बंधन Quotes

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बंधन (महासमर #1) बंधन by नरेंद्र कोहली, Narendra Kohli
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“उसे नीति और न्याय का परामर्श दूँगा। न्याय, धर्म का दूसरा नाम है माता! वह न्याय की रक्षा करेगा, तो न्याय उसकी रक्षा कर लेगा।”
Narendra Kohli, बंधन : महासमर भाग - १
“जब दृष्टि में सिद्धान्त नहीं, व्यक्ति होता है, तो निर्णय न्याय के आधार पर नहीं, व्यक्ति की इच्छा के आधार पर होते हैं।”
Narendra Kohli, बंधन : महासमर भाग - १
“आवेश से बचो वत्स! हम विचार कर रहे हैं; और विचार के लिए आवेश हलाहल विष है।”
Narendra Kohli, बंधन : महासमर भाग - १
“शब्दों के अनुकरण में जैसे सत्यवती के पग उठे, किन्तु हृदय उमड़कर पीछे आया। वह लौटी। धृतराष्ट्र, गान्धारी और कुन्ती को प्यार किया। यथासम्भव सारे बच्चों को भी अपने साथ लिपटाया,”
Narendra Kohli, बंधन : महासमर भाग - १
“इस स्वार्थपूर्ण रजोगुणी वातावरण में वे प्रायः विक्षिप्त हो चुकी हैं। यदि और अधिक यहाँ रहीं, तो पूर्णतः उन्मत्त हो जायेंगी।” व्यास बोले, “उन्होंने सम्पत्ति और सत्ता के साथ अपने प्राणों का तादात्म्य कर लिया है। प्रत्येक सम्राट् की मृत्यु उनके मसतक पर आशंका रूपी शिला का आघात करती है। उन्हें लगता है कि अब सम्पत्ति और सत्ता उनसे छिन जायेगी...और उनके प्राण निकल जायेंगे। ऐसे व्यक्ति का सत्ता के केन्द्र के पास रहना न उसके अपने लिए अच्छा है, न शासन के लिए।” “वहाँ उन्हें शान्ति मिलेगी?” “प्रयत्न तो यही है!” “उनके लौटने की सम्भावना...?” “रोगी को रोग के कारणों की ओर नहीं लौटना चाहिए।”
Narendra Kohli, बंधन : महासमर भाग - १
“फिर भी मेरी कुछ इच्छाएँ पूरी हुईं, कुछ नहीं हुईं। मैं जानती हूँ कि तुम्हारे पिता ने तुम्हें उसी दिन उन प्रतिज्ञाओं से मुक्त कर दिया था, जिस दिन तुम हस्तिनापुर पहुँचे थे। फिर भी तुम उन प्रतिज्ञाओं से बँधे रहे...।” “हाँ माता! क्योंकि ये प्रतिज्ञाएँ मेरी थीं।”
Narendra Kohli, बंधन : महासमर भाग - १
“मैं काल नहीं हूँ। मैं तो काल-सत्य का शब्द हूँ। काल, सत्य का पर्याय है। शब्द भी वही है। इसलिए मैं सत्य के साथ-साथ शब्द का भी साधक हूँ।”
Narendra Kohli, बंधन : महासमर भाग - १
“प्रकृति चाहती है कि मनुष्य पहले अपने मन और शरीर का विकास करे, फिर जीवन के सुख-भोग की कामना करे, उसका अर्जन करे, उसका भोग करे...और इससे पूर्व कि प्रकृति उसे दी गई भोग की क्षमताएँ उससे छीनकर उसे अक्षम बना दे, व्यक्ति स्वयं ही भोग की कामना त्यागने लगे। ताकि संसार त्यागते हुए, सांसारिक सुखों में उसका मोह न रह जाये।”
Narendra Kohli, बंधन : महासमर भाग - १
“तुम अपनी पिछली कामनाओं से बँधी दुख पा रही हो; और आज एक और कामना कर रही हो। यह बद्धावस्था है,”
Narendra Kohli, बंधन : महासमर भाग - १
“सुख का अस्तित्व ही दुख से निरपेक्ष नहीं है। दुख नहीं चाहती हो, तो सुख भी मत चाहो।”
Narendra Kohli, बंधन : महासमर भाग - १
“आकांक्षा और शान्ति” दोनों की कामना एक साथ नहीं की जा सकती। प्रकृति के नियम इसकी अनुमति नहीं देते।” “तो क्या व्यक्ति आकांक्षा न करे?” “करे। किन्तु तब न सुख से डरे, न दुख से। शान्ति की कामना न करे। शान्ति न सुख में है, न दुख में। शान्ति तो इन दोनों से निरपेक्ष होने में है।” “मेरी”
Narendra Kohli, बंधन : महासमर भाग - १
“प्रकृति ने प्रत्येक व्यक्ति में संजीवनी की एक सुनिश्चित मात्रा भरी है। जीवन का अतिभोग पाप है, अतः असफल होता है। जीवन का अभोग भी पाप है, अतः विकार उत्पन्न करता है। संजीवनी का न अतिव्यय करो, न अल्प व्यय, न ही अपव्यय!”
Narendra Kohli, बंधन : महासमर भाग - १
“संसार का अर्जन, उपलब्धि, भोग और आकांक्षा का जीवन भी देखने दो। तब”
Narendra Kohli, बंधन : महासमर भाग - १
“आतप के स्पर्श से हिम-खण्ड विगलित होते जाते हैं...उसे लगा कि जैसे धरती के किसी खण्ड पर जब कोमल दूर्वा ने कामना भरी आँखों से आकाश की ओर ताका था, तो दैवात कहीं से एक बड़ी शिला आकर उस पर जम गयी थी। दूर्वा का अंग-भंग हुआ था।”
Narendra Kohli, बंधन : महासमर भाग - १
“सृष्टि कैसा पुष्प-संभार किये बैठी है, जैसे सृष्टि न हो, सम्पूर्ण निमंत्रण हो।”
Narendra Kohli, बंधन : महासमर भाग - १
“अन्न जब तक पक न जाये, उसे खाना वर्जित है, चाहे वह अन्न आपका अपना ही हो।”
Narendra Kohli, बंधन : महासमर भाग - १
“पुष्प भी कहीं अपना शृंगार करते हैं?”
Narendra Kohli, बंधन : महासमर भाग - १
“ऋषि बोले, “किन्तु मैं समझता हूँ कि यदि इन पाँच पुत्रों के पश्चात तुम्हें विधाता ने एक औरस पुत्र दे दिया, तो तुम अपने इन देव-प्रदत्त पुत्रों का न तो सम्मान कर पाओगे, न उनसे प्रेम कर पाओगे। कोई आश्चर्य की बात नहीं, यदि तुम उनकी उपेक्षा ही करने लग जाओ। इसलिए मेरा परामर्श है पुत्र! कि अब औरस पुत्र की कामना छोड़ो।”
Narendra Kohli, बंधन : महासमर भाग - १
“भीष्म ने इसके विपरीत कर्म किया। वानप्रस्थ के वय में उसने पिता को गृहस्थाश्रम में प्रवेश कराया–यह अनीति हुई! अनेक बार उदारता के आवरण में हम पाप करते हैं राजन्!”
Narendra Kohli, बंधन : महासमर भाग - १
“नीति तो अत्यन्त व्यापक और दूरगामी धारणा है राजन्! इसमें तो हम सारी सृष्टि के अनन्त काल तक को ध्यान रखते हैं; सारा जीव-जगत, वनस्पति जगत, नदियाँ, पर्वत, धरती–किसी की भी सर्वथा उपेक्षा, सृष्टि को सह्य नहीं है। अतः नीति कहती है कि उनसे लाभ उठाओ, उनसे होनेवाली हानि से स्वयं को बचाओ; किन्तु उनकी क्षति मत करो।...”
Narendra Kohli, बंधन : महासमर भाग - १
“चिन्तन न तो आत्मसीमित रखना चाहिए, न संकीर्ण। देश, काल, तथा समाज का एक व्यापक बिम्ब होना चाहिए, हमारे सामने। जब नीति कहती है कि ‘सत्य बोलो।’ तो इसलिए नहीं कि सत्य बोलने से आकाश से अमृत टपकने लगेगा। वह हम इसलिए कहते हैं कि यदि समाज में सत्य बोलेंगे तो उनका परस्पर विश्वास बना रहेगा, व्यवहार में सुविधा रहेगी, जीवन में संघर्ष सरलता से पार किये जा सकेंगे;”
Narendra Kohli, बंधन : महासमर भाग - १
“ऋषि कानीन पुत्र को धर्म-सम्मत मानते हैं, राजवंश नहीं मानते। क्षेत्रज पुत्र को आज का समाज धर्म-सम्मत और सामाजिक विधान के अनुरूप मानता है; कौन जाने भविष्य का समाज उस पर भी आपत्ति करे।” ऋषि ने अपनी कुटिया में प्रवेश किया, “यह तो सामाजिक व्यवस्था है राजन्! सामाजिक-व्यवहार की मर्यादा!”
Narendra Kohli, बंधन : महासमर भाग - १
“गंगा और शान्तनु का समाज भिन्न था। गंगा, उस समाज का अंग थी, जहाँ स्त्री शर्तों पर ही जीवन व्यतीत करती है; इसलिए उसका पति को त्याग देना, कुछ भी अनैतिक नहीं था। यह तो समाज-भेद के कारण मान्यताभेद है राजन्! उत्तर कुरु में आज भी स्त्री-पुरुष सम्बन्ध पूर्णतः स्वच्छन्द हैं। वहाँ पति-पत्नी सम्बन्धों की परिकल्पना ही नहीं है। इस शतशृंग के आस-पास बसनेवाले जन-सामान्य में बहुपतित्व की प्रथा है,”
Narendra Kohli, बंधन : महासमर भाग - १
“विधाता ने सृष्टि रची है, तो उसे कुछ नियमों के अधीन ही रचा है; और नियमों के अधीन ही उसका संचालन हो रहा है। वे नियम ही सत्य हैं”
Narendra Kohli, बंधन : महासमर भाग - १
“स्पष्ट कहने की अनुमति हो तो कहूँगी कि चाहिए तो मुझे रति-सुख भी; किन्तु व्यभिचार नहीं चाहती। अतः इन परिस्थितियों में केवल मातृत्व से ही सन्तोष कर लूँगी।...”
Narendra Kohli, बंधन : महासमर भाग - १
“पाण्डु ने अपने-आपको साधा, जैसे कोई दुःस्साहस का कार्य करने जा रहा हो, “तुम्हें रति-सुख चाहिए या मातृत्व सुख?”
Narendra Kohli, बंधन : महासमर भाग - १
“अपनी निजता की परिधि व्यापक करो राजन्! प्रत्येक असमर्थ की समर्थ होने में सहायता करो; और उसे समर्थ होते देख कर, प्रसन्नता पाओ। तुम देखोगे जीवन कितना आन्नददायक है।”
Narendra Kohli, बंधन : महासमर भाग - १
“मैं कोई अभिशप्त आत्मा हूँ–मुझे शापित करके भेजा है विधाता ने: मेरे सम्मुख छत्तीसों व्यंजनों से सजी थालियाँ रखी रहें; किन्तु मैं उनमें से एक कौर भी न खा सकूँ। तुम और कुन्ती जैसी सुन्दर पत्नियाँ हों और रति मेरे लिए वर्जित प्रदेश हो। मैं देखूँ, कामना करूँ...और अतृप्त रहूँ।”
Narendra Kohli, बंधन : महासमर भाग - १
“आश्रमवासियों ने शायद उसे भी एक प्रकार की मानसिक रोगिणी मान कर मुक्त छोड़ रखा था...उसे राज-मद का रोग था...”
Narendra Kohli, बंधन : महासमर भाग - १
“गान्धारी ‘द्वेष’ के रोग से ग्रस्त है। और यह रोग संक्रमणशील है। यह माता से पुत्र को मिलेगा। द्वेष, द्वेष को जन्म देगा और अन्ततः नाश होगा, महानाश!”
Narendra Kohli, बंधन : महासमर भाग - १

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