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घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है, लेकिन, कमरे में ग़लत हुक्म लिखता है। जिस पापी को गुण नहीं; गोत्र प्यारा है, समझो, उसने ही हमें यहाँ मारा है।
जा कहो, पुण्य यदि बढ़ा नहीं शासन में, या आग सुलगती रही प्रजा के मन में; तामस बढ़ता यदि गया ढकेल प्रभा को, निर्बन्ध पन्थ यदि मिला नहीं प्रतिभा को, रिपु नहीं, यही अन्याय हमें मारेगा, अपने घर में ही फिर स्वदेश हारेगा।
चिन्तको! चिन्तना की तलवार गढ़ो रे! ऋषियो! कृशानु-उद्दीपन मन्त्र पढ़ो रे! योगियो! जगो, जीवन की ओर बढ़ो रे! बन्दूकों पर अपना आलोक मढ़ो रे! है जहाँ कहीं भी तेज, हमें पाना है, रण में समग्र भारत को ले जाना है।
मत टिको मदिर, मधुमयी, शान्त छाया में, भूलो मत उज्ज्वल ध्येय मोह-माया में। लौलुप्य-लालसा जहाँ, वहीं पर क्षय है; आनन्द नहीं, जीवन का लक्ष्य विजय है।
भामा ह्रादिनी-तरंग, तडिन्माला है, वह नहीं काम की लता, वीर बाला है, आधी हालाहल-धार, अर्ध हाला है। जब भी उठती हुंकार युद्ध-ज्वाला है, चण्डिका कान्त को मुण्ड-माल देती है; रथ के चक्के में भुजा डाल देती है।
खोजता पुरुष सौन्दर्य, त्रिया प्रतिभा को, नारी चरित्र-बल को, नर मात्र त्वचा को। श्री नहीं पाणि जिसके सिर पर धरती है, भामिनी हृदय से उसे नहीं वरती है। पाओ रमणी का हृदय विजय अपनाकर, या बसो वहाँ बन कसक वीर-गति पाकर।
छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाये, मत झुको अनय पर, भले व्योम फट जाये। दो बार नहीं यमराज कण्ठ धरता है, मरता है जो, एक ही बार मरता है। तुम स्वयं मरण के मुख पर चरण धरो रे! जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे!
नत हुए बिना जो अशनि-घात सहती है, स्वाधीन जगत् में वही जाति रहती है।
आँधियाँ नहीं जिसमें उमंग भरती हैं, छातियाँ जहाँ संगीनों से डरती हैं, शोणित के बदले जहाँ अश्रु बहता है, वह देश कभी स्वाधीन नहीं रहता है।
जब कभी अहं पर नियति चोट देती है, कुछ चीज अहं से बड़ी जन्म लेती है। नर पर जब भी भीषण विपत्ति आती है, वह उसे और दुर्धर्ष बना जाती है।
हैं दुखी मेष, क्यों लहू शेर चखते हैं, नाहक इतने क्यों दाँत तेज़ रखते हैं। पर, शेर द्रवित हो दशन तोड़ क्यों लेंगे? मेषों के हित व्याघ्रता छोड़ क्यों देंगे? एक ही पन्थ, तुम भी आघात हनो रे! मेषत्व छोड़ मेषो! तुम व्याघ्र बनो रे!
जो पुण्य-पुण्य बक रहे, उन्हें बकने दो, जैसे सदियाँ थक चुकीं, उन्हें थकने दो। पर, देख चुके हम तो सब पुण्य कमा कर, सौभाग्य, मान, गौरव, अभिमान गँवाकर। वे पियें शीत, तुम आतप-घाम पियो रे! वे जपें नाम, तुम बनकर राम जियो रे!
उद्देश्य जन्म का नहीं कीर्त्ति या धन है, सुख नहीं, धर्म भी नहीं, न तो दर्शन है; विज्ञान, ज्ञान-बल नहीं, न तो चिन्तन है, जीवन का अन्तिम ध्येय स्वयं जीवन है।
घटा को फाड़ व्योम-बीच गूँजती दहाड़ है, ज़मीन डोलती है और डोलता पहाड़ है; भुजंग दिग्गजों से, कूर्मराज त्रस्त कोल से, धरा उछल-उछल के बात पूछती खगोल से; कि क्या हुआ है सृष्टि को? न एक अंग शान्त है; प्रकोप रुद्र का कि कल्पनाश है, युगान्त है? जवानियों की धूम-सी मचा रहीं जवानियाँ।
मही प्रदीप्त है, दिशा-दिगन्त लाल-लाल है, व’ देख लो, जवानियों की जल रही मशाल है; व’ गिर रहे हैं आग में पहाड़ टूट-टूट के, व’ आसमाँ से आ रहे हैं रत्न छूट-छूट के, उठो, उठो कुरीतियों की राह तुम भी रोक दो, बढ़ो, बढ़ो, कि आग में अनीतियों को झोंक दो। परम्परा की होलिका जला रहीं जवानियाँ।
अहा, पुकार कर्म की; अहा, री पीर मर्म की, अहा, कि प्रीति भेंट जा चढ़ी कठोर धर्म की। अहा, कि आँसुओं में मुस्करा रहीं जवानियाँ।
जहाँ शस्त्रबल नहीं, शास्त्र पछताते या रोते हैं। ऋषियों को भी सिद्धि तभी तप से मिलती है, जब पहरे पर स्वयं धनुर्धर राम खड़े होते हैं।
विजयी अगर स्वदेश, प्रिया-प्रियतम का फिर नाता है। विजयी अगर स्वदेश, पुरुष फिर पुत्र, त्रिया माता है।
दोषी केवल वही नहीं, जो नयनहीन था, उसका भी है पाप, आँख थी जिसे, किन्तु, जो बड़ी-बड़ी घड़ियों में मौन, तटस्थ रहा है।
विनय विफल हो जहाँ, बाण लेना पड़ता है। स्वेच्छा से जो न्याय नहीं देता है, उसको एक रोज आखिर सब-कुछ देना पड़ता है।
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।