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Nabarun Bhattacharya

“बनर्जियों के गेट के बगल में एक खंभे की आड़ में छिपकर फुसफुसाते हुए हरबर्ट ने पूछा था - "यदि मैं चिट्ठी दूँ तो लोगी न?"
बुकी ने सिर हिलाकर कहा था - "हाँ!"
...
बुकी के चले जाने के बाद कई महीनों तक हरबर्ट छत पर नहीं गया था। बाद में जरूर गया। हरबर्ट देखता था, शाम होने पर जब छाया छाया-सा अँधेरा होने लगता, एक-एक कर बत्तियाँ जलने लगतीं, चूल्हों का धुआँ नदी की तरह बहने लगता, तब उसके थोड़ी देर बाद वह छत खाली नहीं लगती थी। शायद उस धुंधलके के बीच बुकी खड़ी है, हँस रही है, हाथ हिला रही है। आँखें मलकर देखने से ठीक ऐसा ही लगता है। उस समय आँखें भी तो थोड़ी धुँधली रहती हैं। बाद में वह छत भी छिन गई, जब हालदारों ने उस पर मकान बना लिया। छोटी छत की दीवार पर हरबर्ट ने ईंटें घिसकर 'ब' लिख छोड़ा था। बहुत गहरा था वह। लिखावट पर सीलन पड़कर काई जम जाने के बावजूद हरबर्ट समझ सकता था कि उसके नीचे वह अक्षर सिर हिला-हिलाकर उससे 'हाँ' कह रहा है।”

Nabarun Bhattacharya, Harbart
tags: herbert
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Harbart Harbart by Nabarun Bhattacharya
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