है बहुत देखा-सुना मैंने मगर, भेद खुल पाया न धर्माधर्म का, आज तक ऐसा कि रेखा खींच कर बाँट दूँ मैं पुण्य को औ’ पाप को। जानता हूँ किन्तु, जीने के लिए चाहिए अंगार-जैसी वीरता, पाप हो सकता नही वह युद्ध है, जो खड़ा होता ज्वलित प्रतिशोध पर। छीनता हो स्वत्व कोई, और तू त्याग-तप से काम ले यह पाप है। पुण्य है विच्छिन्न कर देना उसे बढ़ रहा तेरी तरफ जो हाथ हो।