और देवि! जिन दिव्य गुणों को मानवता कहते हैं, उसके भी अत्यधिक निकट नर नहीं, मात्र नारी है। जितना अधिक प्रभुत्व-तृषा से पीड़ित पुरुष-हृदय है, उतने पीड़ित कभी नहीं रहते हैं प्राण त्रिया के। कहते हैं, जिसने सिरजा था हमें, प्रकांड पुरुष था; इसीलिए, उसने प्रवृत्ति नर में दी स्वत्व-हरण की। और नारियों को विरचा उसने कुछ इस कौशल से, हम हो जाती हैं कृतार्थ अपने अधिकार गँवा कर। किन्तु, कभी यदि हमें मिला निर्बाध सुयोग सृजन का, हम होकर निष्पक्ष सुकोमल ऐसा पुरुष रचेंगी, कोलाहल, कर्कश निनाद में भी जो श्रवण करेगा कातर, मौन पुकार दूर पर खड़ी हुई करुणा की;

