मुझे दूर का दिखाई देता है, मैं दीवार पर लिखा पढ़ सकता हूँ, मगर हाथ की रेखाएँ नहीं पढ़ पाता। सीमा के पार भड़कते शोले मुझे दिखाई देते हैं। पर पाँवों के इर्द-गिर्द फैली गरम राख नजर नहीं आती। क्या मैं बूढ़ा हो चला हूँ? हर पचीस दिसंबर को जीने की एक नई सीढ़ी चढ़ता हूँ, नए मोड़ पर औरों से कम, स्वयं से ज्यादा लड़ता हूँ। मैं भीड़ को चुप करा देता हूँ, मगर अपने को जवाब नहीं दे पाता, मेरा मन मुझे अपनी ही अदालत में खड़ा कर, जब जिरह करता है, मेरा हलफनामा मेरे ही खिलाफ पेश करता है, तो मैं मुकदमा हार जाता हूँ, अपनी ही नजर में गुनहगार बन जाता हूँ। तब मुझे कुछ दिखाई नहीं देता, न दूर का, न पास का, मेरी उम्र
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