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कौन है अंकुश, इसे मैं भी नहीं पहचानता हूँ। पर, सरोवर के किनारे कंठ में जो जल रही है, उस तृषा, उस वेदना को जानता हूँ। आग है कोई, नहीं जो शान्त होती; और खुलकर खेलने से भी निरन्तर भागती है। रूप का रसमय निमंत्रण या कि मेरे ही रुधिर की वह्नि मुझ को शान्ति से जीने न देती। हर घड़ी कहती, उठो, इस चन्द्रमा को हाथ से धर कर निचोड़ो, पान कर लो यह सुधा, मैं शान्त हूँगी, अब नहीं आगे कभी उद्भ्रान्त हूँगी। किन्तु, रस के पात्र पर ज्यों ही लगाता हूँ अधर को, घूँट या दो घूँट पीते ही
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