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गिन गिन के सिक्के हाथ मेरा खुरदुरा हुआ जाती रही वो लम्स 1 की नर्मी, बुरा हुआ 1स्पर्श
बिछड़ के डार से बन-बन फिरा वो हिरन को अपनी कस्तूरी सज़ा थी
कभी जो ख़्वाब था वो पा लिया है मगर जो खो गयी वो चीज़ क्या थी
मैं बचपन में खिलौने तोड़ता था मिरे अंजाम क...
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मरीज़े-ख़्वाब1 को तो अब शफ़ा2 है मगर दुनिया बड़ी कड़वी दवा थी
ऊँची इमारतों से मकां मेरा घिर गया कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज भी खा गए
कौन-सा शे’र सुनाऊँ मैं तुम्हें, सोचता हूँ नया मुब्हम1 है बहुत और पुराना मुश्किल
ख़ुदकुशी क्या दुःखों का हल बनती मौत के अपने सौ झमेले थे
सब का ख़ुशी से फ़ासला एक क़दम है हर घर में बस एक ही कमरा कम है
आओ अब हम इसके भी टुकड़े कर लें ढाका, रावलपिंडी और दिल्ली का चाँद
अपनी वजहे-बरबादी सुनिये तो मज़े की है ज़िंदगी से यूँ खेले जैसे दूसरे की है
इस शहर में जीने के अंदाज़ निराले हैं होठों पे लतीफ़े हैं आवाज़ में छाले हैं
वो ढल रहा है तो ये भी रंगत बदल रही है ज़मीन सूरज की उँगलियों से फिसल रही है
जो मुझको ज़िंदा जला रहे हैं वो बेख़बर हैं कि मेरी ज़ंजीर धीरे-धीरे पिघल रही है
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न जलने पाते थे जिसके चूल्हे भी हर सवेरे सुना है कल रात से वो बस्ती भी जल रही है
ख़्वाब के गाँव में पले हैं हम पानी छलनी में ले चले हैं हम
क्यूँ हैं कब तक हैं किसकी ख़ातिर हैं बड़े संजीदा3 मसअले4 हैं हम
गली में शोर था मातम था और होता क्या मैं घर में था मगर इस ग़ुल1 में कोई सोता क्या
इक कश्ती में एक क़दम ही रखते हैं कुछ लोगों की ऐसी आदत होती है
आज तारीख़1 तो दोहराती है ख़ुद को लकिन इसमें बेहतर जो थे वो हिस्से नहीं होते हैं।
हम दोनों जो हर्फ़2 थे हम इक रोज़ मिले इक लफ़्ज़3 बना और हमने इक माने4 पाए फिर जाने क्या हम पर गुज़री और अब यूँ है तुम इक हर्फ़ हो इक ख़ाने में मैं इक हर्फ़ हूँ इक ख़ाने में बीच में कितने लम्हों के ख़ाने ख़ाली हैं फिर से कोई लफ़्ज़ बने और हम दोनों इक माने पाएँ ऐसा हो सकता है लेकिन सोचना होगा इन ख़ाली ख़ानों में हमको भरना क्या है।
ये ग़म मेरी ज़रूरत है मैं अपने ग़म से ज़िंदा हूँ
ये तसल्ली है कि हैं नाशाद1 सब मैं अकेला ही नहीं बरबाद सब
जो पर समेटे तो इक शाख़ भी नहीं पाई खुले थे पर तो मिरा आसमान था सारा
वो साँप छोड़ दे डसना ये मैं भी कहता हूँ मगर न छोड़ेंगे लोग उसको गर न फुंकारा।
लो देख लो ये इश्क़ है ये वस्ल1 है ये हिज्र 2 अब लौट चलें आओ बहुत काम पड़ा है
बेदस्तोपा3 हूँ आज तो इल्ज़ाम किसको दूँ कल मैंने ही बुना था ये मेरा ही जाल है
उन चराग़ों में तेल ही कम था क्यों गिला 1 फिर हमें हवा से रहे
तुम्हें भी याद नहीं और मैं भी भूल गया वो लम्हा कितना हसीं था मगर फ़ुज़ूल1 गया
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एक खिलौना जोगी से खो गया था बचपन में ढूँढता फिरा उसको वो नगर-नगर तनहा
आगही1 से मिली है तनहाई आ मिरी जान मुझको धोखा दे