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‘श्रीमद् भगवद् गीता’ एवं ‘विदुर नीति’ इसके दो आधार-स्भं हैं। एक में भगवान् श्रीकृष्ण अधर्म के विरुद्ध अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित करते हैं तो दूसरे में महात्मा विदुर युद्ध टालने के लिए धृतराष्ट्र को अधर्म (दुर्योधन) का साथ छोड़ने के लिए उपदेश करते हैं।
‘आग में तपाकर सोने की, सदाचार से सज्जन की, व्यवहार से संत पुरुष की, संकट काल में योद्धा की, आर्थिक संकट में धीर की तथा घोर संकटकाल में मित्र और शत्रु की पहचान होती है।’
‘यह जरूरी नहीं कि मूर्ख व्यक्ति दरिद्र हो और बुद्धिमान धनवान। अर्थात् बुद्धि का अमीरी या गरीबी से कोई संबंध नहीं है। जो ज्ञानी पुरुष लोक-परलोक की बारीकियों को समझते हैं; वे ही इस मर्म को समझ पाते हैं।’ ‘जिस व्यक्ति को बुद्धिबल से मारा जाता है, उसके उपचार में योग्य चिकित्सक, औषधियाँ, जड़ी-बूटियाँ, यज्ञ, हवन, वेद मंत्र आदि सारे उपाय व्यर्थ हो जाते हैं।’
त्यजेत् कुलार्थे पुरुषम् ग्रामस्यार्थे कुं त्यजेत। ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्। अर्थात् एक व्यक्ति का बलिदान देकर भी कुल को बचाना चाहिए, कुल का बलिदान देकर भी ग्राम को बचाना चाहिए, ग्राम की बलि चढ़ाकर भी राज्य बचा लेना चाहिए, और खुद को बचाने के लिए राज्य का भी बलिदान कर देना चाहिए, पर धृतराष्ट्र ने दुर्योधन नामक एक व्यक्ति का बलिदान नहीं किया और अंततः राज्य से हाथ धोना पड़ा।
जो अपने स्वभाव के विपरीत कार्य करते हैं वह कभी नहीं शोभा पाते। 2. गृहस्थ होकर अकर्मण्यता और संन्यासी होते हुए विषयासक्ति का प्रदर्शन करना ठीक नहीं है। 3. अल्पमात्र में धन होते हुए भी कीमती वस्तु को पाने की कामना और शक्तिहीन होते हुए भी क्रोध करना मनुष्य की देह के लिये कष्टदायक और काँटों के समान है। 4. किसी भी कार्य को प्रारंभ करने से पहले यह आत्ममंथन करना चाहिए कि हम उसके लिये या वह हमारे लिये उपयुक्त है कि नहीं। अपनी शक्ति से अधिक का कार्य और कोई वस्तु पाने की कामना करना स्वयं के लिये ही कष्टदायी होता है। 5. न केवल अपनी शक्ति का, बल्कि अपने स्वभाव का भी अवलोकन करना चाहिए। अनेक लोग क्रोध करने
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आत्मज्ञानं समारम्भस्तितिक्षा धर्मनित्यता। यमर्था नापकर्षन्ति स वै पण्डित उच्यते।।20।। जो अपनी योग्यता से भली-भाँति परिचित हो और उसी के अनुसार कल्याणकारी कार्य करता हो, जिसमें दुख सहने की शक्ति हो, जो विपरीत स्थिति में भी धर्म-पथ से विमुख नहीं होता, ऐसा व्यक्ति ही सच्चा ज्ञानी कहलाता है।
जो व्यक्ति क्रोध, अहंकार, दुष्कर्म, अति-उत्साह, स्वार्थ, उद्डंता इत्यादि दुर्गुणों की ओर आकर्षित नहीं होते, वे ही सच्चे ज्ञानी हैं।
यस्य कृत्यं न जानन्ति मत्रं वा मत्रितं परे। कृतमेवास्य जानन्ति स वै पण्डित उच्यते।।23।। दूसरे लोग जिसके कार्य, व्यवहार, गोपनीयता, सलाह और विचार को कार्य पूरा हो जाने के बाद ही जान पाते हैं, वही व्यक्ति ज्ञानी कहलाता है।
यस्य कृसं् न विघ्नन्ति शीतमुष्णं भयं रतिः। समृद्धिरसमृद्धिर्वा स वै पण्डित उच्यते।।24।। जो व्यक्ति सरदी-गरमी, अमीरी-गरीबी, प्रेम-घृणा इत्यादि विषम परिस्थितियों में भी विचलित नहीं होता और तटस्थ...
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क्षिप्रं विजानाति चिरं शृणोति विज्ञाय चार्थ भते न कामात्। नासम्पृष्टो व्युपयुत्तेक्त परार्थे तत् प्रज्ञानं प्रथमं पण्डितस्य।।27।। ज्ञानी लोग किसी भी विषय को शीघ समझ लेते हैं, लेकिन उसे धैर्यपूर्वक देर तक सुनते रहते हैं। किसी भी कार्य को कर्तव्य समझकर करते हैं, कामना समझकर नहीं और व्यर्थ किसी के विषय में बात नहीं करते।
निश्चित्य यः प्रक्रमते नान्तर्वसति कर्मणः। अवन्ध्यकालो वेश्यात्मा स वै पण्डित उच्यते।।29।। जो व्यक्ति किसी भी कार्य-व्यवहार को निश्चयपूर्वक आरंभ करता है, उसे बीच में नहीं रोकता, समय को बरबाद नहीं करता तथा अपने मन को नियंत्रण में रखता है, वही ज्ञानी है।
जो व्यक्ति न तो सम्मान पाकर अहंकार करता है और न अपमान से पीडि़त होता है। जो जलाशय की भाँति सदैव क्षोभरहित और शांत रहता है, वही ज्ञानी है।
जो व्यक्ति सभी भौतिक वस्तुओं की वास्तविकता को जानता हो, सभी प्रकार के कार्य करने में निपुण हो तथा उन कार्यों को भी जानता हो जिन्हें दूसरे करने में असमर्थ हों, ऐसा व्यक्ति ज्ञानी होता है।
जो व्यक्ति बोलने की कला में निपुण हो, जिसकी वाणी लोगों को आकर्षित करे, जो किसी भी ग्रंथ की मूल बातों को शीघ ग्रहण करके बता सकता हो, जो तर्क-वितर्क में निपुण हो, वही ज्ञानी है।
स्वमर्थं यः परित्यज्य परार्थमनुतिष्ठति। मिथ्या चरति मित्रार्थे यश्च मूढः स उच्यते।।36।। जो व्यक्ति अपना काम छोड़कर दूसरों के काम में हाथ डालता है तथा मित्र के कहने पर उसके गलत कार्यो में उसका साथ देता है, वह मूर्ख कहलाता है।
जो व्यक्ति अपने हितैषियों को त्याग देता है तथा अपने शत्रुओं को गले लगाता है और जो अपने से शक्तिशाली लोगों से शत्रुता रखता है, उसे महामूर्ख कहते हैं।
अनाहूतः प्रविशति अपृष्टो बहु भाषेते। अविश्चस्ते विश्चसिति मूढचेता नराधमः।।41।। मूर्ख व्यक्ति बिना आज्ञा लिए किसी के भी कक्ष में प्रवेश करता है, सलाह माँगे बिना अपनी बात थोपता है तथा अविश्वसनीय व्यक्ति पर भरोसा करता है।
परं क्षिपति दोषेण वर्त्तमानः स्वयं तथा। यश्च वुक्तध्यत्यनीशानः स च मूढतमो नरः।।42।। जो अपनी गलती को दूसरे की गलती बताकर स्वयं को बुद्धिमान दरशाता है तथा तथा अक्षम होते हुए भी क्रुद्ध होता है, वह महामूर्ख कहलाता है।
एकं हन्यान्न वा हन्यादिषुर्मुत्तक्ताह्य धनुष्मता। बुद्धिर्बुद्धिमतोत्सृष्टा हन्याद् राष्ट्रं सराकम्।।48।। कोई धनुर्धर जब बाण छोड़ता है तो हो सकता है कि वह बाण किसी को मार दे या न भी मारे, लेकिन जब एक बुद्धिमान कोई गलत निर्णय लेता है तो उससे राजा सहित संपूर्ण राष्ट्र का विनाश हो सकता है।
एकं विषरसो हन्ति शत्रेणैकश्च वध्यते। सराष्ट्रं सप्रं हन्ति राजानं मत्रविप्लवः।।50।। विष केवल उसके पीने वाले एक व्यक्ति की जान लेता है, शत्र भी एक अभीष्ट व्यक्ति की जान लेता है, लेकिन राजा की एक गलत नीति राज्य और जनता के साथ-साथ राजा का भी सर्वनाश कर डालती है।
सोऽस्य दोषो न मन्तव्यः क्षमा हि परमं बलम्। क्षमा गुणो ह्यशत्तक्तानां शत्तक्तानां भूषणं क्षमा।।54।। क्षमा तो वीरों का आभूषण होता है। क्षमाशीलता कमजोर व्यक्ति को भी बलवान बना देती है और वीरों का तो यह भूषण ही है।
द्वाविमौ न विराजेते विपरीतेन कर्मणा। गृहस्थश्च निरारम्भः कार्यवांश्चैव भिक्षुकः।।62।। अपनी मर्यादा के विपरीत कर्म करके ये दो प्रकार के लोग संसार में अपमान के भागी बनते हैं-एक, कर्महीन गृहस्थ और दूसरे सांसारिक मोह-माया में फँसे संन्यासी।
न्यायार्जितस्य द्रव्यस्य बोद्धव्यौ द्वावतिक्रमौ। अपात्रे प्रतिपत्तिश्च पात्रे चाप्रतिपादनम्।।64।। न्याय और मेहनत से कमाए धन के ये दो दुरुपयोग कहे गए हैं-एक, कुपात्र को दान देना और दूसरा, सुपात्र को जरूरत पड़ने पर भी दान न देना।
वरप्रदानं राज्यं च पुत्रजन्म च भारत। शत्रोश्च मोक्षणं कृच्छ्ता् त्रीणि चैकं च तत्समम्।।72।। हे भारत! वरदान प्राप्त करना, राज्य प्राप्त करना और पुत्र का जन्म-इन तीनों से जो आनंद मिलता है, उससे भी ज्यादा आनंद शत्रु से छुटकारा पाने से प्राप्त है। इसलिए दूसरा वाला सुख पहले वाले से श्रेयस्कर है।
षड् दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता। निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध आलसं् दीर्घसूत्रता।।83।। संसार में उन्नति के अभिलाषी व्यक्तियों को नींद, तंद्रा (ऊँघ), भय, क्रोध, आलस्य तथा देर से काम करने की आदत-इन छह दुर्गुणों को सदा के लिए त्याग देना चाहिए।
षडिमान् पुरुषो जह्याद् भिन्नां नावमिवार्णवे। अप्रवत्तक्तारमाचार्यमनधीयानमृत्विजम् ।।84।। अरक्षितारं राजानं भार्यां चाप्रियवादिनीम्। ग्रामकामं च गोपालं वनकामं च नापितम्।।85।। राजन! चुप रहने वाले आचार्य, मंत्र न बोलने वाले पंडित, रक्षा में असमर्थ राजा, कड़वा बोलनेवाली पत्नी, गाँव में रहने के इच्छुक ग्वाले तथा जंगल में रहने के इच्छुक नाई-इन छह लोगों को वैसे ही त्याग देना चाहिए जैसे छेदवाली नाव को त्याग दिया जाता
छह प्रकार के व्यक्ति छह प्रकार के व्यक्तियों द्वारा अपनी आजीविका चलाते हैं। सातवें प्रकार के व्यक्ति अनुपलब्ध होते हैं। जैसे कि चोर लापरवाह व्यक्ति द्वारा, चिकित्सक रोगी द्वारा, मतवाली त्रियाँ कामी लोगों द्वारा, पुरोहित यजमानों द्वारा, राजा झगड़ालू लोगों द्वारा और बुद्धिमान लोग मूखऱ्ों द्वारा अपनी आजीविका कमाते हैं। ܀܀܀
ईर्ष्यी घृणी न सन्तुष्टः क्रोधनो नित्यशङिकतः। परभाग्योपजीवी च षडेते नित्यदुखिताः।।95।। ईर्ष्यालु, घृणा करने वाला, असंतोषी, क्रोधी, सदा संदेह करने वाला तथा दूसरों के भाग्य पर जीवन बिताने वाला-ये छह तरह के लोग संसार में सदा दुखी रहते हैं।
राजन! जो व्यक्ति सुख मिलने पर खुशियाँ नहीं मनाता, दूसरों को दुख में पड़ा देखकर स्वयं आनंदित नहीं होता और दान देकर पछताता नहीं है, वह सदाचारी सत्यपुरुष कहलाता है।
हितं च परिणामे स्यात् तदाद्यं भूतिमिच्छता।।14।। इसलिए भला चाहने वाले व्यक्ति को वही वस्तु खानी चाहिए जो खाकर ठीक से पच जाए और पचने पर कल्याणकारी हो।
यथा मधु समादत्ते रक्षन् पुष्पाणि षट्पदः। तद्वदर्थान्मनुष्येभ्य आदधादविहिंसया।।17।। जिस प्रकार भौंरा फूलों को नुकसान पहुँचाए बिना उनका रस चूसता है, उसी प्रकार राजा को भी प्रजा से कर के रूप में धन इस प्रकार से ग्रहण करना चाहिए कि उसे कष्ट न हो।
यदतप्तं प्रणमति न तत् सन्तापयन्त्यपि। यश्च स्वयं नतं दारुं न तत् सन्नमयन्त्यपि।।36।। जो धातु बिना गरम किए मुड़ जाती है, उन्हें आग में तपने का कष्ट नहीं उठाना पड़ता। जो लकड़ी पहले से झुकी होती है, उसे कोई नहीं झुकाता।
आढयानां मांसपरमं मध्यानां गोरसोत्तरम्। तैलोत्तरं दरिद्राणां भोजनं भरतर्षम्।।49।। महाराज धृतराष्ट्र! धन के अहंकार में डूबे लोगों के भोजन में मांस की, मध्यम वर्ग के लोगों के भोजन में दूध, दही और मक्खन की तथा निर्धन लोगों के भोजन में तैलीय भोजन की प्रधानता होती है।
अवृत्तिर्भयमन्त्यानां मध्यानां मरणाद् भयम्। उत्तमानां तु मर्त्यानामवमानात् परं भयम्।।52।। निम्न वर्ग के लोगों को आजीविका के चले जाने का भय रहता है, मध्यम वर्ग के लोगों को मृत्यु का भय सताता रहता है, लेकिन उत्तम वर्ग के लोगों को केवल अपमान का भय होता है।
आत्मनाऽऽत्मानमन्विच्छेन्मनोबुद्धीन्द्रियैर्यतै। आत्मा ह्येवात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।।64।। राजन! मन-बुद्धि तथा इंद्रियों को आत्म-नियंत्रित करके स्वयं ही अपने आत्मा को जानने का प्रयत्न करें, क्योंकि आत्मा ही हमारा हितैषी और आत्मा ही हमारा शत्रु है।
असन्त्यागात् पापकृतामपापांस्तुल्यो दण्डः स्पृशते मिश्रभावात्। शुष्केणार्द्रंदह्यते मिश्रभावात्तस्मात्पापै सह सन्धि नकुर्य्यात्।।70।। दुर्जनों की संगति के कारण निरपराधी भी उन्हीं के समान दंड पाते हैं; जैसे सूखी लकडि़यों के साथ गीली भी जल जाती हैं। इसलिए दुर्जनों के साथ मैत्री नहीं करनी चाहिए।
तृणोल्कया ज्ञायते जातरूपं वृत्तेन भद्रो व्यवहारेण साधु। शूरो भयेष्वर्थकृच्छ्षु धीरः कृच्छ्षे्वापत्सु सुहृदश्चारयश्च।।50।। आग में तपाकर सोने की, सदाचार से सज्जन की, व्यवहार से संत पुरुष की, संकट काल में योद्धा की, आर्थिक संकट में धीर की तथा घोर संकट काल में मित्र और शत्रु की पहचान होती है।
न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा न ते वृद्धा ये न वदन्तिर्मम्। नासौधर्मो यत्र न सत्यमस्ति न तत् सत्यं यच्छलेनाभ्युपेतम्।।59।। जिस सभा में बड़े बूढ़े (ज्ञानी) न हों, वह सभा न होने के समान है; जो धर्मानुसार न बोलें वे बड़े-बूढ़े (ज्ञानी) नहीं हैं; जिस बात में सत्य नहीं है, वह धर्म नहीं है और जो बात छल-कपट से भरी हो वह सत्य नहीं है।
असूयको दन्दशूको निष्ठुरो वैरकृच्छठः। स कृच्छं् महदाप्नोति नचिरात् पापमाचरन्।।65।। अच्छाई में बुराई देखनेवाला, उपहास उड़ाने वाला, कड़वा बोलने वाला, अत्याचारी, अन्यायी तथा कुटिल पुरुष पाप कर्मों में लिप्त रहता है और शीघ ही मुसीबतों से घिर जाता है।
अनसूयु कृतप्रज्ञः शोभनान्याचरन् सदा। नकृच्छं् महदाप्नोति सर्वत्र च विरोचते।।66।। जो व्यक्ति किसी की निंदा नहीं करता, केवल गुणों को देखता है, वह बुद्धिमान सदैव अच्छे कार्य करके पुण्य कमाता है और सब लोग उसका सम्मान करते हैं। ܀܀܀
दिवसेनैव तत् कुर्य्याद् येन रात्रौ सुखं वसेत्। अष्टमासेन तत् कुर्य्याद् येन वर्षा सुखं वसेत्।।68।। पूर्वे वयसि तत्त्कुर्याद् येन वृद्धः सुखं वसेत्। यावज्जीवेन तत्त्कुर्याद् येन प्रेत्य सुखं वसेत्।।69।। हर दिन ऐसा कार्य करें कि हर रात सुख से कटे। साल के आठ महीने वह कार्य करें कि वर्षा-काल के चार महीने सुख से कटे। बचपन में ऐसे कार्य करें कि वृद्धावस्था सुख से कटे और जीवन भर ऐसे कार्य करें कि मरने के बाद भी सुख मिले।
‘अधर्मेणेधते तावद्दशवर्षाणि तिष्ठति। प्राप्त त्वेकादशे वर्षे समूलञ्च विनश्यति’।। गुरुरात्मवतां शास्ता शास्ता राजा दुरात्मनाम्। अथ प्रच्छन्नपापानां शास्ता वैवस्वतो यमः।।72।। इंद्रियों को जीत लेने वाले सज्जनों को उनके गुरुजन मार्ग दिखाते हैं; दुर्जनों को दंड देकर राजा मार्ग दिखाता है और जो व्यक्ति चोरी-छिपे पाप करता है उसे यमराज दंड देकर मार्ग दिखाते हैं।
ऋषीणां च नदीनां च कुलानां च महात्मनाम्। प्रभवो नाधिगन्तव्यः त्रीणां दुश्चरितस्य च।।73।। ऋषियों, नदियों और संत-महात्माओं का कुल तथा त्रियों के चरित्र की छानबीन नहीं करनी चाहिए।
यदि सन्तं सेवति यद्यसन्तं तपस्विनं यदि वा स्तेनमेव। वासो यथा रङगवशं प्रयाति तथा स तेषां वशमभ्युपैति।।10।। कपड़े को जिस रंग में रँगा जाए, उस पर वैसा ही रंग चढ़ जाता है, इसी प्रकार सज्जन के साथ रहने पर सज्जनता, चोर के साथ रहने पर चोरी तथा तपस्वी के साथ रहने पर तपश्चर्या का रंग चढ़ जाता है।
अव्याहृतं व्याहृताच्छ्ये आहु सत्यं वदेद् व्याहृतं यद् द्वितीयम्। प्रिं वदेद् व्याहृतं तत् तृतीयं धर्मं वदेद् व्याहृतं तच्चतुर्थम्।।12।। शात्रों में मौन को बोलने से अच्छा कहा गया है; इसे वाणी की पहली विशेषता कहा जा सकता है, लेकिन यदि सत्य बोला जाए तो वह वाणी की दूसरी विशेषता है। सत्य भी यदि प्रिय (जो सुनने वालों को अच्छा लगे), बोला जाए तो वह वाणी की तीसरी विशेषता है और प्रिय सत्य धर्मसम्मत बोला जाए तो वह वाणी की चौथी विशेषता है। ܀܀܀ यादृशै सन्निविशते यादृशांश्चोपसेवते। यादृगिच्छेच्च भवितुं तादृग् भवति पूरुषः।।13।। व्यक्ति जैसे लोगों के साथ उठता-बैठता है, जैसे लोगों की संगति करता है, उसी के
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धूमायन्ते व्यपेतानि ज्वलन्ति सहितानि च। धृतराष्ट्रोल्मुकानीव ज्ञातयो भरतर्षभ।।60।। हे धृतराष्ट्र! जैसे एक अकेली लकड़ी जलने पर धुआँ देती है, लेकिन कई लकडि़याँ इकट्ठी होने पर तेजी से जलती हैं, इसी प्रकार कुल से अलग हुए संबंधी भी दुख उठाते हैं उनमें एकता होगी, तभी वे सुखी रहेंगे।
न मनुष्ये गुणः कश्चिद् राजन् सधनतामृते। अनातुरत्वाद् भद्रं ते मृतकल्पा हि रोगिणः।।67।। महाराज! धन और स्वास्थ्य ही मनुष्य के दो सबसे बड़े गुण हैं। विद्वानों ने रोगी को मुरदे के समान कहा है। मेरी कामना है कि आप सदैव इन दो गुणों से भरे-पूरे रहें।
बुढ़ापा सुंदरता का नाश कर देता है, उम्मीद धीरज का, ईर्ष्या धर्म-निष्ठा का, काम लाज-शर्म का, दुर्जनों का साथ सदाचार का, क्रोध धन का तथा अहंकार सभी का नाश कर देता है।
गुणाश्च षण्मितभुत्तंक्त भजन्ते आरोग्यमायुश्च बलं सुखं च। अनाविलं चास्य भवत्यपत्यं न चैनमाद्यून इति क्षिपन्ति।।34।। जीने लायक भोजन करने वाले को ये छह गुण प्राप्त होते हैं-(1) उत्तम स्वास्थ्य, (2) दीर्घायु, (3) बल, (4) सुखी जीवन, (5) सुंदर संतान तथा (6) ‘पेटू’ होने की निंदा से मुक्ति। ܀܀܀
न तथेच्छन्ति कल्याणान् परेषां वेदितुं गुणान्। यथैषा ज्ञातुमिच्छन्ति नैर्गुण्यं पापचेतसः।।47।। बुरे लोगों की रुचि दूसरों के गुणों से ज्यादा उनके दुर्गुणों के बारे में जानने में होती है।

