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‘आह !’ उन्होंने सोचा होगा, ‘तभी शिवपालगंज का ठीक से उद्धार नहीं हो रहा है। यही तो मैं कहूँ कि क्या बात है ?’
वह बेवकूफ़-सा दिखने लगा, क्योंकि वह जानता था चालाकी के हमले का मुकाबला किस तरह किया जाता है।
हें–हें–हें’’ कहकर प्रिंसिपल ने ऐसा प्रकट किया जैसे वे जान–बूझकर ऐसी मूर्खतापूर्ण बातें कर रहे हों। यह उनका ढंग था, जिसके द्वारा बेवकूफी करते–करते वे अपने श्रोताओं को यह भी जता देते थे कि मैं अपनी बेवकूफी से परिचित हूँ और इसीलिए बेवकूफ नहीं हूँ।
‘इन्क़लाब ज़िन्दाबाद’ के नारे लगने लगे। डिप्टी साहब वहीं कुर्सी दबाए ‘शान्ति–शान्ति’ चिल्लाते रहे। पर कहाँ की शान्ति और कहाँ की शकुन्तला
नज़दीक के गाँवों में जो प्रेम–सम्बन्ध आत्मा के स्तर पर क़ायम होते हैं उनकी व्याख्या इस जंगल में शरीर के स्तर पर होती है।
जोड़े घूमने के लिए आते हैं और एक–दूसरे को अपना क्रियात्मक ज्ञान दिखाकर और कभी–कभी लगे–हाथ मन्दिर में दर्शन करके, सिकुड़ता हुआ तन और फूलता हुआ मन लेकर वापस चले जाते हैं।
भारतीय नारीत्व इस समय फनफनाकर अपने खोल के बाहर आ गया था।
मुँह पर न घूँघट था, न लगाम थी।
वहाँ के सभी निवासी जानते थे कि अगर उनका पिछड़ापन छीन लिया गया तो उनके पास कुछ और न रह जाएगा।
इस देश में जैसे भुखमरी से किसी की मौत नहीं होती, वैसे ही छूत की बीमारियों से भी कोई नहीं मरता। लोग यों ही मर जाते हैं और झूठ–मूठ बेचारी बीमारियों का नाम लगा देते हैं।
उनकी असली उमर बासठ साल थी, काग़ज़ पर उनसठ साल थी और देखने में लगभग पचास साल थी।
बड़े–बड़े नेताओंवाला हाल है। वे भी बार–बार रिटायर होना चाहते हैं, पर उनके साथवाले उन्हें छोड़ते ही नहीं।’’
इन्स्पेक्टर साहब सोचते कि सरकारी नौकरी करके भी अगर काम करना पड़ा, तो ऐसी ज़िन्दगी पर लानत है।
उसे डर था कि अकेले रहने से पुलिस उसे छेड़ने लगेगी और कहीं ऐसा न हो कि उसे अपनी मुहब्बत में एकदम से जकड़ ले।
किसी ने उन्हें समझाने की कोशिश नहीं की। सभी जानते थे कि उन्हें समझाने का सिर्फ़ एक तरीक़ा है और वह कि उन्हें ज़मीन पर पटककर, और छाती पर चढ़कर, उनकी हड्डी–पसली तोड़ दी जाए।
पर मन्दिर को दूर से देखते ही उसे विश्वास हो गया कि अपने देशवासी समय के बारे में सिर्फ़ दो सही शब्द जानते हैं और वे हैं अनादि और अनन्त। इसके सिवाय वे लगभग पचहत्तर वर्ष पुराने मन्दिर को आसानी से गुप्तकाल या मौर्यकाल में धकेल सकते हैं।
‘बचाओ, बचाओ, मेरी भक्ति पर तर्क का हमला हो रहा है। बचाओ !’
लड़की दर्शन करके बाहर चली गई थी। रुप्पन बाबू की समझ में मेला खत्म हो गया था
उधर पुजारी पूजा कराने और पैसे बटोरने के कारोबार को रोककर पूरी तबीयत से रंगनाथ को गालियाँ देने लगा।
सनीचर ने भी कहा, ‘‘पढ़कर आदमी पढ़े–लिखे लोगों की तरह बोलने लगता है। बात करने का असली ढंग भूल जाता है। क्यों न जोगनाथ ?’’
कौन है साला दस–पाँच रुपये देनेवाला ? उधर के खोंचेवालों का चालान किया था, सब साले दो–दो रुपये टिकाने को तैयार हैं। हमने भी कहा कि चालान ही चाहते हो तो लो, वही किए देते हैं।’’
कुछ ज़्यादा पढ़े–लिखे हैं, इसलिए कभी–कभी उल्टी बातें करने लगते हैं
इसके बाद वह दुकानदार की ओर घूमकर बोला, ‘‘तुम्हारा क्या बयान है ?’’ दुकानदार चौकन्ना हो गया। उसका हाथ पीठ से अपने–आप ही हट गया। बोला, ‘‘बयान ? बयान तो मैं न दूँगा सरकार ! बयान तो तभी होगा जब हमारा वकील भी मौजूद होगा।’’ सिपाही ने धमकाकर कहा, ‘‘अबे, तेरा बयान कौन लिख रहा है ? मैं तो पूछता हूँ, हुआ क्या ?’’
छोटे पहलवान अपने को श्रवणकुमार की हालत में नहीं देखना चाहते थे। कन्धे पर काँवर रखे हुए माँ–बाप को इधर–उधर मुर्गों की तरह लटकाकर चलना एक शर्मनाक बात थी।
एक पंच ने कहा, ‘‘मगर साले कहना तो गाली है।’’ छोटे पहलवान दोबारा मुस्कराए, जैसे अपनी भलमनसाहत से अदालत का हृदय जीतना चाहते हों। बोले, ‘‘असली गाली अभी तुमने सुनी नहीं है पण्डितजी ! घुस जाती है तो कलेजा छिल जाता है।’’
छोटे ने खँखारकर इस भावना का समर्थन किया। सरपंच ने कहा, ‘‘बड़ी खाँसी आ रही है।’’ पहलवान बोले, ‘‘हमारे बाप राँड़ की तरह रो रहे हैं। इनकी बात सुन लो। हमारी खाँसी का हिसाब बाद में लगाना।’’
सरपंच ने मुस्कराकर कहा, “ मुक़दमे में भी नम्बर चलता है पहलवान ! पहले मुस्तगीस, फिर मुलज़िम। तुम्हारा भी नम्बर आएगा, घबराओ नहीं।’’ ‘‘घबरा कौन रहा है ? और तुम भी न घबराओ। भगवान् चाहेगा तो एक दिन तुम्हारा भी नम्बर आएगा।’’
सरपंचजी, घर पर मुझे लाठियों से मारा गया है और यहाँ तुम बातों से मार रहे हो ! यह कहाँ का इन्साफ़ है
सन्नाटा छा गया। चपरासी धीरे–से छप्पर के दूसरे कोने की ओर बिल्ली–जैसी छलाँग लगाकर छिप गया। सरपंचजी हक्का–बक्का हो गए। कुसहर ने सन्तोष की साँस ली। माला जपनेवाले पंच ने आँख मूँदकर कहा, ‘‘प्रभो !’’ छोटू वैसे ही दहाड़ते रहे, ‘‘ए प्रभो ! तुम्हारी माला–वाला तुम्हारे मुँह में खोंसकर पेट से निकालूँगा। यह प्रभो–प्रभोवाली फ़ंटूशी पिल्ल से निकल पड़ेगी। तुम भी हमारे बाप को गाली दे रहे थे ?’’
‘‘आप लोग पुराने आदमी हैं, हर बात को सही ढंग से सोचते हैं। पर उधर रामाधीन भीखमखेड़वी और कुछ लोग मामा की जगह किसी दूसरे को लाना चाहते हैं। पता नहीं, वे क्या सोचकर ऐसा कर रहे हैं !’’ गयादीन काँखने लगे। धीरे–से बोले, ‘‘तजुर्बा नहीं है। वे समझते हैं कि कोई दूसरा मैनेजर हो गया तो कुछ करके दिखा देगा, पर कहीं इस तरह से कुछ होता है ?’’
चुनाव के चोंचले में कुछ नहीं रखा है। नया आदमी चुनो, तो वह भी घटिया निकलता है। सब एक–जैसे हैं
तुम लोग भी कम नहीं हो। हाथ में हॉकी–डण्डे लिये घूम रहे हो और महात्मा गाँधी की औलाद बने हो।’’ लड़के ने कहा, ‘‘महात्मा गाँधी भी लाठी लेकर चलते थे, हम तो निहत्थे हैं। यह तो हॉकी की स्टिक है, इससे तो साला गेंद तक नहीं मरता
अभी लौंडे हो बेटा ! ऐसे मौक़ों पर समझदार आदमी ऐसी ही चाल चलता है।’’
अपने देश का कानून बहुत पक्का है, जैसा आदमी वैसी अदालत।’’
उन्हें बताता कि किस तरह तमंचे के ज़ोर से छंगामल विद्यालय इंटर कॉलिज की मैनेजरी हासिल की गई है और मेज़ पर हाथ पटककर कहता कि जिस मुल्क में इन छोटे–छोटे ओहदों के लिए ऐसा किया जाता है, वहाँ बड़े–बड़े ओहदों के लिए क्या नहीं किया जाता होगा। यह सब कहकर, उपसंहार में अंग्रेज़ी के चार ग़लत–सही जुमले बोलकर, वह कॉफ़ी का प्याला खाली कर देता और चैन से महसूस करता कि वह एक बुद्धिजीवी है और प्रजातन्त्र के हक में एक बेलौस व्याख्यान देकर और चार निकम्मे आदमियों के आगे अपने दिल का गुबार निकालकर उसने ‘क्राइसिस ऑफ़ फ़ेथ’ को दबा लिया है।
देखो दादा, यह तो पॉलिटिक्स है। इसमें बड़ा–बड़ा कमीनापन चलता है। यह तो कुछ भी नहीं हुआ। पिताजी जिस रास्ते में हैं उसमें इससे भी आगे कुछ करना पड़ता है। दुश्मन को, जैसे भी हो, चित करना चाहिए। यह न चित कर पाएँगे तो खुद चित हो जाएँगे और फिर बैठे चूरन की पुड़िया बाँधा करेंगे और कोई टका को भी न पूछेगा।
पता लगना मुश्किल था कि उसका मुँह ज़्यादा फटा हुआ है या अण्डरवियर। तात्पर्य यह कि इस समय सनीचर को देखकर यह साबित हो जाता था कि अगर हम खुश रहें तो गरीबी हमें दुखी नहीं कर सकती और ग़रीबी को मिटाने की असली योजना यही है कि हम बराबर खुश रहें।
ब्लाक से एक ए.डी.ओ. आकर बोले कि अपने खेत को अपना न कहो, सभी के खेतों को अपना कहो और अपने खेत को सभी का खेत कहो; तभी होगी सहकारी खेती और धाँसकर पैदा होगा अन्न।
प्रिंसिपल हँसने लगे। बोले, ‘‘बात ज़रा ऊँची खींच दी तुमने। समझदार की मौत है।’’ कहकर वे एक गड्ढे की ओर झाँकने लगे जैसे समझदार के मर जाने पर उसे वे वहीं दफ़न करेंगे।
सेकण्ड के एक खंड में उन लड़कों को देखते ही उनके बेतुकेपन से उन्होंने भाँप लिया कि ये विद्यार्थी हैं।
धिक्कार है मुझे, जो इस देश में पैदा होकर भी इतनी देर मुँह बन्द किए रहा !
मास्टर और लड़के ‘भाइयो और बहनो’ की नक़ल उतारते हुए अपने–अपने घर चले गए।
इसके बाद वैद्यजी ने देश की दुर्दशा पर एक व्याख्यान दे डाला था। व्याख्यान दे चुकने के बाद वे एकदम से शान्त नहीं हुए, थोड़ी देर भुनभुनाते रहे। अफ़सर भी, विनम्रता के बावजूद, भुनभुनाता रहा। फिर दूसरे लोग भी भुनभुनाने लगे। सनीचर का जलसा पहले ही खत्म हो चुका था, इसलिए इस भुनभुनाहट ने उसकी सफलता पर कोई असर नहीं डाला, पर अन्त में बोलबाला भुनभुनाहट का ही रहा।
इस तरह की भुनभुनाहट शहर में रहते हुए उसने हर समय, हर जगह सुनी थी। वह जानता था कि हमारा देश भुनभुनानेवालों का देश है।
लगभग सभी किसी–न–किसी तकलीफ़ में थे और कोई भी तकलीफ़ की जड़ में नहीं जाता था। तकलीफ़ का जो भी तात्कालिक कारण हाथ लगे, उसे पकड़कर भुनभुनाना शुरू कर देता था।
एक चवन्नी चाँदी की—जय बोल महात्मा गाँधी की ! नारा, सभी नारों की तरह, खोखला और निकम्मा है, क्योंकि चवन्नी की जगह अब पच्चीस पैसे चलते हैं। चवन्नी ख़त्म हो चुकी है, चाँदी ख़त्म हो चुकी है, महात्मा गाँधी ख़त्म हो चुके हैं।
हेड कांस्टेबिल ने उसे हाथ के इशारे से बुला लिया। वह इत्मीनान से चला आया। हेड कांस्टेबिल ने उसके कान में कहा, ‘‘भाग रहे थे ?’’ उसने बेधड़क होकर कहा, ‘‘भागता क्यों? सवेरे–सवेरे आप लोगों का मुँह देखने से बचना चाहता था।’’