मही प्रदीप्त है, दिशा-दिगन्त लाल-लाल है, व’ देख लो, जवानियों की जल रही मशाल है; व’ गिर रहे हैं आग में पहाड़ टूट-टूट के, व’ आसमाँ से आ रहे हैं रत्न छूट-छूट के, उठो, उठो कुरीतियों की राह तुम भी रोक दो, बढ़ो, बढ़ो, कि आग में अनीतियों को झोंक दो। परम्परा की होलिका जला रहीं जवानियाँ।