पृथिवी पर मनुष्य ही ऐसा एक प्राणी है, जो भीड़ में अकेला, और अकेले में भीड़ से घिरा अनुभव करता है। मनुष्य को झुंड में रहना पसंद है। घर-परिवार से प्रारंभ कर, वह बस्तियाँ बसाता है। गली-ग्राम-पुर-नगर सजाता है। सभ्यता की निष्ठुर दौड़ में, संस्कृति को पीछे छोड़ता हुआ, प्रकृति पर विजय, मृत्यु को मुट्ठी में करना चाहता है। अपनी रक्षा के लिए औरों के विनाश के सामान जुटाता है। आकाश को अभिशप्त, धरती को निर्वसन, वायु को विषाक्त, जल को दूषित करने में संकोच नहीं करता। किंतु, यह सबकुछ करने के बाद जब वह एकांत में बैठकर विचार करता है, वह एकांत, फिर घर का कोना हो, या कोलाहल से भरा बाजार, या प्रकाश की गति से तेज
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