कुरुक्षेत्र
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“हम वहाँ पर हैं, महाभारत जहाँ दीखता है स्वप्न अन्तःशून्य-सा, जो घटित-सा तो कभी लगता, मगर, अर्थ जिसका अब न कोई याद है।
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“आ गये हम पार, तुम उस पार हो; यह पराजय या कि जय किसकी हुई?
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और यह मृतक शरीर जो बचा है शेष, चुप-चुप, मानो, पूछता है मुझसे पुकार- विजय का एक उपहार मैं बचा हूँ, बोलो, जीत किसकी है और किसकी हुई है हार?
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है मृषा तेरे हृदय की जल्पना, युद्ध करना पुण्य या दुष्पाप है; क्योंकि कोई कर्म है ऐसा नहीं, जो स्वयं ही पुण्य हो या पाप हो।
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है बहुत देखा-सुना मैंने मगर, भेद खुल पाया न धर्माधर्म का, आज तक ऐसा कि रेखा खींच कर बाँट दूँ मैं पुण्य को औ’ पाप को। जानता हूँ किन्तु, जीने के लिए चाहिए अंगार-जैसी वीरता, पाप हो सकता नही वह युद्ध है, जो खड़ा होता ज्वलित प्रतिशोध पर। छीनता हो स्वत्व कोई, और तू त्याग-तप से काम ले यह पाप है। पुण्य है विच्छिन्न कर देना उसे बढ़ रहा तेरी तरफ जो हाथ हो।
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“मतिभ्रष्ट मानवों के शोध का उपाय एक शस्त्र ही है?” पूछा था कोमलमना वाम ने। नहीं प्रिये, सुधर मनुष्य सकता है तप, त्याग से भी,” उत्तर दिया था घनश्याम ने, “तप का परन्तु, वश चलता नहीं सदैव पतित समूह की कुवृत्तियों के सामने।”
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न्याय शान्ति का प्रथम न्यास है, जबतक न्याय न आता, जैसा भी हो, महल शान्ति का सुदृढ़ नहीं रह पाता।
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उसकी सहिष्णुता, क्षमा का है महत्त्व ही क्या, करना ही आता नहीं जिसको प्रहार है? करुणा, क्षमा को छोड़ और क्या उपाय उसे ले न सकता जो बैरियों से प्रतिकार है?
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“यौवन चलता सदा गर्व से सिर ताने, शर खींचे, झुकने लगता किन्तु क्षीणबल वय विवेक के नीचे।
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“प्रतिकार था ध्येय, तो पूर्ण हुआ, अब चाहिए क्या परितोष हमें? कुरु-पक्ष के तीन रथी जो बचे, उनके हित शेष न रोष हमें; यह माना, प्रचारित हो अरि से लड़ने में नहीं कुछ दोष हमें; पर, क्या अघ-बीच न देगा डुबो कुरु का यह वैभव-कोष हमें? “सब लोग कहेंगे, युधिष्ठिर दंभ से साधुता का व्रतधारी हुआ; अपकर्म में लीन हुआ, जब क्लेश उसे तप-त्याग का भारी हुआ; नरमेध में प्रस्तुत तुच्छ सुखों के निमित्त महा अविचारी हुआ। करुणा-व्रत-पालन में असमर्थ हो रौरव का अधिकारी हुआ।
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“कहिये मत दीप्ति इसे बल की, यह दारद है, रण का ज्वर है; यह दानवता की शिखा है मनुष्य में, राग की आग भयंकर है; यह बुद्धि-प्रमाद है, भ्रान्ति में सत्य को देख नहीं सकता नर है; कुरुवंश में आग लगी, तो उसे दिखता जलता अपना घर है।
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सृष्टि को निज बुद्धि से करता हुआ परिमेय, चीरता परमाणु की सत्ता असीम, अजेय, बुद्धि के पवमान में उड़ता हुआ असहाय जा रहा तू किस दिशा की ओर को निरुपाय? लक्ष्य क्या? उद्देश्य क्या? क्या अर्थ? यह नहीं यदि ज्ञात, तो विज्ञान का श्रम व्यर्थ।
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कर्मभूमि के निकट विरागी को प्रत्यागत पाकर बोले भीष्म युधिष्ठिर का ही मनोभाव दुहराकर। “अन्त नहीं नर-पंथ का, कुरुक्षेत्र की धूल, आँसू बरसें, तो यहीं खिले शान्ति का फूल।
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“पूछो किसी भाग्यवादी से, यदि विधि-अंक प्रबल है, पद पर क्यों देती न स्वयं वसुधा निज रतन उगल़ है? “उपजाता क्यों विभव प्रकृति को सींच-सींच वह जल से? क्यों न उठा लेता निज संचित कोष भाग्य के बल से?