More on this book
Community
Kindle Notes & Highlights
सच तो यह है कि “यन्न भारते तन्न भारते” की कहावत अब भी बिलकुल खोखली नहीं हुई है। जब से मैंने महाभारत में भीष्म द्वारा कथित राजतंत्रहीन समाज एवं ध्वंसीकरण की नीति (स्कार्च्ड अर्थ पालिसी) का वर्णन पढ़ा है, तब से मेरी यह आस्था और भी बलवती हो गयी है।
“हम वहाँ पर हैं, महाभारत जहाँ दीखता है स्वप्न अन्तःशून्य-सा, जो घटित-सा तो कभी लगता, मगर, अर्थ जिसका अब न कोई याद है।
रुग्ण होना चाहता कोई नहीं, रोग लेकिन आ गया जब पास हो, तिक्त ओषधि के सिवा उपचार क्या? शमित होगा वह नहीं मिष्टान्न से।
और जब तूने उलझ कर व्यक्ति के सद्धर्म में क्लीव-सा देखा किया लज्जा-हरण निज नारि का, (द्रौपदी के साथ ही लज्जा हरी थी जा रही उस बड़े समुदाय की, जो पाण्डवों के साथ था) और तूने कुछ नहीं उपचार था उस दिन किया; सो बता क्या पुण्य था? या पुण्यमय था क्रोध वह, जल उठा था आग-सा जो लोचनों में भीम के?
शान्ति नहीं तब तक, जब तक सुख-भाग न नर का सम हो, नहीं किसी को बहुत अधिक हो, नहीं किसी को कम हो।
क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो। उसको क्या, जो दन्तहीन, विषरहित, विनीत, सरल हो?
जेता के विभूषण सहिष्णुता-क्षमा हैं, किन्तु हारी हुई जाति की सहिष्णुताऽभिशाप है।
श्रेय होगा मनुज का समता-विधायक ज्ञान, स्नेह-सिञ्वित न्याय पर नव विश्व का निर्माण। एक नर में अन्य का निःशंक, दृढ़ विश्वास, धर्मदीप्त मनुष्य का उज्ज्वल नया इतिहास– समर, शोषण, ह्रास की विरुदावली से हीन, पृष्ठ जिसका एक भी होगा न दग्ध, मलीन। मनुज का इतिहास, जो होगा सुधामय कोष, छलकता होगा सभी नर का जहाँ संतोष।
रश्मि-देश की राह यहाँ तम से होकर जाती है, उषा रोज रजनी के सिर पर चढ़ी हुई आती है। और कौन है, पड़ा नहीं जो कभी पाप-कारा में? किसके वसन नहीं भींगे वैतरणी की धारा में? अथ से ले इति तक किसका पथ रहा सदा उज्ज्वल है? तोड़ न सके तिमिर का बन्धन, इतना कौन अबल है?
“प्रकृति नहीं डर कर झुकती है कभी भाग्य के बल से, सदा हारती वह मनुष्य के उद्यम से; श्रमजल से।
इकबाल ने कहा है:– जो अक़्ल का गुलाम हो, वो दिल न कर क़बूल। गुज़र जा अक़्ल से आगे कि यह नूर चिराग़े-राह है, मंज़िल नहीं है।