उर्वशी
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पर, तब भी क्या बात? मनस्वी जिन महान् पुरुषों को नई कीर्ति की ध्वजा गाड़नी है उतुंग शिखर पर, बहुधा उन्हें भाग्य गढ़ता है तपा-तपा पावक में, पाषाणों पर सुला, सिंह-जननी का क्षीर पिला कर।
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यह भी नियम विचित्र प्रकृति का जो समर्थ, उद्भट है, दौड़ रहा ऊपर पयोधि के खुले हुए प्रांगण में; और त्रिया जो अबल, मात्र आँसू, केवल करुणा है, वही बैठ सम्पूर्ण सृष्टि के महा मूल निस्तल में छिगुनी पर धारे समुद्र को ऊँचा किए हुए है। इसीलिए, इतिहास, तुच्छ अनुचर प्रकाश, हलचल का, किसी त्रिया की कथा नहीं तब तक अंकित करता है, छाँह छोड़ जब तक आकर वह वरवर्णिनी प्रभा में बैठ नहीं जाती नरत्व ले नर के सिंहासन पर।
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और देवि! जिन दिव्य गुणों को मानवता कहते हैं, उसके भी अत्यधिक निकट नर नहीं, मात्र नारी है। जितना अधिक प्रभुत्व-तृषा से पीड़ित पुरुष-हृदय है, उतने पीड़ित कभी नहीं रहते हैं प्राण त्रिया के। कहते हैं, जिसने सिरजा था हमें, प्रकांड पुरुष था; इसीलिए, उसने प्रवृत्ति नर में दी स्वत्व-हरण की। और नारियों को विरचा उसने कुछ इस कौशल से, हम हो जाती हैं कृतार्थ अपने अधिकार गँवा कर। किन्तु, कभी यदि हमें मिला निर्बाध सुयोग सृजन का, हम होकर निष्पक्ष सुकोमल ऐसा पुरुष रचेंगी, कोलाहल, कर्कश निनाद में भी जो श्रवण करेगा कातर, मौन पुकार दूर पर खड़ी हुई करुणा की;
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