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जिस होटल में उधार खाता था वो मेरे जैसे मुफ़्तख़ोरों को उधार खिला-खिलाकर बंद हो गया है। उसकी जगह जूतों की दुकान खुल गई है। अब क्या खाऊँ।
ऐसा तो नहीं है कि मैंने ज़िंदगी में कुछ किया ही नहीं है लेकिन फिर ये ख़्याल आता है कि मैं जितना कर सकता हूँ उसका तो एक चौथाई भी अब तक नहीं किया और इस ख़्याल की दी हुई बेचैनी जाती नहीं।