चन्द्रगुप्त Quotes

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चन्द्रगुप्त चन्द्रगुप्त by जयशंकर प्रसाद
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चन्द्रगुप्त Quotes Showing 1-30 of 65
“मनुष्य, दूसरों को अपने मार्ग पर चलाने के लिए रुक जाता है, और अपना चलना बन्द कर देता है।”
Jaishankar Prasad, चन्द्रगुप्त
“चाणक्य : मौर्य! तुम्हारा पुत्र आज आर्यावर्त्त का सम्राट है—अब और कौन-सा सुख तुम देखना चाहते हो? काषाय ग्रहण कर लो, इसमें अपने अभिमान को मारने का तुम्हें अवसर मिलेगा।”
जयशंकर प्रसाद, चन्द्रगुप्त
“सरला संध्या, पक्षियों के नाद से शान्ति को बुलाने लगी है। देखते-देखते, एक-एक करके दो-चार नक्षत्र उदय होने लगे। जैसे प्रकृति अपनी सृष्टि की रक्षा, हीरों की कील से जड़ी हुई काली ढाल लेकर कर रही है और पवन किसी मधुर कथा का भार लेकर मचलता हुआ जा रहा है। यह कहाँ जाएगा एलिस!”
जयशंकर प्रसाद, चन्द्रगुप्त
“मेघ के समान मुक्त वर्षा-सा जीवन-दान, सूर्य के समान अबाध आलोक विकीर्ण करना, सागर के समान कामना-नदियों को पचाते हुए सीमा के बाहर न जाना, यही तो ब्राह्मण का आदर्श है।”
जयशंकर प्रसाद, चन्द्रगुप्त
“मैं क्रूर हूँ केवल वर्तमान के लिए, भविष्य के सुख और शान्ति के लिए, परिणाम के लिए नहीं। श्रेय के लिए, मनुष्य को सब त्याग करना चाहिए,”
जयशंकर प्रसाद, चन्द्रगुप्त
“स्वतन्त्रता के युद्ध में सैनिक और सेनापति का भेद नहीं।”
जयशंकर प्रसाद, चन्द्रगुप्त
“राज्य किसी का नहीं है; सुशासन का है!”
जयशंकर प्रसाद, चन्द्रगुप्त
“चाणक्य : चन्द्रगुप्त! मैं ब्राह्मण हूँ। मेरा साम्राज्य करुणा का था, मेरा धर्म प्रेम का था। आनन्द-समुद्र में शान्ति-द्वीप का आदिवासी ब्राह्मण मैं, चन्द्र-सूर्य-नक्षत्र मेरे दीप थे, अनन्त आकाश वितान था, शस्यश्यामला कोमला विश्वम्भरा मेरी शय्या थी। बौद्धिक विनोद कर्म था, सन्तोष धन था।”
जयशंकर प्रसाद, चन्द्रगुप्त
“निरीह कुसूमों पर दोषारोपण क्यों? उनका काम है सौरभ बिखेरना, यह उनका मुक्त दान। उसे चाहे भ्रमर ले या पवन।”
जयशंकर प्रसाद, चन्द्रगुप्त
“विजयों की सीमा है, परन्तु अभिलाषाओं की नहीं।”
जयशंकर प्रसाद, चन्द्रगुप्त
“भला लगने के लिए मैं कोई काम नहीं करता कात्यायन! परिणाम में भलाई ही मेरे कामों की कसौटी है।”
जयशंकर प्रसाद, चन्द्रगुप्त
“क्या तुम नहीं जानती कि मेरे भीतर एक दुष्ट प्रतिभा सदैव सचेष्ट रहती है? अवसर न दो उसे न जगाओ! मुझे पाप से बचाओ!”
जयशंकर प्रसाद, चन्द्रगुप्त
“महत्वाकांक्षा का मोती निष्ठुरता की सीपी में रहता है!”
जयशंकर प्रसाद, चन्द्रगुप्त
“नियति सम्राटों से भी प्रबल है।”
जयशंकर प्रसाद, चन्द्रगुप्त
“मैं अविश्वास, कूट-चक्र और छलनाओं का कंकाल; कठोरता का केन्द्र! ओह! तो इस विश्व में मेरा कोई सुहृद नहीं है? मेरा संकल्प; अब मेरा आत्माभिमान ही मेरा मित्र है।”
जयशंकर प्रसाद, चन्द्रगुप्त
“समझदारी आने पर यौवन चला जाता है—जब तक माला गूँथी जाती है, तब तक फूल कुम्हला जाते हैं। जिससे मिलने के सम्भार की इतनी धूम-धाम सजावट, बनावट होती है, उसके आने तक मनुष्य-हृदय को सुन्दर और उपयुक्त नहीं बनाये रह सकता। मनुष्य की चञ्चल स्थिति कब तक उस श्यामल कोमल हृदय को मरुभूमि बना देती”
जयशंकर प्रसाद, चन्द्रगुप्त
“हम लोग युद्ध करना जानते हैं, द्वेष नहीं।”
जयशंकर प्रसाद, चन्द्रगुप्त
“सिकन्दर : धन्य हैं आप मैं तलवार खींचे हुए भारत में आया, हृदय देकर जाता हूँ। विस्मय-विमुग्ध हूँ। जिनसे खड़ग-परीक्षा हुई थी, युद्ध में जिनसे तलवार मिली थीं, उनसे हाथ मिलाकर-मैत्री के हाथ मिलाकर जाना चाहता हूँ!”
जयशंकर प्रसाद, चन्द्रगुप्त
“सिकन्दर : आर्य वीर! मैंने भारत में हरक्यूलिस, एचिलिस की आत्माओं को भी देखा और देखा डिमास्थनीज को। सम्भवत: प्लेटो और अरस्त भी होंगे। मैं भारत का अभिनन्दन करता हूँ।”
जयशंकर प्रसाद, चन्द्रगुप्त
“कार्नेलिया : सिकन्दर ने भारत से युद्ध किया है और मैंने भारत का अध्ययन किया है। मैं देखती हूँ कि यह युद्ध ग्रीक और भारतीयों के अस्त्र का ही नहीं, इसमें दो बुद्धियाँ भी लड़ रही हैं। यह अरस्तू और चाणक्य चोट है, सिकन्दर और चन्द्रगुप्त उनके अस्त्र हैं।”
जयशंकर प्रसाद, चन्द्रगुप्त
“कार्नेलियया : नहीं चन्द्रगुप्त मुझे इस देश में जन्मभूमि के समान स्नेह होता जा रहा है। यहाँ के श्यामल-कुंज, घने जंगल सरिताओं की माला पहने हुए शैल-श्रेणी, हरी-भरी वर्षा, गर्मी की चाँदनी, शीत-काल की धूप, और भोले कृषक तथा सरला कृषक-बालिकाएँ, बाल्यकाल की सुनी हुई कहानियों की जीवित प्रतिमाएँ है। यह स्वप्नो का देश, यह त्याग और ज्ञान का पालना, यह प्रेमकी रंगभूमि—भारतभूमि क्या भुलायी जा सकती है? कदापि नहीं। अन्य देश मनुष्यों की जन्म-भूमि है; यह भारत मानवता की जन्मभूमि है।”
जयशंकर प्रसाद, चन्द्रगुप्त
“पर्वतेश्वर : मैं तुमसे प्रतिश्रुत हो चुका हूँ कि मालव-युद्ध में मैं भाग न लूँगा, परन्तु सिकन्दर का दूत आया है कि आठ सहस्र अश्वारोही लेकर रावी तट पर मिलो।”
जयशंकर प्रसाद, चन्द्रगुप्त
“कोमल शय्या पर लेटे रहने की प्रत्याशा में स्वतन्त्रता का भी विसर्जन करना पड़ता है, यही उन विलासपूर्ण राजभवनों का प्रलोभन है।”
जयशंकर प्रसाद, चन्द्रगुप्त
“अलका : नहीं पौरव, मैं राजभवनों से डरती हूँ, क्योंकि उनके लोभ से मनुष्य आजीवन मानसिक कारावास भोगता है।”
जयशंकर प्रसाद, चन्द्रगुप्त
“स्नेह से हृदय चिकना हो जाता है। परन्तु बिछलने का भय भी होता है।—अद्भुत युवक है।”
जयशंकर प्रसाद, चन्द्रगुप्त
“जाओ, उन भगोड़ों से एक बार जननी के स्तन्य की लज्जा के नाम पर रुकने के लिए कहो! कहो कि मरने का क्षण एक ही है।”
जयशंकर प्रसाद, चन्द्रगुप्त
“आश्चर्य है, मनुष्य ऐसे कुटिल विषधरों को भी वश कर सकता है परन्तु मनुष्य को नहीं!”
जयशंकर प्रसाद, चन्द्रगुप्त
“चाणक्य : तो युद्ध नहीं करना होगा। चन्द्रगुप्त : फिर क्या? चाणक्य : सिंहरण और अलका को नट और नटी बनना होगा, चन्द्रगुप्त बनेगा सँपेरा और मैं ब्रह्मचारी। देख रहे हो चन्द्रगुप्त, पर्वतेश्वरं की सेना में जो एक गुल्म अपनी छावनी अलग डाले हैं, वे सैनिक कहाँ के हैं?”
जयशंकर प्रसाद, चन्द्रगुप्त
“चाणक्य सिद्धि देखता है साधन चाहे कैसे ही हों।”
जयशंकर प्रसाद, चन्द्रगुप्त
“गान्धार-राज : विभव की छलनाओं से वंचित एक वृद्ध! जिसके पुत्र ने विश्वासघात किया हो और कन्या ने साथ छोड़ दिया हो”
जयशंकर प्रसाद, चन्द्रगुप्त

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