प्राचीन भारत का बौद्ध इतिहास (Pracheen Bharat ka Boddha Itihas) (Hindi Edition)
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इखाकु राजपरिवार की सभी स्त्रियाँ बौद्ध थीं, जिनके नाम के अंत में " सिरि ( श्री ) " मिलता है, जैसे अडविचाट सिरि, कोदबबलि सिरि, हम्म सिरि आदि।
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भारत का यह पहला राजवंश है, जिसके सिक्कों पर बुद्धिज्म के प्रतीक दो मछलियाँ हैं।   बुद्धिज्म के प्रतीक दो मछलियाँ हैं, इसकी पुष्टि दूसरे सिक्के पर अंकित सफेद शंख से होती है।( चित्र - 35 )
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आजादी के बाद उत्तर प्रदेश ने इसे राजकीय चिह्न बनाया।
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सुमेर का प्रसिद्ध नगर निप्पुर था। निप्पुर में पुर है। सुमेरी ऊर और पुर वहीं शब्द हैं, जो पूरे भारत के नगरों में व्याप्त हैं।
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सुमेर जिसे कीलाक्षर में शुमेर लिखा जाता था, स्वयं अजमेर, बाड़मेर, आमेर आदि की याद दिलाता है।
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सुमेरी लोग मूलतः कृषक और पशुपालक थे। गेहूँ और जौ की खेती करते थे। पशुपालक ऐसे कि उनकी भाषा में 200 शब्द सिर्फ भेड़ों से संबंधित हैं।
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सिंधु घाटी के लोग कृषि युग से आगे जा चुके थे।  सिंधु घाटी के नगर पक्की हुई ईंटों के थे और ईंट भी स्टैंडर्ड साइज की थीं।   सुमेरी सभ्यता की ईंटें कच्ची, पक्की - अधपकी, अनियमित साइज की हैं। सिंधु घाटी के लोग सुमेरी लोग से हर क्षेत्र में आगे थे।
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हड़प्पा लिपि में कोई 400 तो सुमेरी में 900 लिपि चिह्न थे। सुमेरी लिपि में अधिक चिह्नों का होना साबित करता है कि सुमेरी लिपि सिंधु घाटी से बैकवर्ड लिपि थी।   लिपिविज्ञान का सिद्धांत है कि ज्यों - ज्यों लिपि विकसित होती है, त्यों - त्यों लिपि चिह्नों की संख्या घटती जाती है।
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सही यह है कि सिंधु घाटी की सभ्यता को सुमेरी लोगों ने नहीं बल्कि सुमेरी लोगों की सभ्यता को सिंधु घाटी के लोगों ने प्रभावित किया है।
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और अब तो नए शोध बताते हैं कि सिंधु घाटी सभ्यता जब विकसित थी, तब सुमेरियन सभ्यता का जन्म भी नहीं हुआ था।
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सुन्न जितना नैचुरल है, फर्टाइल है ...शून्य उतना ही आर्टिफिशियल है...शून्य में कोई उपसर्ग- प्रत्यय जोड़ने से ही शब्द - निर्माण संभव है जैसे शून्यता, शून्यवाद, जनशून्य आदि।   सुन्न फर्टाइल है ...सुन्न की शाखाएँ-प्रशाखाएँ दूर - दूर तक फैली हैं ...शरीर सुन्न होता है ... आदमी सन्न रह जाता है ....जगह सुनसान होती है ...सन्नाटा छा जाता है ...सबमें सुन्न है ....शून्य कहीं नहीं।
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गौतम बुद्ध की वैज्ञानिक दिशा में सबसे बड़ी और मौलिक स्थापना कारण - कार्य सिद्धांत है। अर्थात कारण ही कार्य का जन्मदाता है। अकारण कुछ भी नहीं होता है और न हो सकता है।
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पूरे यूरोप में इसे सबसे पहली बार सोलहवीं सदी में फ्रांसीस बेकन ( 1561 - 1626 ) ने लिखा और समझाया कि जो व्यक्ति ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें सबसे पहले घटनाओं का अध्ययन कारण सहित करना चाहिए, तब सिद्धांत बनाकर उन्हें प्रयोगात्मक जाँच करनी चाहिए।
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जो बौद्ध ग्रंथ फाहियान को भारत में नहीं मिले, वो श्रीलंका में मिले।
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चीन का प्राचीन नाम चाहे जो भी रहा हो, ईसा से कोई दो सदी पूर्व इस देश का नाम चीन / चाइना प्रचलित हुआ, यह वही समय है, जब बुद्ध का झान ( ध्यान ) चीन पहुँचा, जिसे चीनी भाषा में चान / चिआन कहा जाता है।   बुद्ध का झान जब चीन पहुँचा, तब उसका नाम चीन / चाइना प्रचलित हुआ।
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बुद्ध के चान / चिआन से चीन / चाइना के नाम का जरूर कोई संबंध है। यदि नहीं है तो विचार कीजिए कि दक्षिण - पूर्व एशिया को हिंद- चीन और मध्य एशिया के बड़े भू - भाग को चीनी - तुर्किस्तान क्यों कहा जाता है, जबकि प्राचीन काल में ये सब इलाक़े बौद्ध धर्म से जुड़े थे।
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इसी प्रकार तिब्बत निवासी खुद अपने देश को बोद् के नाम से संबोधित करते हैं। यह बोद् क्या है? वहीं बुद्ध की ही एक उच्चारण - रीति है और जो भोट है, वह बोद् की तर्ज़ पर है तथा इसी भोट से भूटान बना है।
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सिंधु घाटी सभ्यता के नगरों में पक्की ईंटों से बने स्नानघर और शौचालय थे। शौचालय का निर्माण सिंधु घाटी सभ्यता की खास विशेषता है।
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ईसा पूर्व 1200 में मिश्र में शौचालय मिलते हैं। प्रथम शताब्दी में रोमन सभ्यता में शौचालय मिलते हैं। ग्रीक में भारत से जो ज्ञान पहुँचा, रोमन सभ्यता में शौचालय का इस्तेमाल संभवत उसकी परिणति है।
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वैशाली म्यूजियम में एक टाॅयलेट पैन रखा है। यह वैशाली के कोल्हुआ की खुदाई से मिला था।   टाॅयलेट पैन पहली - दूसरी सदी का है। कोई 18 - 19 सौ साल पुराना है। यह एक बौद्ध मठ से मिला है।
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टाॅयलेट पैन टेराकोटा का बना है। लट्रीन और यूरिन के लिए अलग-अलग छेद हैं।   अनुमानतः यह भिक्षुणियों की मोनेस्ट्री का टाॅयलेट पैन है।
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सिंधु घाटी सभ्यता की लिपि और धम्म लिपि के कम से कम 10 लेटर एक जैसे हैं। ( चित्र - 36 )
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इतना ही नहीं, सिंधु घाटी सभ्यता की लिपि और तमिल ब्राह्मी लिपि के कम से कम 5 लेटर एक जैसे हैं। ( चित्र- 37 )
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सिंधु काल के प्रीस्ट किंग की मूर्ति तथा मौर्य काल की यक्षिणी की मूर्ति की तुलना कीजिए।   दोनों मूर्तियों की नाक टूटी हुई है और दोनों का एक - एक हाथ टूटा हुआ है। यह आकस्मिक हो सकता है।   मगर दोनों मूर्तियों के सिर पर जो गोलाकार शिरोभूषण है, वह आकस्मिक नहीं है, वह एक खास किस्म की सभ्यता के संकेतक है और वह सभ्यता है - बौद्ध सभ्यता।
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अष्टकोणीय स्थापत्य बौद्धों की देन है। अष्टांगिक मार्ग के प्रतीक स्वरूप बनाए गए हैं। बाद में अन्य संस्कृतियों के लोगों ने इस अष्टकोणीय स्थापत्य को अपना लिए।
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सिंधु घाटी की सभ्यता ने 6 तिलियों वाला धम्म चक्र का इस्तेमाल लिपि में किया था।   गौतम बुद्ध ने 8 तिलियों वाला धम्म चक्र का इस्तेमाल शिक्षा में किया था।   सम्राट अशोक ने 24 और 32 तिलियों वाला धम्म चक्र का इस्तेमाल शासन में किया था।
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ऐसे ही धम्म चक्र का कदम सिंधु घाटी सभ्यता से मौर्य काल तक बढ़ते गया।
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बुद्ध के कई सदी बाद वनस्पतिविज्ञानियों ने पीपल का बटैनिकल नाम Ficus Religiosa रखा। यह नाम गौतम बुद्ध के कारण पड़ा।
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कहीं - कहीं एक बुद्ध विरोधी परंपरा बनाकर भी बौद्ध- स्थलों को तोड़ने- फोड़ने की कवायद हुई है।   एक उदाहरण प्रस्तुत है।
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बोज्जनकोंडा एक बौद्ध स्थल है। यह आंध्र प्रदेश के विशाखापत्तनम के संकरम ( संघाराम ) में स्थित है। मकर संक्रांति के अगले दिन यहाँ " कनुमा दिवस " मनाए जाने की परंपरा है।   कनुमा दिवस के मौके पर यहाँ सैकड़ों लोग जुटते हैं। बड़े उत्तेजित भाव से पत्थरों की बौछार करते हैं। बौद्ध स्थल के ही पत्थरों को उखाड़ कर बौद्ध स्थल पर ही फेंकते हैं।
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भारत में इतना आकर्षण था कि यहांँ अनेक विदेशी आए और गए। अनेक सोना तो अनेक चांँदी ले गए। ये तो चीनी बौद्ध यात्री थे, जिन्होंने सोना–चांँदी नहीं बल्कि पुस्तकें ले जाना पसंद किया।
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