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पाण्डवों को निर्वासित करके एक प्रकार की शांति की रचना तो दुर्योधन ने भी की थी; तो क्या युधिष्ठिर महाराज को इस शांति का भंग नहीं करना चाहिए था?
तप से, सहिष्णुता से, त्याग से सुयोधन को जीत, नयी नींव इतिहास की मैं धरता। और कहीं वज्र गलता न मेरी आह से जो, मेरे तप से नहीं सुयोधन सुधरता; तो भी हाय, यह रक्त-पात नहीं करता मैं, भाइयों के संग कहीं भीख माँग मरता।
पशु-खग भी न देख पायें जहाँ, छिप किसी कन्दरा में बैठ अश्रु खुलके बहाऊँगा;
युद्ध में मारे हुओं के सामने पाँच के सुख-दुख नहीं उदेश्य केवल मात्र थे!
सहनशीलता, क्षमा, दया को तभी पूजता जग है, बल का दर्प चमकता उसके पीछे जब जगमग है।
“बढ़ता हुआ बैर भीषण पाण्डव से दुर्योधन का मुझमें बिम्बित हुआ द्वन्द्व बनकर शरीर से मन का।
हो गया क्षार, जो द्वेष समर में हारा। जो जीत गया, वह पूज्य हुआ अंगारा। सच है, जय से जब रूप बदल सकता है, वध का कलंक मस्तक से टल सकता है–
तब कौन ग्लानि के साथ विजय को तोले, दृग-श्रवण मूँदकर अपना हृदय टटोले?
सावधान, मनुष्य! यदि विज्ञान है तलवार, तो इसे दे फेंक, तज कर मोह, स्मृति के पार। हो चुका है सिद्ध, है तू शिशु अभी नादान; फूल-काँटों की तुझे कुछ भी नहीं पहचान। खेल सकता तू नहीं ले हाथ में तलवार; काट लेगा अंग, तीखी है बड़ी यह धार।
“वह तो भाग छिपा चिन्तन में पीठ फेर कर रण से, विदा हो गये, पर, क्या इससे दाहक दुःख भुवन से?
“बचो युधिष्ठिर, कहीं डुबो दे तुम्हें न यह चिन्तन में, निष्क्रियता का धूम भयानक भर न जाय जीवन में। “यह विरक्ति निष्कर्म बुद्धि की ऐसी क्षिप्र लहर है, एक बार जो उड़ा, लौट सकता न पुन: वह घर है।
“पौधों से कहती यह, तुम मत बढ़ो, वृद्धि ही दुख है, आत्मा-नाश है मुक्ति महत्तम, मुरझाना ही सुख है। “सुविकच, स्वस्थ, सुरम्य सुमन को मरण-भीति दिखला कर, करती है रस-भंग, काल का भोजन उसे बता कर।
“श्री, सौन्दर्य, तेज, सुख, सबसे हीन बना देती है, यह विरक्ति मानव को दुर्बल, दीन बना देती है। “नहीं मात्र उत्साह-हरण करती नर के प्राणों से, लेती छीन प्रताप भुजा से और दीप्ति बाणों से।