Koustubh

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जो जितना ऊँचा, उतना ही एकाकी होता है, हर भार को स्वयं ही ढोता है, चेहरे पर मुसकानें चिपका, मन-ही-मन रोता है। जरूरी यह है कि ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो, जिससे मनुष्य ठूँठ-सा खडा न रहे, औरों से घुले-मिले, किसी को साथ ले, किसी के संग चले।
Koustubh
Kya baat hai
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