Tarkash (Hindi)
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Read between February 16 - April 23, 2018
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जग बीती सुनाऊँ या आप बीती”
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बहुत नाकामियों पर आप अपनी नाज़ करते हैं अभी देखी कहाँ हैं, आपने नाकामियाँ मेरी
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“मैं जिस दुनिया में रहता हूँ वो उस दुनिया की औरत है”—
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मैं अब जिस घर में रहता हूँ बहुत ही ख़ूबसूरत है मगर अकसर यहाँ ख़ामोश बैठा याद करता हूँ वो कमरा बात करता था।
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एक ये घर जिस घर में मेरा साज़ो-सामां रहता है एक वो घर जिसमें मेरी बूढ़ी नानी रहती थीं।
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ऊँची इमारतों से मकाँ मेरा घिर गया कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज भी खा गए
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मैं ठहरा ख़ुदग़रज़ बस इक अपनी ही ख़ातिर जीनेवाला मैं तुझसे किस मुँह से पूछूँ … पूछूँगा तो मुझ पर भी वह ज़िम्मेदारी आ जाएगी जिस से मैं बचता आया हूँ बेहतर है ख़ामोश रहूँ मैं …
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आओ अब हम इसके भी टुकड़े कर लें ढाका, रावलपिंडी और दिल्ली का चाँद
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गिन गिन के सिक्के हाथ मेरा खुरदुरा हुआ जाती रही वो लम्स 1 की नर्मी, बुरा हुआ
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मरीज़े-ख़्वाब1 को तो अब शफ़ा2 है मगर दुनिया बड़ी कड़वी दवा थी
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ऊँची इमारतों से मकां मेरा घिर गया कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज भी खा गए
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कौन-सा शे’र सुनाऊँ मैं तुम्हें, सोचता हूँ नया मुब्हम1 है बहुत और पुराना मुश्किल
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ख़ुशशक्ल1 भी है वो, ये अलग बात है, मगर हमको ज़हीन 2 लोग हमेशा अज़ीज़3 थे
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ख़ुदकुशी क्या दुःखों का हल बनती मौत के अपने सौ झमेले थे
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सब का ख़ुशी से फ़ासला एक क़दम है हर घर में बस एक ही कमरा कम है
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उन चराग़ों में तेल ही कम था क्यों गिला 1 फिर हमें हवा से रहे
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रात सर पर है और सफ़र बाक़ी हमको चलना ज़रा सवेरे था।
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सब हवाएँ ले गया मेरे समंदर की कोई और मुझको एक कश्ती बादबानी1 दे गया