“प्रतिकार था ध्येय, तो पूर्ण हुआ, अब चाहिए क्या परितोष हमें? कुरु-पक्ष के तीन रथी जो बचे, उनके हित शेष न रोष हमें; यह माना, प्रचारित हो अरि से लड़ने में नहीं कुछ दोष हमें; पर, क्या अघ-बीच न देगा डुबो कुरु का यह वैभव-कोष हमें? “सब लोग कहेंगे, युधिष्ठिर दंभ से साधुता का व्रतधारी हुआ; अपकर्म में लीन हुआ, जब क्लेश उसे तप-त्याग का भारी हुआ; नरमेध में प्रस्तुत तुच्छ सुखों के निमित्त महा अविचारी हुआ। करुणा-व्रत-पालन में असमर्थ हो रौरव का अधिकारी हुआ।