा हुआ ईषत् शीतल पवन से अपने शरीर में फुरहरी का अनुभव कर रहा था। आकाश की आलोक-माला चंदा की वीथियों में डुबकियाँ लगा रही थी। निस्तब्ध रात्रि का आगमन बड़ा गम्भीर था।”
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“वह मेरी ही गहराई थी, जिसकी मुझे थाह न लगी।”
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