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जग बीती सुनाऊँ या आप बीती”
बहुत नाकामियों पर आप अपनी नाज़ करते हैं अभी देखी कहाँ हैं, आपने नाकामियाँ मेरी
“मैं जिस दुनिया में रहता हूँ वो उस दुनिया की औरत है”—
मैं अब जिस घर में रहता हूँ बहुत ही ख़ूबसूरत है मगर अकसर यहाँ ख़ामोश बैठा याद करता हूँ वो कमरा बात करता था।
एक ये घर जिस घर में मेरा साज़ो-सामां रहता है एक वो घर जिसमें मेरी बूढ़ी नानी रहती थीं।
ऊँची इमारतों से मकाँ मेरा घिर गया कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज भी खा गए
मैं ठहरा ख़ुदग़रज़ बस इक अपनी ही ख़ातिर जीनेवाला मैं तुझसे किस मुँह से पूछूँ … पूछूँगा तो मुझ पर भी वह ज़िम्मेदारी आ जाएगी जिस से मैं बचता आया हूँ बेहतर है ख़ामोश रहूँ मैं …
आओ अब हम इसके भी टुकड़े कर लें ढाका, रावलपिंडी और दिल्ली का चाँद
गिन गिन के सिक्के हाथ मेरा खुरदुरा हुआ जाती रही वो लम्स 1 की नर्मी, बुरा हुआ
मरीज़े-ख़्वाब1 को तो अब शफ़ा2 है मगर दुनिया बड़ी कड़वी दवा थी
ऊँची इमारतों से मकां मेरा घिर गया कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज भी खा गए
कौन-सा शे’र सुनाऊँ मैं तुम्हें, सोचता हूँ नया मुब्हम1 है बहुत और पुराना मुश्किल
ख़ुशशक्ल1 भी है वो, ये अलग बात है, मगर हमको ज़हीन 2 लोग हमेशा अज़ीज़3 थे
ख़ुदकुशी क्या दुःखों का हल बनती मौत के अपने सौ झमेले थे
सब का ख़ुशी से फ़ासला एक क़दम है हर घर में बस एक ही कमरा कम है
उन चराग़ों में तेल ही कम था क्यों गिला 1 फिर हमें हवा से रहे
रात सर पर है और सफ़र बाक़ी हमको चलना ज़रा सवेरे था।
सब हवाएँ ले गया मेरे समंदर की कोई और मुझको एक कश्ती बादबानी1 दे गया

