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Kindle Notes & Highlights
सूर्य तो फिर भी उगेगा, धूप तो फिर भी खिलेगी, लेकिन मेरी बगीची की हरी-हरी दूब पर, ओस की बूँद हर मौसम में नहीं मिलेगी।
टूटे हुए सपने की सुने कौन सिसकी? अंतर को चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी। हार नही मानूँगा, रार नई ठानूँगा, काल के कपाल पर लिखता-मिटाता हूँ। गीत नया गाता हूँ।
दाँव पर सबकुछ लगा है, रुक नहीं सकते। टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते।
हास्य-रुदन में, तूफानों में, अमर असंख्यक बलिदानों में, उद्यानों में, वीरानों में, अपमानों में, सम्मानों में उन्नत मस्तक, उभरा सीना, पीड़ाओं में पलना होगा! कदम मिलाकर चलना होगा।
कौरव कौन कौन पांडव, टेढ़ा सवाल है। दोनों ओर शकुनि का फैला कूट-जाल है।
मनुष्य के ऊपर उसका मन होता है।
छोटे मन से कोई बड़ा नहीं होता, टूटे मन से कोई खड़ा नहीं होता।
मन हारकर, मैदान नहीं जीते जाते, न मैदान जीतने से मन ही जीते जाते हैं।
आदमी को चाहिए कि वह जूझे परिस्थितियों से लड़े, एक स्वप्न टूटे तो दूसरा गढ़े।
कल, कल करते, आज हाथ से निकले सारे, भूत-भविष्यत् की चिंता में वर्तमान की बाजी हारे,
हानि-लाभ के पलड़ों में तुलता जीवन व्यापार हो गया, मोल लगा बिकनेवाले का बिना बिका बेकार हो गया,
मुझे हाट में छोड़ अकेला एक-एक कर मीत चला। जीवन बीत चला।
सीमा के पार भड़कते शोले मुझे दिखाई देते हैं। पर पाँवों के इर्द-गिर्द फैली गरम राख नजर नहीं आती।
ऊँचे पहाड़ पर, पेड नहीं लगते, पौंधे नहीं उगते, न घास ही जमती है। जमती है सिर्फ बर्फ, जो कफन की तरह सफेद और मौत की तरह ठंडी होती है।
जो जितना ऊँचा, उतना ही एकाकी होता है,
पुरखे सोचने के लिए आँखें बंद करते थे, मैं आँखें बंद होने पर सोचता हूँ।
जूझने का मेरा कोई इरादा न था, मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था, रास्ता रोककर वह खड़ी हो गई, यों लगा जिंदगी से बड़ी हो गई।
मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ, लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ?
पार पाने का कायम मगर हौसला, देख तूफाँ का तेवर तरी तन गई, मौत से ठन गई।
आहुति बाकी,यज्ञ अधूरा, अपनों के विघ्नों ने घेरा, अंतिम जय का वज्र बनाने,नव दधीचि हड्डियाँ गलाएँ। आओ फिर से दिया जलाएँ।
जो कल थे, वे आज नहीं हैं। जो आज हैं, वे कल नहीं होंगे। होने, न होने का क्रम, इसी तरह चलता रहेगा, हम हैं, हम रहेंगे, यह भ्रम भी सदा पलता रहेगा।
जो है, उसका होना सत्य है, जो नहीं है, उसका न होना सत्य है।
आग में जले बच्चे, वासना की शिकार औरतें, राख में बदले घर न सभ्यता का प्रमाण-पत्र हैं, न देशभक्ति का तमगा, वे यदि घोषणा-पत्र हैं तो पशुता का, प्रमाण हैं तो पतितावस्था का, ऐसे कपूतों से माँ का निपूती रहना ही अच्छा था।

