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आरोषणो यः समलोष्टाश्मकाञ्चनः प्रहीणशोको गतसन्धिविग्रहः। निन्दाप्रशंसोपरतः प्रियाप्रिये त्यजन्नुदासीनवदेष भिक्षुकः।।6।। संन्यासी उसी व्यक्ति को कहा जा सकता है जो क्रोध नहीं करता; सुख-दुख, शोक-हर्ष से परे हो; मिट्टी-पत्थर और सोने को एक समान समझता हो; जो न किसी से प्रेम करता हो न किसी से घृणा और शत्रुता; जो न किसी की बुराई करता हो न प्रशंसा।
न विश्चसेदविश्चस्ते विश्चस्ते नातिविश्चसेत्। विश्चासाद् भयमुत्पन्नं मूलान्यपि निकृन्तति।।9।। जो व्यक्ति भरोसे के लायक नहीं है, उस पर तो भरोसा न ही करें, लेकिन जो बहुत भरोसेमंद है, उस पर भी अंधे होकर भरोसा न करें, क्योंकि जब ऐसे लोग भरोसा तोड़ते हैं तो बड़ा अनर्थ होता है। ܀܀܀
धृतिः शमो दमः शौचं कारुण्यं वागनिष्ठुरा। मित्राणां चानभिद्रोहः सप्तैताः समिधः श्रियः।।37।। महाराज! शात्रों में सात गुण धन-संपत्ति की बढ़ोतरी में सहायक कहे गए हैं। ये सात गुण हैं-(1) धीरज, (2) पवित्रता, (3) मन का संयम, (4) इंद्रिय-संयम, (5) उदारता, (6) मीठी वाणी तथा (7) शुद्ध आचरण।
प्रियो भवति दानेन प्रियवादेन चापरः। मत्रमूलबलेनान्यो यः प्रियः प्रिय एव सः।।3।। कोई पुरुष दान देकर प्रिय होता है, कोई मीठा बोलकर प्रिय होता है, कोई अपनी बुद्धिमानी से प्रिय होता है; लेकिन जो वास्तव में प्रिय होता है, वह बिना प्रयास के प्रिय होता है। ܀܀܀ द्वेष्यो न साधुर्भवति न मेधावी न पण्डितः। प्रिये शुभानि कार्याणि द्वेष्ये पापानि चैव ह।।4।। जो प्रिय लगता है उसके बुरे काम भी अच्छे लगते हैं; लेकिन जो अप्रिय है, वह चाहे बुद्धिमान, सज्जन या विद्वान हो, बुरा ही लगता है।
आयत्यां प्रतिकारज्ञस्तदात्वे दृढनिश्चयः। अतीते कार्यशेषज्ञो नरोऽर्थैर्न प्रहीयते।।54।। जो पुरुष भूतकाल की अपनी गलतियों को जानता है, जो अपने वर्तमान कर्तव्य को समर्पित भाव से करता है और जो भावी दुखों को टालने की विधि जानता है-वह कमी ऐश्वर्यहीन नहीं होता।
कर्मणा मनसा वाचा यदभीक्ष्णं निषेवते। तदेवापहरत्येनं तस्मात् कल्याणमाचरेत्।।55।। मन, वचन और कर्म से हम लगातार जिस वस्तु के बारे में सोचते हैं, वही हमें अपनी ओर आकर्षित कर लेती है। अतः हमें सदा शुभ चीजों का चिंतन करना चाहिए।
यत् सुखं सेवमानोऽपि धर्मार्थाभ्यां न हीयते। कामं तदुपसेवेत न मूढव्रतमाचरेत्।।60।। व्यक्ति को यह छूट है कि वह न्यायपूर्वक और धर्म के मार्ग पर चलकर इच्छानुसार सुखों का भरपूर उपभोग करे, लेकिन उनमें इतना आसक्त न हो जाए कि अधर्म का मार्ग पकड़ ले।
न चातिगुणवत्स्वेषा नान्यन्तं निर्गुणेषु च। नेषा गुणान् कामयते नैर्गुण्यान्नानुरज्यते। उन्मत्ता गौरिवान्धा श्री क्वचिदेवावतिष्ठते।।64।। लक्ष्मी न तो प्रंड ज्ञानियों के पास रहती हैं, न नितांत मूखऱ्ों के पास। न तो इन्हें ज्ञानियों से लगाव है न मूखऱ्ों से। जैसे बिगड़ैल गाय को कोई-कोई ही वश में कर पाता है, वैसे ही लक्ष्मी भी कहीं-कहीं ही ठहरती हैं। ܀܀܀
अष्टौ तान्यव्रतघ्नानि आपो मूं फलं पयः। हबिर्ब्राह्मणकाम्या च गुरोर्वचनमौषधम्।।70।। जल पीने, कंदमूल खाने, फल खाने, दूध पीने, घी खाने, ब्राह्मण की बात रखने के लिए खाने, गुरु की आज्ञा मानकर खाने से व्रत भंग नहीं होता।
न तत् परस्य सन्दध्यात् प्रतिकूं यदात्मनः। सङ्ग्रहेणैष धर्म स्यात् कामादन्यः प्रवर्तते।।71।। अगर धर्म के सार को जानना है तो वह यही है कि जो काम आपको स्वयं के लिए अच्छा न लगे, उसे दूसरे के लिए न करें। ܀܀܀
न स्वप्नेन जयेन्निद्रं न कामेन जयेत् त्रियः। नेन्धनेन जयेदग्निं न पानेन सुरां जयेत्।।80।। सोकर नींद को नहीं जीता जा सकता, शारीरिक तुष्टि द्वारा त्री को नहीं जीता जा सकता, लकड़ी डालकर आग को नहीं जीता (बुझाया) जा सकता तथा शराब पीकर इसकी लत को नहीं जीता जा सकता।
सहस्रिणोऽपि जीवन्ति जीवन्ति शतिनस्तथा। धृतराष्ट्र विमुञ्चेच्छां न कथञ्चिन्न जीव्यते।।82।। महाराज धृतराष्ट्र! जो हजारों कमाता है वह जीता है और जो सैकड़ों कमाता है वह भी जीता है। इसलिए अधिक की इच्छा न करें। यह न सोचें के अधिक नहीं होगा तो जीवन ही नहीं चलेगा।
असूयैकपदं मृत्युरतिवादः श्रियो वधः। अशुश्रूषा त्वरा श्लाघा विद्यायाः शत्रवत्रयः।।4।। अच्छाई में बुराई देखना मृत्यु जैसा कष्टकारी अवगुण है। बढ़-चढ़कर बोलना धन-हानि का कारक है। जल्दबाजी, बात पर ध्यान न देना तथा आत्मप्रशंसा-ये तीन अवगुण ज्ञान के शत्रु हैं।
आलसं् मदमोहौ च चापलं गोष्ठिरेव च। स्तब्धता चाभिमानित्वं तथा त्यागित्वमेव च। एते वै सप्त दोषाः स्यु सदा विद्यार्थिनां मताः।।5।। विद्यार्थियों को सात अवगुणों से दूर रहना चाहिए। ये हैं-(1) आलस, (2) नशा, (3) चंचलता, (4) गपशप, (5) जल्दबाजी, (6) अहंकार और (7) लालच।
सुखार्थिनः कुतो विद्या नास्ति विद्यार्थिनः सुखम्। सुखार्थी वा त्यजेत् विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम्।।6।। सुख चाहने वाले से विद्या दूर रहती है और विद्या चाहने वाले से सुख। इसलिए जिसे सुख चाहिए,...
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नाग्निस्तृप्यति काष्ठानां नापगानां महोदधिः। नान्तकः सर्वभूतानां न पुंसां वामलोचना।।7।। लकडि़याँ आग को तृप्त नहीं कर सकतीं; नदियाँ समुद्र को तृप्त नहीं कर सकतीं; सभी प्राणियों की मृत्यु यम को तृप्त नहीं कर सकती तथा पुरुषों से कामी त्री ...
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