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“मैं जिस दुनिया में रहता हूँ वो उस दुनिया की औरत ह
कभी जो ख़्वाब था वो पा लिया है मगर जो खो गयी वो चीज़ क्या थी
जिसे छू लूँ मैं वो हो जाए सोना तुझे देखा तो जाना बद्दुआ थ
कौन-सा शे’र सुनाऊँ मैं तुम्हें, सोचता हूँ नया मुब्हम1 है बहुत और पुराना मुश्किल 1उलझा हुआ
ख़ुशशक्ल1 भी है वो, ये अलग बात है, मगर हमको ज़हीन 2 लोग हमेशा अज़ीज़3 थ
ख़ुदकुशी क्या दुःखों का हल बनती मौत के अपने सौ झमेले थ
हमको उठना तो मुँह अँधेरे था लेकिन इक ख़्वाब हमको घेरे थ
सब का ख़ुशी से फ़ासला एक क़दम है हर घर में बस एक ही कमरा कम ह
अपनी वजहे-बरबादी सुनिये तो मज़े की है ज़िंदगी से यूँ खेले जैसे दूसरे की ह
इस शहर में जीने के अंदाज़ निराले हैं होठों पे लतीफ़े हैं आवाज़ में छाले ह
जो मुझको ज़िंदा जला रहे हैं वो बेख़बर हैं कि मेरी ज़ंजीर धीरे-धीरे पिघल रही ह
न जलने पाते थे जिसके चूल्हे भी हर सवेरे सुना है कल रात से वो बस्ती भी जल रही है
मैं जानता हूँ कि ख़ामशी1 में ही मस्लहत2 है मगर यही मस्लहत मिरे दिल को खल रही ह
गली में शोर था मातम था और होता क्या मैं घर में था मगर इस ग़ुल1 में कोई सोता क
ग़म होते हैं जहाँ ज़हानत होती है दुनिया में हर शय1 की क़ीमत होती ह
अकसर वो कहते हैं वो बस मेरे हैं अकसर क्यूँ कहते हैं हैरत होती ह
तब हम दोनों वक़्त चुरा कर लाते थे अब मिलते हैं जब...
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इक कश्ती में एक क़दम ही रखते हैं कुछ लोगों की ऐसी आदत होती ह
आज की दुनिया में जीने का क़रीना1 समझो जो मिलें प्यार से उन लोगों को ज़ीना2 स
कम से कम उसको देख लेते थे अब के सैलाब में वो पुल भी ग
ऐ सफ़र इतना रायगाँ1 तो न जा न हो मंज़िल कहीं तो पहुँचा द
ये तसल्ली है कि हैं नाशाद1 सब मैं अकेला ही नहीं बरबाद स
लो देख लो ये इश्क़ है ये वस्ल1 है ये हिज्र 2 अब लौट चलें आओ बहुत काम पड़ा ह
मैं ख़ुद भी सोचता हूँ ये क्या मेरा हाल है जिसका जवाब चाहिए वो क्या सवाल ह
वह शक्ल पिघली तो हर शय में ढल गई जैसे अजीब बात हुई है उसे भुलाने म
ग़ैरों को कब फ़ुरसत है दुख देने की जब होता है कोई हमदम होता ह
मिरे वुजूद1 से यूँ बेख़बर है वो जैसे वो एक धूपघड़ी है मैं रात का पल ह
उन चराग़ों में तेल ही कम था क्यों गिला 1 फिर हमें हवा से र
मेरी बुनियादों में कोई टेढ़ थी अपनी दीवारों को क्या इल्ज़ाम द
मैं भूल जाऊँ तुम्हें अब यही मुनासिब है मगर भुलाना भी चाहूँ तो किस तरह भूलूँ कि तुम तो फिर भी हक़ीक़त हो कोई ख़्वाब नहीं यहाँ तो दिल का ये आलम है क्या कहूँ कमबख़्त! भुला न पाया ये वो सिलसिला जो था ही नहीं वो इक ख़याल जो आवाज़ तक गया ही नहीं वो एक बात जो मैं कह नहीं सका तुमसे वो एक रब्त2 जो हममें कभी रहा ही नहीं मुझे है याद वो सब जो कभी हुआ ही न
तुम्हें भी याद नहीं और मैं भी भूल गया वो लम्हा कितना हसीं था मगर फ़ुज़ूल1 ग
आओ और न सोचो सोच के क्या पाओगे जितना भी समझे हो उतना पछताए हो जितना भी समझोगे उतना पछताओगे आओ और न सोचो सोच के क्या प
हमसे वादा था इक सवेरे का हाय कैसा मुकर गया स
दर्द के फूल भी खिलते हैं बिखर जाते हैं ज़ख़्म कैसे भी हों कुछ रोज़ में भर जाते ह
एक ये दिन जब लाखों ग़म और काल पड़ा है आँसू का एक वो दिन जब एक ज़रा सी बात पे नदियाँ बहती थ
रात सर पर है और सफ़र बाक़ी हमको चलना ज़रा सवेरे थ
दुख के जंगल में फिरते हैं कब से मारे मारे लोग जो होता है सह लेते हैं कैसे हैं बेचारे ल
बहाना ढूँढते रहते हैं कोई रोने का हमें ये शौक़ है क्या आस्तीं भिगोने का
अगर पलक पे है मोती तो ये नहीं काफ़ी हुनर भी चाहिए अल्फ़ाज़1 में पिरोने का