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बहुत नाकामियों पर आप अपनी नाज़ करते हैं अभी देखी कहाँ हैं, आपने नाकामियाँ मेरी
कभी-कभी सब इत्तिफ़ाक़ लगता है। हम लोग किस बात पर घमंड करते हैं)।
आज इतने बरसों बाद जब अपनी ज़िंदगी को देखता हूँ तो लग़ता है कि पहाड़ों से झरने की तरह उतरती, चटानों से टकराती, पत्थरों में अपना रास्ता ढूँढती, उमड़ती, बलखाती, अनगिनत भँवर बनाती, तेज़ चलती और अपने ही किनारों को काटती हुई ये नदी अब मैदानों में आकर शांत और गहरी हो गई है।
“मैं जिस दुनिया में रहता हूँ वो उस दुनिया की औरत है”—ये पंक्ति अगर बरसों पहले ‘मज़ाज़’ ने किसी के लिए न लिखी होती तो मैं शबाना के लिए लिखता।

