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मत डरो, सन्त यह मुकुट नहीं माँगेगा, धन के निमित्त यह धर्म नहीं त्यागेगा। तुम सोओगे, तब भी यह ऋषि जागेगा, ठन गया युद्ध तो बम-गोले दागेगा।
लौलुप्य-लालसा जहाँ, वहीं पर क्षय है; आनन्द नहीं, जीवन का लक्ष्य विजय है।
छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाये, मत झुको अनय पर, भले व्योम फट जाये। दो बार नहीं यमराज कण्ठ धरता है, मरता है जो, एक ही बार मरता है।
जब कभी अहं पर नियति चोट देती है, कुछ चीज अहं से बड़ी जन्म लेती है। नर पर जब भी भीषण विपत्ति आती है, वह उसे और दुर्धर्ष बना जाती है।
उद्देश्य जन्म का नहीं कीर्त्ति या धन है, सुख नहीं, धर्म भी नहीं, न तो दर्शन है; विज्ञान, ज्ञान-बल नहीं, न तो चिन्तन है, जीवन का अन्तिम ध्येय स्वयं जीवन है। सबसे स्वतन्त्र यह रस जो अनघ पियेगा, पूरा जीवन केवल वह वीर जियेगा।
निर्जर पिनाक हर का टंकार उठा है, हिमवन्त हाथ में ले अंगार उठा है, ताण्डवी तेज फिर से हुंकार उठा है, लोहित में था जो गिरा, कुठार उठा है।
ऋषियों को भी सिद्धि तभी तप से मिलती है, जब पहरे पर स्वयं धनुर्धर राम खड़े होते
किन्तु, पताका झुकी अगर बलिदान की, गरदन ऊँची रही न हिन्दुस्तान की, पुरुष पीठ पर लिये घाव रोते रहें, आँसू से अपना कलंक धोते रहें।