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हमारे पास हर कहानी के दो वर्जन होते हैं। एक, दूसरे को सुनाने के लिए और दूसरा, अपने-आपको समझाने के लिए। जिस दिन हमारी कहानी के दोनों वर्जन एक हो जाते हैं उस दिन लेखक अपनी किताब के पहले पन्ने पर लिख देता है, “इस कहानी के सभी पात्र काल्पनिक हैं।
“लोग बनारस क्यों आते हैं?” “क्यों का पता नहीं लेकिन ये पता है कि कब आते हैं।” “कब आते हैं?” “जब आगे कोई रास्ता नहीं दिखता।”
बनारस में मोक्ष तो सबको मिलता है शायद मुझे कहानी मिल जाए। तुम बनारस क्यों आए हो?”
“बनारस चढ़ने में टाइम लगता है।” चित्रा ने कहा।
बनारस आते बहुत लोग हैं लेकिन पहुँच कम लोग पाते हैं।”
किसी को नहीं पता होता कि वो किताब क्यों लिखना चाहता है।”
हर अधूरी मुलाकात एक पूरी मुलाकात की उम्मीद लेकर आती है। हर पूरी मुलाकात अगली पूरी मुलाकात से पहले की अधूरी मुलाकात बनकर रह जाती है। एक अधूरी उम्मीद ही तो है जिसके सहारे हम बूढ़े होकर भी बूढ़े नहीं होते। किसी बूढ़े आशिक ने मरने से ठीक पहले कहा था कि एक छटाँक भर उम्मीद पर साली इतनी बड़ी दुनिया टिक सकती है तो मरने के बाद दूसरी दुनिया में उसकी उम्मीद बाँधकर तो मर ही सकता हूँ।
बनारस फील करने वाला सिटी है।”
चौथे दिन से लगने लगा कि सब कुछ रुका हुआ है यहाँ।
अगर तुमको अकेले में अपनी कहानी ढूँढ़ना हो तो तुम प्लीज…”
“अगर ऐसा लगेगा तो बोल दूँगी, डोंट वरी।
“आपके हाथ में ये जो मुराकामी की किताब है न, इसलिए।”
“तुम्हें भी ये जापानी लेखक पसंद है?”
मुझे यह चीज बहुत सही लगती है कि कुछ साल लगाकर आप कोई चीज बनाओ और एकाएक एक उसे
हमेशा के लिए छोड़ दो। वो भी किसी ऐसे रास्ते के लिए जिसकी मंजिल का कोई ठिकाना न हो।”
जितना हिस्सा गीला हो रहा था उतना हिस्सा नदी होता जा रहा था।
कोई साथ बैठा हो, चुपचाप हो और चुप्पी अखर न रही हो। ऐसी शामें कभी-कभार आती हैं। जब कोई जल्दबाजी न हो कि कुछ-न-कुछ बोलते रहना है। वर्ना तो अक्सर ही दिमाग पर प्रेशर होता है कि बातों को थमने न दें। वह बड़ी अच्छी बातें करता है या वह बड़ी अच्छी करती है के बजाय कभी कोई यह क्यों नहीं बोलता कि उसके साथ बैठकर चुप रहना अच्छा लगता है। किसी के साथ बैठकर चुप हो जाना और इस दुनिया को रत्ती भर भी बदलने की कोई भी कोशिश न करना ही तो प्यार है।
सुदीप वहाँ से चला गया। चित्रा ने उसको पलटकर नहीं देखा। सुदीप ने पलटकर चित्रा को देखा।
हम इतनी झूठी जिंदगी जी रहे हैं कि हम दूसरे को चुप करवाते हुए अपने-आपको भी चुप करवा रहे होते हैं। चुप कराने से जब सामने वाला चुप हो जाता है तो बेचैनी और बढ़ जाती है कि हम खुद कहाँ जाकर रोएँ और हमें चुप कौन कराएगा।
उसकी हँसी फैलकर सामने ठहरी हुई गंगा में शाम के साथ घुल गई।
इससे ज्यादा लंबी कहानी थोड़े होगी तुम्हारी
‘काफ्का ऑन द शोर’ खरीदी।
चित्रा का कोई भी ऐसा दोस्त नहीं था जिसके साथ उसके संबंध अच्छे रहे हों।
वह कभी-न-कभी किसी-न-किसी बात पर लड़ लेती थी।
थोड़ी मुँहफट थी तो यह बात सबको अच्छी नहीं लगती थी। चित्रा को सबकुछ चाहिए...
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“बस कुछ खाने का कर दो। दारू है मेरे पास।”
चित्रा ने बढ़कर उसको गले लगाने का सोचा लेकिन लगाया नहीं।
सुदीप ने तौलिये से अपना चेहरा ढक लिया। सुदीप ने अगर अपने चेहरे को ढका नहीं होता तो चित्रा कभी उसे गले लगाने की हिम्मत नहीं कर पाती। चित्रा ने सुदीप को गले लगा लिया। सुदीप और चित्रा एक-दूसरे को गले लगाए वैसे ही कुछ देर खड़े रहे।
कुछ काम क्यों नहीं करते और एकदम वही काम क्यों कर लेते हैं—इसकी कोई ठोस वजह कभी किसी को पता नहीं चलती। एकदम हमारे अंदर वह कौन है जो बोल देता है कि रुको मत आगे बढ़ो कुछ नहीं होगा।
इसलिए शायद कहा जाता है कि हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है। हम सब लोग पहले
से प्रोग्राम किए हुए विडियो गेम का हिस्सा हैं जो चाहे गेम जीते या हारे, एक दिन बोर होकर कोई हमारी पावर सप्लाई बंद कर देगा।
हमें सामने वाले का सब कुछ पता होता है बस आँसुओं का हिसाब-किताब कोई करता ही नहीं।
दुनिया आँसुओं का हिसाब-किताब कर लेती तो जीना थोड़ा आसान हो जाता।
चित्रा ने सुदीप को चुप करवाने की बिलकुल भी कोशिश नहीं की। चित्रा की आँखों में भी आँसू थे लेकिन व...
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“बस यार ऐसे ही। मेरी लाइफ में इतने बड़े टेंशन नहीं है तुम्हारे जैसे।”
“पति के लिए थोड़े कोई रोता है यार! अच्छा पति नहीं मिला तो छोड़ दो आगे बढ़ो उसमें क्या
“मुझे ऐसे ही रोना आ जाता है। बिना किसी वजह के।”
वही उम्र है जब माँ-बाप बूढ़े हो रहे होते हैं। सबको पता है कि माँ-बाप बूढ़े हो रहे हैं फिर भी आदमी उनको टाइम नहीं दे पाता। इन शॉर्ट, आदमी अपने पास्ट और फ्यूचर दोनों के बीच में पिस रहा होता है।”
“तुम्हें सुनकर अजीब लगेगा लेकिन मैं चाहता हूँ कि मैं मरूँ तो किसी को पता न चले। कोई शोर न मचे। कोई न रोए। सोशल मीडिया पर मेरी तारीफ में लंबे-लंबे पोस्ट न लिखे जाएँ। न ही कोई मेरी फोटो शेयर करके मेरे बारे में कोई कहानी सुनाए।”
मैं न कभी बूढ़ी होने वाली हूँ, न ही कभी मरने वाली हूँ।” चित्रा ने यह कहते हुए सुदीप के कंधे पर सर रख लिया और दोबारा बोली,
चित्रा को यह एहसास ही नहीं था कि सुदीप सो चुका है। उसने अपना मोबाइल खोला। अपनी और सुदीप की एक फोटो खींची।
फोटो को एक-दो बार देखा। फोटो डिलीट की और सोने की कोशिश करने लगी।
चित्रा अपनी जिंदगी में जितना सुलझी हुई थी, उस हिसाब से तो उसे फोटो ही नहीं खींचनी चाहिए थी।
किसी पल को फ्रीज कर लेने की नाकाम कोशिश होती रहनी चाहिए क्योंकि हमें क्या बचाना था और क्या गँवाना था, यह बात आखिर से पहले समझ ही नहीं आती।
वह फोटो डिलीट कर देने के बाद भी फोल्डर में थी। चित्रा ने उस फोटो को डिलीट वाले फोल्डर से दुबारा डिलीट करके उस फ्रीज मोमेंट को आजाद कर दिया।
खैर, होटल से निकलते हुए सुदीप ने रिसेप्शन पर कार के लिए कहा तो चित्रा ही बोली कि पागल हो क्या, ऑटो से चलते हैं।
चित्रा ने पहले से ही एक नाव वाले को फिक्स कर रखा था।
धूम-धड़क्का साथ लिए, क्यों फिरता है जंगल-जंगल इक तिनका साथ न जावेगा, मौकूफ हुआ जब अन्न और जल
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा, जब लाद चलेगा बंजारा।”
। तू कबीर है कबीर!”