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बैल अपनी क़ाबिलियत से नहीं, बल्कि अभ्यास के सहारे चुपचाप सड़क पर गाड़ी घसीटे लिये जा रहे थे
स्टेशन–वैगन से एक अफसरनुमा चपरासी और एक चपरासीनुमा अफसर उतरे
वर्तमान शिक्षा–पद्धति रास्ते में पड़ी हुई कुतिया है, जिसे कोई भी लात मार सकता है।
कहते–कहते उसकी आवाज़ में उन संन्यासियों की खनक आ गई जो पैसा हाथ से नहीं छूते, सिर्फ़ दूसरों को यह बताते हैं कि तुम्हारा पैसा हाथ का मैल है।
थोड़ी देर में ही धुँधलके में सड़क की पटरी पर दोनों ओर कुछ गठरियाँ–सी रखी हुई नज़र आईं। ये औरतें थीं, जो कतार बाँधकर बैठी हुई थीं। वे इत्मीनान से बातचीत करती हुई वायु–सेवन कर रही थीं और लगे–हाथ मल–मूत्र का विसर्जन भी। सड़क के नीचे घूरे पटे पड़े थे और उनकी बदबू के बोझ से शाम की हवा किसी गर्भवती की तरह अलसायी हुई–सी चल रही थी। कुछ दूरी पर कुत्तों के भूँकने की आवाज़ें हुईं। आँखों के आगे धुएँ के जाले उड़ते हुए नज़र आए। इससे इन्कार नहीं हो सकता था कि वे किसी गाँव के पास आ गए थे। यही शिवपालगंज था।
आजकल होते–होते कई महीने बीत गए। अब हुज़ूर हमारा चालान करने में देर न करें।’’
मध्यकाल का कोई सिंहासन रहा होगा जो अब घिसकर आरामकुर्सी बन गया था।
वह आदमी आरामकुर्सी के पास पड़े हुए एक प्रागैतिहासिक मोढ़े पर बैठ गया
दारोग़ाजी भुनभुनाते हुए किसी को गाली देने लगे। थोड़ी देर में उसका यह मतलब निकला
कि काम के मारे नाक में दम है।
इतना काम है कि सारा काम ठप्प पड़ा है।
यहाँ बैठकर अगर कोई चारों ओर निगाह दौड़ाता तो उसे मालूम होता, वह इतिहास के किसी कोने में खड़ा है।
हथियारों में कुछ प्राचीन राइफलें थीं जो, लगता था, गदर के दिनों में इस्तेमाल हुई होंगी। वैसे, सिपाहियों के साधारण प्रयोग के लिए बाँस की लाठी थी, जिसके बारे में एक कवि ने बताया है कि वह नदी–नाले पार करने में और झपटकर कुत्ते को मारने में उपयोगी साबित होती है।
थाने के अन्दर आते ही आदमी को लगता था कि उसे किसी ने उठाकर कई सौ साल पहले फेंक दिया है।
नंग–धड़ंग लंगोटबन्द आदमी दिखता जो सामने इमली के पेड़ के नीचे भंग घोट रहा होता। बाद में पता चलता कि वह अकेला आदमी बीस गाँवों की सुरक्षा के लिए तैनात है और जिस हालत में जहाँ है, वहाँ से उसी हालत में वह बीसों गाँवों में अपराध रोक सकता है, अपराध हो गया हो तो उसका पता लगा सकता है और अपराध न हुआ हो, तो उसे करा सकता है।
जिन रोमाण्टिक कवियों को बीते दिनों की याद सताती है, उन्हें कुछ दिन रोके रखने के लिए यह थाना आदर्श स्थान था।
हथियार देने से डर था कि गाँव में रहनेवाले असभ्य और बर्बर आदमी बन्दूकों का इस्तेमाल सीख जाएँगे, जिससे वे एक–दूसरे की हत्या करने लगेंगे, खून की नदियाँ बहने लगेंगी। जहाँ तक डाकुओं से उनकी सुरक्षा का सवाल था, वह दारोग़ाजी और उनके दस–बारह आदमियों की जादूगरी पर छोड़ दिया गया था।
रुप्पन बाबू के आते ही वे कुर्सी से खड़े हो गए और विनम्रता–सप्ताह बहुत पहले बीत जाने के बावजूद, उन्होंने विनम्रता के साथ हाथ मिलाया।
दारोग़ाजी मुस्कराकर बोले, ‘‘यह तो साहब बड़ी ज़्यादती है। कहाँ तो पहले के डाकू नदी–पहाड़ लाँघकर घर पर रुपया लेने आते थे, अब वे चाहते हैं कि कोई उन्हीं के घर जाकर रुपया दे आवे।’’
रिश्वत, चोरी, डकैती–अब तो सब एक हो गया है...पूरा साम्यवाद है !’’
रुप्पन बाबू काफ़ी देर हँसते रहे। दारोग़ाजी खुश होते रहे कि रुप्पन बाबू एक क़िस्से में ही खुश होकर हँसने लगे हैं, दूसरे की ज़रूरत नहीं पड़ी।
हँसना बन्द करके रुप्पन बाबू ने कहा, ‘‘तो आप उन्हीं बख्तावरसिंह के चेले हैं !’’ ‘‘था। आज़ादी मिलने के पहले था। पर अब तो हमें जनता की सेवा करनी है। गरीबों का दुख–दर्द बँटाना है। नागरिकों के लिए...।’’ रुप्पन बाबू उनकी बाँह छूकर बोले, ‘‘छोड़िए, यहाँ मुझे और आपको छोड़कर तीसरा कोई भी सुननेवाला नहीं है।’’
पढ़ने से, और खासतौर से दसवीं कक्षा में पढ़ने से, उन्हें बहुत प्रेम था; इसलिए वे उसमें पिछले तीन साल से पढ़ रहे थे।
उनकी नेतागिरी का प्रारम्भिक और अन्तिम क्षेत्र वहाँ का कॉलिज था, जहाँ उनका इशारा पाकर सैकड़ों विद्यार्थी तिल का ताड़ बना सकते थे और ज़रूरत पड़े तो उस पर चढ़ भी सकते थे।
इन्हीं सब इमारतों के मिले–जुले रूप को छंगामल विद्यालय इंटरमीजिएट कॉलिज, शिवपालगंज कहा जाता था। यहाँ से इंटरमीजिएट पास करनेवाले लड़के सिर्फ़ इमारत के आधार पर कह सकते थे कि हम शांतिनिकेतन से भी आगे हैं; हम असली भारतीय विद्यार्थी हैं; हम नहीं जानते कि बिजली क्या है, नल का पानी क्या है, पक्का फ़र्श किसको कहते हैं; सैनिटरी फिटिंग किस चिड़िया का नाम है। हमने विलायती तालीम तक देसी परम्परा में पायी है और इसीलिए हमें देखो, हम आज भी उतने ही प्राकृत हैं ! हमारे इतना पढ़ लेने पर भी हमारा पेशाब पेड़ के तने पर ही उतरता है, बन्द कमरे में ऊपर चढ़ जाता है।
देश में इंजीनियरों और डॉक्टरों की कमी है। कारण यह है कि इस देश के निवासी परम्परा से कवि हेैं। चीज़ को समझने के पहले वे उस पर मुग्ध होकर कविता कहते हैं। भाखड़ा–नंगल बाँध को देखकर वे कह सकते हैं, ‘‘अहा ! अपना चमत्कार दिखाने के लिए, देखो, प्रभु ने फिर से भारत–भूमि को ही चुना।’’
गालियों का मौलिक महत्त्व आवाज़ की ऊँचाई में है,
वे इस नाम को उसी सरलता से स्वीकार कर चुके थे, जैसे हमने जे. बी. कृपलानी के लिए आचार्यजी, जे. एल. नेहरू के लिए पण्डितजी या एम. के. गांधी
के लिए महात्माजी बतौर नाम स्वीकार कर लिया है।
हर हिन्दुस्तानी की यही हालत है। दो पैसे की जहाँ किफ़ायत हो, वह उधर ही मुँह
अन्न–वस्त्र की कमी की चीख़–पुकार, दंगे-फ़साद के चीत्कार, इन सबके तर्क के ऊपर सच्चा नेता जैसे सिर्फ़ आत्मा की आवाज़ सुनता है, और कुछ नहीं सुन पाता;
दुबला–पतला जिस्म, उसके कुछ अंश ख़ाकी हाफ़ पैंट और कमीज़ से ढके थे।
उन्होंने रोज़ सवेरे खेतों पर जाने से पहले अपने बाप से झगड़ा करने की परम्परा भी ख़त्म कर दी। इसकी जगह उन्होंने मासिक रूप से युद्ध करने का चलन चलाया।
चुपचाप उनकी गालियाँ सुनते रहते और महीने में एक बार उन पर दो–चार लाठियाँ झाड़कर फिर अपने काम में लग जाते।
वे बन्दरों की तरह खों–खों करते हुए एक–दूसरे पर झपटते, फिर बिना किसी के रोके हुए, अपने–आप रुक जाते। अगर उस समय कोई बाहरी आदमी रुककर उनकी ओर देखने लगता या शान्ति के फ़ाख्ते की तजवीज़ करता, तो दोनों खों–खों करते हुए एक साथ उसी पर झपट पड़ते।
छोटे पहलवान के जवान हो जाने पर बाप–बेटों ने शब्दों का प्रयोग बन्द ही कर दिया। अब वे उच्च कोटि के कलाकारों की तरह अपना अभिप्राय छापों, चिन्हों और बिम्बों की भाषा में प्रकट करने लगे।
सनीचर और तमाशबीन में लगभग एक बहस–सी हो गई। सनीचर की राय थी कि राधेलाल बड़ा काइयाँ है और शहर के वकील बड़े भोंदू हैं, तभी वे उसे जिरह में नहीं उखाड़ पाते। उधर तमाशबीन इसे चमत्कार और देवता के इष्ट के रूप में मानने पर तुला था। तर्क और आस्था की लड़ाई हो रही थी और कहने की ज़रूरत नहीं कि आस्था तर्क को दबाये दे रही थी।
सामने नीम के पेड़ पर बहुत–से तोते ‘टें–टें’ करते हुए उड़ रहे थे।
गुस्सा तो कमज़ोर का काम है।
एक बीवी थी जो मर चुकी थी।
रुप्पन बाबू रोज़ रात को सोने के पहले उसके शरीर का ध्यान करते थे और ध्यान को शुद्ध रखने के लिए उस समय वे सिर्फ़ शरीर को देखते थे, उस पर के कपड़े नहीं।
तब नागरिक–शास्त्र के मास्टर उन्हें गम्भीरता से बताने लगे कि उपाध्यक्ष की ताकत कितनी बड़ी है। इस विश्वास से कि गयादीन इस बारे में कुछ नहीं जानते, उन्होंने उपाध्यक्ष की हैसियत को भारत के संविधान के अनुसार बताना शुरू कर दिया, पर गयादीन जूते की नोक से ज़मीन पर एक गोल दायरा बनाते रहे जिसका अर्थ यह न था कि वे ज्योमेट्री के जानकार नहीं हैं, बल्कि इससे साफ़ ज़ाहिर होता था कि वे किसी फन्दे के बारे में सोच रहे हैं।
अचानक उन्होंने मास्टर को टोककर पूछा, ‘‘तो इसी बात पर बताओ मास्टर साहब, कि भारत के उपाध्यक्ष कौन हैं ?’’ यह सवाल सुनते ही मास्टरों में भगदड़ मच गई।
गाल फुलाकर वे भर्राये गले से बोले, ‘‘देश–भर में यही हाल है।’’ गला देश–भक्ति के कारण नहीं, खाँसी के कारण भर आया था।
मालवीय ने आवाज़ ऊँची करके कहा, ‘‘जी नहीं, बात यह नहीं है, पर हमसे देखा नहीं जाता कि जनता का रुपया इस तरह बरबाद हो। आखिर...’’ गयादीन ने तभी उनकी बात काट दी; उसी तरह धीरे–से बोले, ‘‘फिर आप किस तरह चाहते हैं कि जनता का रुपया बरबाद किया जाए ?
नहीं मास्टर साहब, जनता के रुपये के पीछे इतना सोच–विचार न करो; नहीं तो बड़ी तकलीफ़ उठानी पड़ेगी।’’ मालवीयजी को गयादीन की चिन्ताधारा बहुत ही गहन–सी जान पड़ी। गहन थी भी। वे अभी किनारे पर बालू ही में लोट रहे थे।
नैतिकता का नाम न लो मास्टर साहब, किसी ने सुन लिया तो चालान कर देगा।’’
और बोलो मास्टर साहब, खुद तुम्हें क्या तकलीफ़ है ? अब तक तो तुम सिर्फ़ जनता की तकलीफ़ बताते रहे हो।’’
गयादीन उसके गुस्से को दया के भाव से देखते रहे; समझ गए कि आज इसने उड़द की दाल खायी है।
अछूत एक प्रकार के दुपाये का नाम है जिसे लोग संविधान लागू होने से पहले छूते नहीं थे। संविधान एक कविता का नाम है जिसके अनुच्छेद 17 में छुआछूत खत्म कर दी गई है क्योंकि इस देश में लोग कविता के सहारे नहीं, बल्कि धर्म के सहारे रहते हैं और क्योंकि छुआछूत इस देश का एक धर्म है,