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Kindle Notes & Highlights
सच को यदि पहले से सोच कर मान्य बना लिया जाए तो यह सत्याभास तो दे सकता है, पर आन्तरिक सहमति तक नहीं पहुँचाता।
लगता यही है कि आज शब्द का पारदर्शी पसीना सूख गया है। रौशनाई स्याही में बदल गई है।
‘इन बंद कमरों में मेरी साँस घुटी जाती है, खिड़कियाँ खोलता हूँ तो ज़हरीली हवा आती है’,
लेखक प्रयोगवादी होने का दम्भ पाल सकता है पर प्रयोग की सारी सम्भावनाएँ केवल कथ्य में निहित होती हैं।
ज्यादा बारिश हुई तो निशान पहले तो भरी आँख की तरह डबडबाते थे, फिर देखते-देखते मिट जाते थे। वापस गए पैर फिर नज़र नहीं आते थे।
खामोशी की गहराई ही शायद लगाव का पैमाना था।
अदीबे आलिया ! किसी को देके दिल कोई नवासंजे फ़ुगां क्यों हो न हो जब दिल ही सीने में, तो फिर मुँह में ज़ुबाँ क्यों हो ! किया ग़मख़्वार ने रुसवा, लगे आग इस मुहब्बत को न लाए ताब जो ग़म की, वो मेरा राज़दां क्यों हो ! वफ़ा कैसी, कहाँ का इश्क, जब सर फोड़ना ठहरा तो फिर ऐ संगेदिल ! तिरा ही संगे आस्तां क्यों हो ! —खु़दा हाफ़िज़...
शायद पछताने की ताकत रखनेवाली संस्कृतियाँ ही जीवित रहती हैं...
विलासी आर्यों ने औरत को हमेशा पुरुष की सम्पत्ति माना है...
मनुष्य के आँसुओं से पवित्र कुछ भी इस दुनिया में नहीं है
आँसू ही जीवन को जीवित रख सकते हैं...
पराशक्ति मौन है...वह विखंडित होते परमाणु का आधारभूत रूप है। वही ब्रह्मांड की मूल मौन शक्ति है। ब्रह्मांड इसी की ऊर्जा से बनता, इसी में टिका रहता है और इसी में विलीन हो जाता है। वह आदि-अंत से परे है। अपरिमित और अपरिमेय है, अज्ञात और अज्ञेय है, अद्वितीय है। परा-अपरा है। नित्य है। शाश्वत और सनातन है। तेज-पुंज है। ब्रह्मांड के सहस्रों सूर्यों से अधिक तेजस्वी ! पदार्थ इसी में जन्मता और इसी में विलीन होता है। जो कुछ भूलोक, द्युलोक और अंतरिक्ष लोक में अवस्थित है, वह सब वही है। इससे परे कुछ भी नहीं है। यही है चेतना, ऊर्जा या आदि परमाणु की पराशक्ति ! हमने, हमारी सभ्यता ने इसे ब्रह्म पुकारा है। ब्रह्म
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–दज़ला, फ़रात और डैन्यूब की परा-धरती के समस्त देवताओं ! तुम सब आज चिन्तित हो क्योंकि मनुष्य ने प्रेम तथा मित्रता जैसे नए तत्वों को खोज लिया है, लेकिन तुम्हें किसने रोका था ? तुम सब घोर अहंकारी हो ! तुम यह भूल गए कि मनुष्य ने ही तुम्हें सिरजा है। मनुष्य के बिना तुम्हारी और हम जैसी देवियों की कोई औक़ात या अस्तित्व नहीं है। तुम समस्त देवता लोग प्रेमविहीन और एकांगी व्यक्ति हो। तुम सब स्त्री पर आसक्त होकर उसका शीलभंग कर सकते हो...अवैध सन्तानें पैदा कर सकते हो, क्योंकि तुम अहंमन्य हो। तुम नितान्त व्यक्तिवादी हो। तुम्हारे पास मित्रता का मूल्य नहीं है। तुम एक दूसरे के पूरक नहीं हो। तुम हमेशा एक दूसरे
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तुमने प्रकृति की अबाध और अजस्र पराशक्ति को ईश्वर का जामा पहना कर खुद को उसका पुरोहित और वंशज बना रखा है। वह अबाध और अजस्र पराशक्ति अपनी सक्रियता से निरन्तर मनुष्य के लिए अपने रहस्य उद्घाटित कर रही है...वह तुम्हारे अधीन नहीं है...
लेकिन जनता के लीडरों की जो नई जमात आई है, वह अपने सार्वजनिक उद्रेक में जो कुछ कह जाती है, उन स्थापनाओं से पीछे नहीं हट सकती...यही मोहम्मद अली जिन्ना की विडम्बना और त्रासदी है ! उन्होंने एक बार सार्वजनिक तौर पर इंडिया का विभाजन माँग लिया तो फिर उनका मन चाहे जितना पछताता रहे, पर वे उस माँग से पीछे नहीं हट सकते हटेंगे तो वे अपना नेतृत्व खो देंगे !...किसी नेता को यह गवारा नहीं होता। जनता की भावनाओं को भड़का कर पैदा किए गए आंदोलनों की यही ताक़त और कमज़ोरी है...एक बार जो कह दिया गया, वह बाद में चाहे अनुचित और ग़लत लगने लगे, पर उसे बदला नहीं जा सकता...अगर बदला गया तो रूढ़ और घटिया ताकतें परिवर्तित
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इतिहास रुका हुआ था। उसे कोई पछतावा नहीं था। पछताता तो इन्सान है, इतिहास नहीं।
वक्त
नफ़रत और खौफ़ की बुनियाद पर बनने वाली कोई चीज़ मुबारक नहीं हो सकती...
हम कश्मीर में हिन्दू हैं पर हिन्दुस्तान में कश्मीरी कहलाते हैं।
हँसी तो खामोश हो गई लेकिन दस्तकें तो खामोश नहीं होतीं।
अर्दली ने अदालत को आकर बताया कि बड़ौदा-गुजरात में हुए दंगों के मुर्दे दस्तक दे रहे हैं...उनमें एक अधमरा घायल भी है जो कभी भी मर सकता है ! –तो पहले उसे मरने दो। मेरे पास जिन्दा या अधमरों के लिए वक्त नहीं है ! मुझे मुर्दों से निपटना है...अदालत ने अर्दली को झाड़ दिया। अर्दली तमतमा उठा–अगर आप जिन्दा या अधमरों की बात नहीं सुनेंगे तो मरनेवालों की तादाद बढ़ती जाएगी...खून बटोरने से काम नहीं चलेगा...खून का खुला हुआ नल बंद कीजिए ! यह लगातार बह रहा है ! –चोप्प ! अदालत चीखी। –मैं चुप नहीं रहूँगा।अर्दली को सियासत चुप करा सकती है या पुलिस...लेकिन आप लेखक होकर चुप करा रहे हैं मुझे ?...लानत हैं आप पर...अर्दली
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जो कुछ भी मुर्दा हो जाता है उसे जल्दी से जल्दी मंजूर करने से ही दुनिया बदलती है।
मरने से पहले तो तुम कहा करते थे कि दस बार नहीं, हज़ार बार मरना पड़े तो भी तुम रामजन्म-भूमि के लिए मरोगे...अब क्यों डर रहे हो ? अर्दली ने उसे दुत्कारा। –इसलिए कि अब मैं इंसान हूँ...मुझे अब मौत से बहुत डर लगता है ! –तो जब मरे थे, उस वक्त तुम क्या थे ? –तब मैं हिन्दू था ! –हिन्दू क्या इन्सान नहीं होते ? –होते हैं लेकिन जब नफ़रत का ज़हर मेरी नसों में दौड़ता है तब मैं इंसान का चोला उतार कर हिन्दू बन जाता हूँ ! –ये नफ़रत का ज़हर कहाँ से आया ! –उसी सन सैंतालीस वाली फ़सल से यह ज़हर जन्मा है हुजूर ! जो हिन्दू को ज्यादा बड़ा हिन्दू और मुसलमान को ज्यादा बड़ा मुसलमान बनाता है ! अर्दली बोला।
कोई जिन्दगी स्वतन्त्र नहीं है, वह आगे और पीछे जुड़ी हुई है !
जिन्दा रहने के लिए बड़ी मुसीबतें झेलनी पड़ती हैं, मर कर आदमी चैन की जिन्दगी बसर करता है–यही मिस्री सभ्यता ने हमें बताया था और मिस्री तथा आर्य सभ्यता ने इसीलिए पुनर्जन्म को माना था...
–चलना अपनी जगह है और पहुँचना अपनी जगह...इन दोनों को मिलाते क्यों हो ? अदीब बोला–इसका सबूत हैं यह ठहरी हुई सदियाँ, जो लाखों करोड़ों बरस पहले चली थीं, पर वहीं पहुँची, जहाँ से वे चली थीं...बीच-बीच में उन्हें मज़हब के पड़ाव मिले और उन पड़ावों ने फिर उन्हें उसी बियाबान रेगिस्तान में पहुँचा दिया...
नफ़रत ही अब आदमी को पहचान देती है...नफ़रत से ही आदमी और उसके जातीय समुदाय पहचाने जाने लगे हैं। नफ़रती एकता के लिए अतीत काम आता है। अतीत का दंश, गौरव और वे स्मृतियाँ जो कसकती, दुःखती और रिसती हैं...इतिहास अपने अतीत को ठीक करने की दृष्टि दे सकता है, पर इतिहास को भी अतीत के अग्निकुंड में झोंक दिया जाता है।
नफ़रत एक ऐसा स्कूल है जिसमें पहले खुद को प्रताड़ित, अपमानित और दंशित किया जाता है...उसे घृणा की खाद से सींचा जाता है और तब उसकी स्मृति को एकात्म करके प्रतिशोध के नुकीले हल से जोत कर हमवार किया जाता है।
–जिन्दगी की राहें ज्यादातर पछतावे से ही खुलती हैं...
जब तक एक पछतावा उभरता है तब तक कहीं कोई दूसरा अँधेरा सैलाब बनके आ जाता है, और जब बहुत बाद उसके पछतावे का दौर शुरू होता है, तब तक कोई तीसरा-चौथा-पाँचवाँ अँधेरा उठ खड़ा होता है !
कभी रेत की चादर उड़ती हुई आती, फिर फट जाती और उसके टुकड़े तितलियों में बदल जाते। वे तितलियाँ बस्ती के दूसरे छोर की ओर चली जातीं।
–गरीबी और भूख की कोई नस्ल नहीं होती !
मन में छुपी हुई कोई बात जब एकाएक पूरी होती है तो आदमी का मन बहुत सकुचाने लगता है...
धर्म के आधार पर संस्कृतियाँ बनती हैं...पर कालांतर में वे धर्म से मुक्त होकर मानव-संस्कृतियों में तब्दील हो जाती हैं...
–एक हल्की-सी उम्मीद तो हर दिन थी, पर वह उम्मीद ही क्या, जो पूरी हो जाए !
–यही कि उम्मीद जड़ों की तरह फैलती है...फोन न आता तो फोन आने की उम्मीद रहती, फोन आ गया है तो दूसरी उम्मीदें साँस ले रही हैं
–सोचना आसान है अदीब...सोचे हुए को जीना बहुत मुश्किल...
पर यादें तो वही हैं जो एक खलिश की तरह जिन्दगी का साथ देने के लिए टिकी रह जाती हैं...और शायद इन्हीं अधूरी यादों को हम बार-बार पूरा करने की कोशिश करते हैं...
अब हम इस बिस्तर पर नहीं लेटेंगे ! –क्यों ? –इस बिस्तर पर मुहब्बत सोई है, इस पर लेटने से हमारी मुहब्बत कहीं मैली न हो जाए...
हिन्द महासागर की शान्त लहरें तट को थपकियाँ दे रही थीं। कुछ खानाबदोश नावें अब भी कोरल की तरफ जा रही थीं या उत्तर में ग्रां-बे की ओर उड़ती चली जा रही थीं। उनके पॉल डूबते सूरज की रोशनी में मुकुटों की तरह चमकते और खो जाते थे।
चाँदनी वाली सेवंती की झाड़ियों की पत्तियाँ पलट गई थीं और नीचे सीपियों के आटे का सफेद कालीन बिछा था।
–मैं एक दोस्त और रिश्तेदार की तरह आपको राय देता हूँ कि बेहतर होगा आप अपने बेटे के साथ, अपने नाना के पास पाकिस्तान लौट आएँ ! नईम ने कहा। –आप तो बिल्कुल यज़ीद की तरह पेश आ रहे हैं ! –यज़ीद की तरह...मैं समझा नहीं ! –आप समझ रहे हैं, यह आप क्यों मंजूर करना चाहेंगे ? यज़ीद ने भी हज़रत हुसैन को मदीने से ईराक आने की दावत दी थी और कर्बला के मैदान में उन्हें भूखा प्यासा रख कर आख़िर उनका क़त्ल कर दिया था !...आपका बुलावा यज़ीद का बुलावा है और आपका पाकिस्तान मेरा कर्बला ही बन सकता है...जहाँ आप मुझे हर तरह से भूखा रखकर अपनी हवस का शिकार बना सकते हैं और जिन्दा रहते हुए भी एक ग़ैर-कुदरती मौत मुझे दे सकते हैं
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आज पूरे चाँद की रात थी...सलमा का तमतमाया चेहरा उस चाँदनी में टीन की चादर की तरह चमक रहा था। नईम साहब न जाने कहाँ गायब हो गए थे...त्र्योबिश में सन्नाटा था। पता नहीं बाकी लोग कहाँ छुप गए थे। झिलमिलाती पन्नी वाले पानी पर कुछ बोट्स थाप देते हुए थरथरा रही थीं...दूर काली जेटी की जाली पर चाँदी की बर्फियाँ बिछी थीं। लावे की कत्थई चट्टानें सुस्तातें हिरनों की तरह बैठी थीं और पानी के भीतर छोटी-छोटी मछलियों के झुंड मोतियों की चादरों की तरह आते और पलट कर चले जाते थे।
–तब मैं तुम्हारी कोठी के कोने पर एक पेड़ की तरह खड़ा जी रहा था...जिसकी शाखों में बारात के स्वागत की चाँदनी और बल्बों की सुतलियाँ बाँधी गई थीं !
–हम अपनी खुशियों के लिए वर्तमान से भाग रहे हैं !
–कहाँ तक भागोगे तुम दोनों ? मनुष्य हमेशा भागता ही रहा...लेकिन पुरुषार्थी कभी भागता नहीं...मैंने यहाँ भी उन भारतीय मजदूरों को ब्लैक-फॉरेस्ट में भागते देखा है, जो अंग्रेज उपनिवेशियों के अत्याचार नहीं सह पाए...कुछ ने आत्महत्याएँ कर लीं, कुछ हिन्द महासगार में कूद कर अपने देश की ओर भागे और सागर के गर्भ में समा गए...कुछ को उपनिवेशियों के शिकारी कुत्तों ने चींथ डाला...कुछ यहाँ के आबनूस के जंगलों को काटते-काटते खुद पेड़ों की तरह काट डाले गए तुम्हीं बताओ तिब्बत कहाँ भाग कर जाएगा ? नाइजीरिया या बोलिविया कहाँ भागेगा ? मैक्सिको भागकर भारत का हिस्सा नहीं बन पाएगा...साइप्रिस भाग कर स्पेन के पेट में नहीं समा
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–त्रास से मुक्त होने का महामार्ग है एक दूसरे में अटूट विश्वास...और संभावना के प्रति आस्था...सम्भावना की स्वीकृति...जो शक्तियाँ इसे नकारती हैं, वे सम्भावना विरोधी हैं...क्योंकि हर व्यक्ति के भीतर सम्भावना की एक अज्ञात ज्योति जल रही है...एक अखंड ज्योति...और संभावना ही सबसे बड़ा जीवन प्रयोग है जिसका आविष्कार खुद मनुष्य ने जीवन को निरन्तरता देने के लिए किया है !
बने बनाए रास्ते वापस भी ले जाते हैं, पर जो पैर खुद पगडंडियाँ बनाते हैं...उन पैरों के मुसाफिर वापस नहीं आते...वे चलते जाते हैं !
अदीब ने उसकी आँखों से झरते हरसिंगार के एक-एक फूल को बटोर लिया था।
धूप में निकलो, घटाओं में नहाकर देखो, ज़िन्दगी क्या है किताबों को हटाकर देखो...