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आत्मा का संग्राम आत्मा से और देह का संग्राम देह से जीता जाता है।
युद्ध के आरम्भ में स्वयं भगवान ने अंर्जुन से जो कुछ कहा था, उसका सारांश भी अन्याय के विरोध में तपस्या के प्रदर्शन का निवारण ही था।
युद्ध निन्दित और क्रूर कर्म है; किन्तु, उसका दायित्व किस पर होना चाहिए? उस पर, जो अनीतियों का जाल बिछाकर प्रतिकार को आमंत्रण देता है? या उस पर, जो जाल को छिन्न-भिन्न कर देने के लिए आतुर है? पाण्डवों को निर्वासित करके एक प्रकार की शांति की रचना तो दुर्योधन ने भी ...
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छीनता हो स्वत्व कोई, और तू त्याग-तप से काम ले यह पाप है। पुण्य है विच्छिन्न कर देना उसे बढ़ रहा तेरी तरफ जो हाथ हो।
युद्ध को तुम निन्द्य कहते हो, मगर, जब तलक हैं उठ रहीं चिनगारियाँ भिन्न स्वार्थों के कुलिश-संघर्ष की, युद्ध तब तक विश्व में अनिवार्य है।
व्यक्ति का है धर्म तप, करुणा, क्षमा, व्यक्ति की शोभा विनय भी, त्याग भी, किन्तु, उठता प्रश्न जब समुदाय का, भूलना पड़ता हमें तप-त्याग को।
त्याग, तप, करुणा, क्षमा से भींग कर, व्यक्ति का मन तो बली होता, मगर, हिंस्त्र पशु जब घेर लेते हैं उसे, काम आता है बलिष्ठ शरीर ही।
शान्ति नहीं तब तक, जब तक सुख-भाग न नर का सम हो, नहीं किसी को बहुत अधिक हो, नहीं किसी को कम हो।
न्याय शान्ति का प्रथम न्यास है, जबतक न्याय न आता, जैसा भी हो, महल शान्ति का सुदृढ़ नहीं रह पाता।
क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल, सबका लिया सहारा; पर नर-व्याघ्र सुयोधन तुमसे कहो, कहाँ कब हारा?
क्षमाशील हो रिपु-समक्ष तुम हुए विनत जितना ही, दुष्ट कौरवों ने तुमको कायर समझा उतना ही।
अत्याचार सहन करने का कुफल यही होता है, पौरुष का आतंक मनुज कोमल होकर खोता है। क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो। उसको क्या...
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तीन दिवस तक पन्थ माँगते रघुपति सिन्धु-किनारे, बैठे पढ़ते रहे छन्द अन...
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उत्तर में जब एक नाद भी उठा नहीं सागर से, उठी अधीर धधक पौरुष ...
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सिन्धु देह धर ‘त्राहि-त्राहि’ करता आ गिरा शरण में, चरण पूज, दासता ग्रहण क...
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सच पूछो, तो शर में ही बसती है दीप्ति विनय की, सन्धि-वचन संपूज्य उसी का...
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सहनशीलता, क्षमा, दया को तभी पूजता जग है, बल का दर्प चमकता उस...
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पापी कौन? मनुज से उसका न्याय चुराने वाला? याकि न्याय खोजते विघ्न का सीस उड़ाने वाला?
“पूजनीय को पूज्य मानने में जो बाधा-क्रम है, वही मनुज का अहंकार है, वही मनुज का भ्रम है।