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Kindle Notes & Highlights
–इसी तरह की बहसों से धार्मिक, सामुदायिक और ऐतिहासिक असलियत की दिशाएँ बदल जाती हैं और कालान्तर में वे अलगाव, बहिष्कार और द्वेष का कारण बन जाती हैं...पराजित पक्ष इस तरह की स्मृतियों को संचित करके एक दूसरा ही मनोवांछित इतिहास लिख लेता है और उसी में जीना शुरू कर देता है ! अदीब ने कहा तो सब उसकी ओर सहमति या असहमति से देखने लगे–और विजेता जब इन संचित स्मृतियों के इतिहास का सामना करता है तो धर्म उसका सहायक हथियार बन जाता है। तब वह धर्म को अपने शस्त्रागार में शामिल करके निरंकुश होने की हद तक चला जाता है...आरंभिक मध्यकालीन आक्रमणों का विकसित होता और बदलता सच यही है...
–सार्वजनिक जीवन में काम करने वाले लोगों का कुछ भी निजी या अपना नहीं होता ! वह लोग हमेशा अवाम की अदालत में हाजिर समझे और माने जाते हैं...उनके व्यक्तिगत विचार अगर उनके सार्वजनिक विचारों से मेल नहीं खाते तो ऐसे लोगों को वह नैतिक अधिकार नहीं है कि वे सार्वजनिक जीवन के क्षेत्र में रहें
आज बहादुरी भौतिकवाद की यांत्रिकता की गुलाम है...कोई फौजी, कोई आदमी यांत्रिकता की मदद के बिना बहादुर नहीं है,
हमें औरंगजे़ब की एक मनोवैज्ञानिक गुत्थी को गहराई से समझना चाहिए...होता यह है कि या तो आस्तिक लोग सहज भाव से मज़हब की ओर जाते हैं या फिर वो लोग मज़हब की तरफ दौड़ते हैं, जो जानते हैं कि मज़हब के लिहाज से हमने पाप किया है। औरंगजे़ब ने हिन्दुस्तान का ताज हासिल करने के लिए जो जघन्य अपराध किए थे, उसकी ग्रंथि ही इसका पाप-बोध बन गया और पाप-बोध की इसकी यही कुंठा थी, जो इसे मज़हब की ओर मोड़ ले गई और यह कठमुल्लाओं का गुलाम बन गया ! श्रीराम शर्मा ने कहा–और यह भारत में हिन्दुओं का दुश्मन बन गया !
–अजीब न होता तो और क्या होता ! हर शहंशाह अजीब होता है, क्योंकि वह शहंशाह होता है...तुम अदीब लोग तो सिर्फ़ हाशियों में बैठ कर कहानियाँ गढ़ते रहते हो
जब तक अपने पुरातन खंडहरों को तुम प्यार नहीं करोगे, तब तक भविष्य को खंडहर होने से नहीं बचा पाओगे !
आवाजों और विचारों को मत रोको। उन पर कोई पाबन्दी मत लगाओ...जनमत और जनभावनाएँ खुद इन मनुष्य विरोधी शक्तियों का उत्तर देंगी ! यह जानना जरूरी है कि मज़हबों में एकता नहीं है लेकिन यह जानना उससे भी जरूरी है कि हर मज़हब का इन्सानी सन्देश एक है !...लोकतंत्रवादियों को यह नहीं भूलना चाहिए कि चाहे जितनी भी नकारात्मक, घातक और मनुष्य विरोधी विचारधारा क्यों न हो, उसे खुली, निर्बाध और स्वतंत्र अभिव्यक्ति मिलनी चाहिए...अभिव्यक्ति की इस आजादी से ही इन निर्मम, विरोधी और घातक विचारधाराओं का स्खलन होगा, इनका शमन होगा, क्योंकि इनके पास अंधी उत्तेजना है, शक्ति नहीं !...
यही हमारे समय की त्रासदी है...क्योंकि हम सब मूल्य बोध के बावजूद मूल्य हीनता की चपेट में हैं !...
मनुष्य का मनुष्य के साथ रहने से इनकार करना एक मानवीय जुर्म है
कोई भी संस्कृति पाकिस्तानों के निर्माण के लिए जगह नहीं देती। संस्कृति अनुदार नहीं, उदार होती है…वह मरण का उत्सव नहीं मनाती, वह जीवन के उत्सव की अनवरत शृंखला है…इसी सामासिक संस्कृति की ज़रूरत हमें है क्योंकि वह जीवन का सम्मान करती है !
मैंने देखा कि हिन्दुस्तान का हर आदमी तौहीद का पैरोकार है…सूफीवाद के तौहीद और वैदिक धर्म के अद्वैतवाद में कहीं कोई फ़र्क नहीं है ! तौहीद का मार्ग समझदारी, समन्वय और दया का है…यह तौहीद ही एकेश्वरवाद का महामार्ग है…लेकिन मैंने खु़रासान के सबसे बड़े सूफी संत अबू सईद फज्लुल्लाह के मुताबिक इस बात को भी मंजूर किया कि ईश्वर एक है, लेकिन उससे एकाकार होने के रास्ते सैकड़ों ही नहीं, लाखों और करोड़ों हैं, क्योंकि एकेश्वरवाद का हर पुजारी किस तरह अपने ईश्वर से एकात्म होना चाहता है, यह उसकी आज़ादी है ! तौहीद है ही यही कि न तो वहाँ अपनेपन का अस्तित्व है और न ईश्वर के अलावा किसी और वस्तु का वजूद…यानी वस्तु और
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–पाकिस्तान से पाकिस्तान पैदा होता है…यह छूत का एक रोग है !
हर किताब कोई न कोई रास्ता दिखाती है, लेकिन हर दौर अपनी किताब लिखना चाहता या लिखवाता है...इसलिए हर सच्ची किताब झूठी बन जाती है और हर झूठ सच बन जाता है !
खून की स्याही से तलवारों ने जो इतिहास धरती की छाती पर लिखा है, वही निर्णायक इतिहास नहीं है...यह तो वह इतिहास है जो पेशेवर इतिहासकार लिख सकते थे, या उनसे लिखवाया गया। इन इतिहासों के अलावा इतिहास के उन्हीं नायकों के मन, इरादों, पश्चातापों का एक ज्यादा बड़ा इतिहास होता है जो पेशेवर इतिहासकार नहीं लिख सकते...इसीलिए बाबर का बाबरनामा इतिहास की ज़्यादा सही और सच्ची पुस्तक है...
लेकिन मुश्किल यह है कि राजतंत्र की कोई धर्म संस्था, कोई मज़हबी तहरीक किसी शोक और पश्चाताप को मंजूर नहीं करती...क्योंकि धर्म या मज़हब जिन्दगी की सच्चाइयों से हमेशा सदियों पिछड़ा रहता है ! और यही तमाम बेबुनियाद पाकिस्तानों की बुनियाद बनता है !...
यह लड़ाई धर्म की नहीं, धर्म और धर्मान्धता की है। इस्लाम जैसा धर्म ही खुद अपनी धर्मान्धता से लड़ रहा है ! और शायद दुनिया के हर धर्म को अपनी धर्मान्धता से लड़ना और उसे जीतना पड़ेगा !...आप अपने धर्मान्धतावादी तर्कों से पाकिस्तानों में से और पाकिस्तान बनाएँगे, पर धर्मवादी दुनिया अपने धार्मिक विश्वासों को जीवित रखते हुए एक मनुष्यवादी धर्म के संविधान की परिकल्पना करेगी...यह किसी एक धर्म की दुनिया नहीं होगी, यह बहुधर्मी लोगों की एक धार्मिक दुनिया होगी ! अपने-अपने धर्म की धर्मान्धता से लड़ते रहनेवाले धर्म-परस्त लोगों की दुनिया !
शायद जब कुछ ग़लत होता है तो सब कुछ ग़लत हो जाता है !...
अपने स्वार्थों के लिए सब मज़हब को मानते थे, लेकिन मज़हब की बात कोई नहीं मानता था !
हिंदुस्तान की तवारीख इस बात की गवाह है कि जब हिन्दुस्तान पर किसी ने हमला किया, तभी तक वह विदेशी रहा...हमले के बाद हर हमलावर हिन्दुस्तानी तहज़ीब और तहरीक का हिस्सा बनता गया...यहाँ तक कि हिन्दुस्तान आकर जिन सूफी संतों ने इस्लाम का विकास और प्रचार किया, वह इस्लाम भी भारतीय इस्लाम बनता गया ! इस मुल्क की मिट्टी में वह ताकत और तासीर है कि यह सबको जज़्ब कर लेती है...
इंसान का ईश्वर तब एक होगा, जब इंसान का दुःख एक होगा !
यह शोषण, अन्याय और विषमता की दुनिया, जो हर पल हज़ारों तरह के दुःख पैदा करती है, यह न तो मनुष्य के सुख को सन्तुलित और हमवार होने देगी और न कभी उसके दुःख को एकात्म होने देगी !...जिस दिन इंसानियत का दुःख एकात्म हो जाएगा, उस दिन पूरी दुनिया के बाशिंदों का ईश्वर भी एक हो जाएगा !...और तब वह ईश्वर शिकायतों की अदालत का अमूर्त निर्णायक नहीं, वह मानवता के सुख का अंतिम केन्द्र बन जाएगा और वह अमूर्तता के दार्शनिक सिद्धान्तों की उलझी सच्चाइयों से मुक्त होकर खुद एक खुशनुमा और मूर्त सच्चाई में तब्दील हो जाएगा ! तब ईश्वर मशवरा देनेवाले बुजुर्ग की तरह हर घर का हिस्सा बन जायेगा।
पूरब पच्छिम का भेद मत करो और याद करो कि जब अल्लाह के पाक रसूल, अपने पवित्र पैग़म्बर मुहम्मद ने बैतुल मुकद्दस जेरुसलम के बदले, काबे की तरफ मुँह करके नमाज़ पढ़नी शुरू की थी, तो यह बात यहूदियों और ईसाइयों को बहुत नागवार गुज़री थी, क्योंकि वह इन्हीं ग़ैर ज़रूरी बातों पर मज़हब का दारोमदार समझते थे और इन्हीं मामूली मसलों को सच और झूठ की कसौटी मानते थे।
ख़ामोश विलाप की आवाजें तभी दिल पर दस्तक देती हैं जब इंसानी उसूलों की हत्या होती है और आँसुओं की नदी तभी उमड़ती है जब कोई संस्कृति सूखने वाली होती है–तब आदमी की लाचारी के आँसू उसकी आँखों से बहते नहीं दिखाई देते, बल्कि वे ज़मीन में जज़्ब होकर उस दिशा में बह निकलते हैं जहाँ कोई नई संस्कृति जन्म ले रही होती है। हुजूरे आलिया ! आदमी के आँसू ही नई संस्कृतियों को पैदा करके उसे सींचते हैं...जिस संस्कृति के आँसू सूख जाते हैं, वह उजड़ जाती है...
आप भी जानते हैं–सच तो इन्सान की उदात्त आकांक्षाओं का एक सपना है इसलिए हर सदी में सच इंसानी शुभ के लिए तहज़ीब की भट्टी में तपा कर फिर शुद्ध कर लिया जाता है...सच कभी अशुद्ध रह ही नहीं सकता...
इबादत करने वाला उसके बराबर नहीं हो सकता, जो गुनाह से ख़ुद को बचाता है...
नया कभी भी पुराने की पुनरावृत्ति नहीं होता।
है। कहा जाता है कि किसी परमशक्ति ने हमारी सृष्टि की है। तो सुनो, जो परम और अनित्य है वह सृजन से हीन है। सृजन वही कर सकता है जो मृत्यु को अंगीकार करता है।....
किताबों में जो इतिहास लिखा या लिखवाया जाता है....और साक्षातकारों में जो दर्ज कराया जाता है....पेशेवर कलम- घिस्सुओं द्वारा जिस तरह तथ्यों के सहारे दस्तावेजी इतिहास बनाया जाता है, वह इतिहास नहीं होता....इतिहास वह होता है जो दिलो-दिमाग़ की तख़्ती पर लिखा जाता है....और उस इबारत को कोई पढ़ न ले, इसलिए उसे फौरन मिटाया जाता है....उस मिटी हुई इबारत को सिर्फ़ वही अदीब पढ़ सकता है जो सुकरात, गौतम बुद्ध, ईसा या गाँधी की भाषा पढ़ सकता है....
लमहों ने ख़ता की थी सदियों ने सज़ा पाई...
सुख और सौन्दर्य उसे ही हासिल है जिसे अपनी, और अपने समय की आज़ादी हासिल है...नहीं तो अधूरे सुख और बीमार सौन्दर्य को ही पराजित नस्लें अपना सम्पूर्ण सुख और परम सौन्दर्य स्वीकार कर लेती हैं !...
बाज़ारों के लिए ही बनते हैं साम्राज्य ! और साम्राज्यों को जीवित रखने के लिए ही बनाए जाते हैं बाज़ार ! साम्राज्यों की नाभि बाज़ार से जुड़ी है। साम्राज्यों के रूप बदल सकते हैं...वे प्रजातांत्रिक आर्थिक साम्राज्य का रूप ले सकते हैं परन्तु, इन पूँजीवादी प्रजातन्त्रों को जीने के लिए मुनाफ़े के बाजारों की ज़रूरत है...बाज़ार ! बाज़ार !! बाज़ार !!! यही है औद्योगिक क्रान्ति का सतत् जीवित रहने की मजबूरी भरा सिद्धान्त ! यही है पूँजीवाद। इसी का दूसरा नाम है साम्राज्यवाद। तीसरा नाम है उपनिवेशवाद। और आज दस्तक देती हुई नई सदी में इसका नाम है बाज़ारवाद। यह व्यवस्था कच्चे माल की प्राप्ति और नित नए बाज़ारों के
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संस्कृति ही पूर्वजों की जीवित परछाइयों का संसार है। उनकी उपस्थिति हमेशा परछाईं की तरह मनुष्य के साथ रहती है...
क्या महत्वाकांक्षी वक्त में मित्रता–शान्ति और सहअस्तित्व का आधार नहीं बन सकती ?
वैदिक आर्यों ने अपने ही वंशजों को मौत दी। क्राइस्ट की करुणा ने गौतम बुद्ध की करुणा की हत्या कर दी...लेकिन उसकी हत्या कोई नहीं कर सकता जो वेदों से पहले का आर्य है, जेहोवा से पहले का यहूदी है। जरथुस्त्र से पहले का पारसी है। गौतम बुद्ध से पहले का बौद्ध, ईसा से पहले का ईसाई और पैग़म्बर मुहम्मद से पहले का मुसलमान है !
जिएँ तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए...