यह भी नियम विचित्र प्रकृति का जो समर्थ, उद्भट है, दौड़ रहा ऊपर पयोधि के खुले हुए प्रांगण में; और त्रिया जो अबल, मात्र आँसू, केवल करुणा है, वही बैठ सम्पूर्ण सृष्टि के महा मूल निस्तल में छिगुनी पर धारे समुद्र को ऊँचा किए हुए है। इसीलिए, इतिहास, तुच्छ अनुचर प्रकाश, हलचल का, किसी त्रिया की कथा नहीं तब तक अंकित करता है, छाँह छोड़ जब तक आकर वह वरवर्णिनी प्रभा में बैठ नहीं जाती नरत्व ले नर के सिंहासन पर।

