Mansarovar - Vol. 2; Short Stories by Premchand Quotes

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Mansarovar - Vol. 2; Short Stories by Premchand Mansarovar - Vol. 2; Short Stories by Premchand by Munshi Premchand
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Mansarovar - Vol. 2; Short Stories by Premchand Quotes Showing 1-30 of 80
“धर्म और अधर्म, सेवा और परमार्थ के झमेलों में पड़कर मैंने बहुत ठोकरें खायीं। मैंने देख लिया कि दुनिया दुनियादारों के लिए है, जो अवसर और काल देखकर काम करते हैं। सिद्धान्तवादियों के लिए यह अनुकूल स्थान नहीं है।”
Munshi Premchand, Mansarovar - Vol. 2; Short Stories by Premchand
“स्त्री गालियाँ सह लेती है, मार भी सह लेती है, पर मैके की निंदा उससे नहीं सही जाती। आनन्दी”
Munshi Premchand, Mansarovar 2 (मानसरोवर 2, Hindi): प्रेमचंद की मशहूर कहानियाँ
“मैं अपनी स्वाधीनता न खोना चाहूँगा, तुम अपनी स्वतन्त्रता न खोना चाहोगी। तुम्हारे पास तुम्हारे आशिक आयेंगे, मुझे जलन होगी। मेरे पास मेरी प्रेमिकाएँ आयेंगी, तुम्हें जलन होगी। मनमुटाव होगा, फिर वैमनस्य होगा और तुम मुझे घर से निकाल दोगी। घर तुम्हारा है ही! मुझे बुरा लगेगा ही, फिर यह मैत्री कैसे निभेगी?”
Munshi Premchand, Mansarovar - Part 2
“बुरे विचार भी ईश्वर की प्ररेणा ही से आते होंगे? प्रमीला तत्परता के साथ बोली- ईश्वर आनन्द-स्वरूप हैं। दीपक से कभी अन्धकार नहीं निकल सकता।”
Munshi Premchand, Mansarovar - Part 2
“यह पाषाणहृदय लम्पट, विवेक शून्य जमादार इस समय एक अपरिचित स्त्री के सतीत्व की रक्षा करने के लिए अपने प्राण तक देने को तैयार था, केवल इस नाते कि यह उसकी पत्नी की संगिनी थी। वह समस्त संसार की नजरों में गिरना गंवारा कर सकता था, पर अपनी पत्नी की भक्ति पर अखंड राज्य करना चाहता था। इसमें अणुमात्र की कमी भी उसके लिए असहय थी। उस अलौकिक भक्ति के सामने उसके जीवन का क्या मूल्य था? ब्राम्हणी तो जमीन पर ही सो गयी थी, पर गौरा बैठी पति की बाट जोह रही थी।”
Munshi Premchand, Mansarovar - Part 2
“मंगरु अपनी दांव रोते क्यों हो? तुम हमारे घर नहीं घुसते थे! अब भी जब घात पाते हो, जा पहुंचते हो। अब क्यों रोते हो?”
Munshi Premchand, Mansarovar - Part 2
“भगवान! अगर मुझे यही यातना देनी थी तो तुमने जन्म ही क्यों दिया था? तुम्हें दुखिया पर दया नहीं आती? जो पिसे हुए हैं उन्हीं को पीसते हो! करुण स्वर से बोली”
Munshi Premchand, Mansarovar - Part 2
“ऐसा भाग्य जाय भाड़ में।’ ‘तुम्हारा ब्याह किसी बुढ़िया से ही करूँगी, देख लेना।’ ‘तो मै भी जहर खा लूँगा। देख लीजिएगा।’ ‘क्यों बुढ़िया तुम्हे जवान स्त्री से ज्यादा प्यार करेगी, ज्यादा सेवा करेगी। तुम्हें सीधे रास्ते पर रखेगी।’ ‘यह सब माँ का काम हैं। बीवी जिस काम के लिए हैं, उसी काम के लिए हैं।’ ‘आखिर बीवी किस काम के लिए हैं?’ मोटर की आवाज आयी। न-जाने कैसे आशा के सिर का अंचल खिसककर कंधे पर आ गया। उसने जल्दी से अंचल खींच कर सिर पर कर लिया और यह कहती हुई अपने कमरे की ओर लपकी कि लाला भोजन करके चले जायँ, तब आना।”
Munshi Premchand, Mansarovar - Part 2
“अप्रसन्नता का यह झीना आवरण उनके मनोरहस्य को न छिपा सका। वह प्रकाश की भाँति उसके अन्दर से निकला पड़ता था।”
Munshi Premchand, Mansarovar - Part 2
“जुगल ने उसकी हृदयवीणा के तारों पर मिजराब की ऐसी चोट मारी थी कि उसके बहुत जब्त करने पर भी मन की व्यथा बाहर निकल आयी। उसने कहा- भाग्य भी तो कोई वस्तु हैं।”
Munshi Premchand, Mansarovar - Part 2
“वर्षा के दिन थे, दरिया चढ़ा हुआ था, मेघ-मालाएँ अन्तर्राष्ट्रीय सेनाओं की भाँति रंग-विरंगी वर्दियाँ पहने आकाश में कवायद कर रही थीं। सड़क पर लोग मलार और बारहमासा गाते चलते थे। बागों में झूले पड़ गये थे।”
Munshi Premchand, Mansarovar - Part 2
“एक विशेष अवस्था के बाद पुरुष के जीवन का सबसे बड़ा सुख रसना का स्वाद ही रह जाता हैं।”
Munshi Premchand, Mansarovar - Part 2
“बड़े ठाकुर जो कह दे, वह छोटे ठाकुर के लिए कानून था और छोटे ठाकुर की इच्छा देखकर ही बड़े ठाकुर कोई बात कहते थे।”
Munshi Premchand, Mansarovar - Part 2
“तृष्णा किसी वन्य जन्तु की भांति अपने संस्कारे से आखेटप्रिय है लेकिन जंजीरो से बधे–बधे उसके नख गिर गये है और दातं कमजोर हो गये हैं।”
Munshi Premchand, Mansarovar - Part 2
“वह छाया उनकी आँखों में बसी हुई थी। आज उन्हें उस छाया और इस सत्य में कितना अन्तर दिखायी दिया। छाया पर समय का क्या असर हो सकता हैं। उस पर सुख-दुःख का बस नहीं चलता। सत्य तो इतना अभेद्य नहीं। उस छाया में वह सदैव प्रमोद का रूप देखा करते थे- आभूषण, मुसकान और लज्जा से रंजित। इस सत्य में उन्होंने साधक का तेजस्वी रूप देखा और अनुराग में डूबे हुए स्वर की भाँति उनका हृदय थरथरा उठा।”
Munshi Premchand, Mansarovar - Part 2
“जब उनके पास सम्पति थी, विलास के साधन थे, यौवन था, स्वास्थ्य था, अधिकार था, उन्हें आत्म-चिन्तन का अवकाश न मिलता था। मन प्रवृत्ति ही की ओर दौड़ता था, अब इन तियों को खोकर दीनावस्था में उनका मन ईश्वर की ओर झुका। पानी पर जब तक कोई आवरण हैं, उसमें सूर्य का प्रकाश कहाँ?”
Munshi Premchand, Mansarovar - Part 2
“प्रभुता असहिष्णु होती हैं।”
Munshi Premchand, Mansarovar - Part 2
“यहीं तो जीवन का शाप हैं। हम उसी चीज पर लपकते हैं, जिसमें हमारा अमंगल हैं, सत्यानाश हैं।”
Munshi Premchand, Mansarovar - Part 2
“एक जमाने में फ्रांस में धनवान् विलासिनी महिलाओं का समाज पर आधिपत्य था। उनके पति सब कुछ देखते थे औऱ मुँह खोने का साहस न करते थे। और क्या खोलते ? वे खुद इसी धुन में मस्त थे। यह धन का प्रसाद हैं।”
Munshi Premchand, Mansarovar - Part 2
“अगर धन सारी दुनिया का विलास न मोल लेना चाहे तो वह धन ही कैसा?”
Munshi Premchand, Mansarovar - Part 2
“सरकार से लड़कर भी तुम सरकार की अमलदारी में रहते हो कि नहीं? मैं भी तुमसे लडूँगी; मगर तुम्हारे साथ रहूँगी।”
Munshi Premchand, Mansarovar - Part 2
“सुख कभी सम्पूर्ण नहीं मिलता। विधि इतना घोर पक्षपात नहीं कर सकता। गुलाब में काँटे होते ही हैं। अगर सुख भोगना हो तो उसे उसके दोषों के साथ भोगना पड़ेगा। अभी विज्ञान ने कोई उपाय नहीं निकाला कि हम सुख के काँटो को अलग कर सके!”
Munshi Premchand, Mansarovar - Part 2
“अपने टिप्पणियों में वह कितनी शिष्टता का व्यवहार करते हैं। कलम जरा भी गर्म पड़ जाय, तो गर्दन नापी जाय। गुलशन पर वह क्यों बिगड़ जाते हैं? इसीलिए कि वह उसके अधीन है और उन्हें रूठ जाने के सिवा कोई दंड नहीं दे सकती। कितनी नीच कायरता हैं कि हम सबलों के सामने दुम हिलाये और जो हमारे लिए अपने जीवन का बलिदान कर रही हैं, उसे काटने दौड़े।”
Munshi Premchand, Mansarovar - Part 2
“सूखी घास सामने देखकर तो ऋषि-मुनि भी जामें से बाहर हो जायेंगे। शीरीं उनसे प्रेम करती हैं; लेकिन प्रेम के त्याग की भी तो सीमा हैं। दो-चार दिन भावुकता के उन्माद में यह सब्र कर ले; लेकिन भावुकता कोई टिकाऊँ चीज तो नहीं हैं। वास्तविकता के आघातों के सामने यह भाव भावुकता कै दिन टिकेगी”
Munshi Premchand, Mansarovar - Part 2
“तो गुलशन ही उपर्युक्त हैं। कुढ़ती हैं. कठोर बाते कहती हैं, रोती हैं, लेकिन वक़्त से भोजन तो देती हैं। फटे हुए कपड़ों को रफू तो कर देती हैं, कोई मेहमान आ जाता हैं, तो कितने प्रसन्न- मुख से उसका आदर-सत्कार करती हैं, मानो उसके मन में आनन्द-ही-आनन्द हैं। कोई छोटी-सी चीज भी दे दी, तो कितना फूल उठती हैं। थोड़ी-सी तारीफ करके चाहे उससे गुलामी करवा लो। अब उन्हें जरा-जरा बात पर झुँझला पड़ना, उसकी सीधी सी बातों का टेढ़ा जवाब देना, विकल करने लगा।”
Munshi Premchand, Mansarovar - Part 2
“कावसजी ने शीरीबानू की उत्कंठापूर्ण मुद्रा देखी, जो बहुमूल्य रेशमी साड़ी की आब से और भी दमक उठी थी, और उनका हृदय अंदर से बैठता हुआ जान पड़ा। उस छात्र की-सी दशा हुई, जो आज अन्तिम परीक्षा पास कर चुका हो औऱ जीवन का प्रश्न उसके सामने अपने भयंकर रूप में खड़ा हो । काश! वह कुछ दिन और परीक्षाओं की भूल-भुलैया में जीवन के स्वप्नों का आनन्द ले सकता! उस स्वप्न के सामने यह सत्य कितना डरावना था। अभी तक कावसजी ने मधुमक्खी का शहद ही चखा था। इस समय वह उनके मुख पर मँडरा रही थी और वह डर रहे थे कि डंक न मारे।”
Munshi Premchand, Mansarovar - Part 2
“उन्हें अब तक जीवन का जो अनुभव हुआ था, वह यह था कि स्त्री अन्तःकरण से विलासिनी होती हैं। उस पर लाख प्राण वारो, उनके लिए मर ही क्यों न मिटो, लेकिन व्यर्थ । वह केवल खरहरा नहीं चाहती, उससे कहीं ज्यादा दाना और घास चाहती हैं। लेकिन एक यह देवी हैं, जो विलास की चीजों को तुच्छ समझती हैं और केवल मीठे स्नेह और सहवास से ही प्रसन्न रहना चाहती हैं। उनके मन में गुदगुदी सी उठी।”
Munshi Premchand, Mansarovar - Part 2
“आज तुम्हें कहीं से दो-चार लाख रुपये मिल जायँ, तो तुम यों न रहोगे और तुम्हारे ये भाव बदल जायँगे। यही धन का सबसे बड़ा अभिशाप हैं। ऊपरी सुख-शांति के नीचे कितनी आग हैं, यह तो उसी वक़्त खुलता हैं, तब ज्वालामुखी फट पड़ता हैं। वह समझते हैं, धन से घर भर कर उन्होंने मेरे लिए वह सब कुछ कर दिया जो उनका कर्त्तव्य था और अब मुझे असन्तुष्ट होने का कोई कारण नहीं। यह नही जानते कि ऐश के ये सामान उस मिश्री-तहखानों में गड़े हुए पदार्थों की तरह हैं, जो मृतात्मा के भोग के लिए रखे जाते थे।”
Munshi Premchand, Mansarovar - Part 2
“मैने तुमसे इसलिए विवाह नहीं किया कि तुम देवी हो; बल्कि इसलिए कि मैं तुम्हें चाहता था औऱ सोचता था कि तुम भी मुझे चाहती हो। यह बच्चा मेरा बच्चा हैं, मेरा अपना बच्चा हैं। मैने एक बोया हुआ खेत लिया, तो क्या फसल को इसलिए छोड़ दूँगा, कि उसे दूसरे ने बोया था? यह कहकर उसने जोर से ठट्ठा मारा।”
Munshi Premchand, Mansarovar - Part 2
“ऐसा न कहिए, उसने धेले की भी चीज नहीं छूई । अपना जो कुछ था, वह भी छोड़ गयी। न-जाने मुझमें क्या बुराई देखी। मैं उसके योग्य न था और क्या कहूँ । वह पढ़ी-लिखी थी, मैं करिया अक्षर भैंस बराबर। मेरे साथ इतने दिन रही, यहीं बहुत हैं। कुछ दिन औऱ उसके साथ रह जाता, तो आदमी बन जाता। उसका आपसे कहाँ तक बखान करूँ हजूर। औरों के लिए चाहे जो कुछ रही हो, मेरे लिए तो किसी देवता का आशीर्वाद थी। न-जाने मुझेस क्या खता हो गयी। मगर कसम ले लीजिए, जो उसके मुख पर मैल तक आया हो। मेरी औकात ही क्या हैं बाबूजी ! दस-बराबर आने का मजूर हूँ ; पर इसी में उसके हाथो इतनी बरक्कत थी कि कभी कमी नहीं पड़ी।”
Munshi Premchand, Mansarovar - Part 2

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