मुसाफिर Cafe
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Read between July 24 - July 28, 2020
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बातें किताबों से बहुत पहले पैदा हो गई थीं। हमारे आस-पास बातों से भी पुराना शायद ही कुछ हो। बातों को जब पहली बार किसी ने संभाल के रखा होगा तब पहला पन्ना बना होगा। ऐसे ही पन्नों को जोड़कर पहली किताब बनी होगी। इसीलिए जिंदगी को सही से समझने के लिए किताबें ही नहीं बातें भी पढ़नी पड़ती हैं।
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पता नहीं दो लोग एक-दूसरे को छूकर कितना पास आ पाते हैं। हाँ, लेकिन इतना तय है कि बोलकर अक्सर लोग छूने से भी ज्यादा पास आ जाते हैं। इतना पास जहाँ छूकर पहुँचा ही नहीं जा सकता हो। किसी को छूकर जहाँ तक पहुँचा जा सकता है वहाँ पहुँचकर अक्सर पता चलता है कि हमने तो साथ चलना भी शुरू नहीं किया।
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की जा सकती।
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उनके किरदारों के नाम उधार ले लेना मेरे लिए ऐसा ही है जैसे मैंने उनके पैर छू लिए। मुझे धर्मवीर भारती जी को रेस्पेक्ट देने का यही तरीका ठीक लगा।
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कहानी लिखने की सबसे बड़ी कीमत लेखक यही चुकाता है कि कहानी लिखते-लिखते एक दिन वो खुद कहानी हो जाता है। पता नहीं इससे पहले किसी ने कहा है या नहीं लेकिन सबकुछ साफ-साफ लिखना लेखक का काम थोड़े न है! थोड़ा बहुत तो पढ़ने वाले को भी किताब पढ़ते हुए साथ में लिखना चाहिए। ऐसा नहीं होता तो हम किताब में अंडरलाइन नहीं करते। किताब की अंडरलाइन अक्सर वो फुल स्टॉप होता है जो लिखने वाले ने पढ़ने वाले के लिए छोड़ दिया होता है। अंडरलाइन करते ही किताब पूरी हो जाती है।
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बस, ये आखिरी बात बोलकर आपके और कहानी के बीच में नहीं आऊँगा। कहानियाँ कोई भी झूठ नहीं होतीं। या तो वो हो चुकी होती हैं या वो हो रही होती हैं या फिर वो होने वाली होती हैं।
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“हम पहले कभी मिले हैं?” सुधा ने बच्चों जैसी शरारती मुस्कुराहट के साथ कहा, “शायद!” “शायद! कहाँ?” मैंने पूछा।
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इस बार मेरी बात काटते हुए सुधा बोली, “दो मिनट के लिए मान लीजिए। हम किसी ऐसी किताब के किरदार हों जो अभी लिखी ही नहीं गई हो तो?” ये सुनकर मैंने चाय के कप से एक लंबी चुस्की ली और कहा, “मजाक अच्छा कर लेती हैं आप!”
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किताबें खरीदता ज्यादा हूँ पढ़ता कम।
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पहली हर चीज की बात हमेशा कुछ अलग होती है क्यूँकि पहला न हो तो दूसरा नहीं होता, दूसरा न हो तो तीसरा, इसीलिए पहला कदम ही जिंदगी भर रास्ते में मिलने वाली मंजिलें तय कर दिया करता है। पहली बार के बाद हम बस अपने आप को दोहराते हैं और हर बार दोहरने में बस वो पहली बार ढूँढ़ते हैं।
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‘What the fuck!’ लुक दिया।
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लाइफ है और हवस भी तुम्हारी.. I mean लाइफ तुम्हारी है।” ये
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‘what the हवस’ लु
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मुंबई में ऐसे तो प्ले के कई अड्डे हैं। उनमें से एक बड़ा अड्डा पृथ्वी थिएटर है और दूसरा NCPA थिएटर।
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मुंबई में एक कहानी से फिल्म बनने की दूरी इतनी ज्यादा है कि कई सपने चलते-चलते, भटकते-भटकते, ठोकरें खाते-खाते पहले ही दम तोड़ देते हैं।
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मुंबई में लोग एक वादे एक मीटिंग के भरोसे जिंदगी गुजार देते हैं। य
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“मुझे लगता है कि बस रोते हुए ही हम एक्टिंग नहीं करते।”
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“मसूरी में घुसते ही एक होटल है ‘Honeymoon Inn’ नाम का। बस जब पहली बार मसूरी गया था तभी डिसाइड कर लिया था कि वहीं जाऊँगा हनीमून मनाने।”
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“थोड़ा-सा पागल हुए बिना इस दुनिया को झेला नहीं जा सकता।”
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चंदर को सुधा की ये पागलपन वाली बात छू गई। ये सुनकर वो चुप हो गया। बातें जो हमें अच्छी लगती हैं वो हमें धीरे-धीरे सहलाकर शांत कर देती हैं।
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“Reached safely, nice meeting.” इस SMS के कई जवाब चंदर ने अपने मोबाइल पर टाइप किए लेकिन कोई भी जवाब भेजा नहीं। जिंदगी की कोई भी शुरुआत हिचकिचाहट से ही होती है। बहुत थोड़ा-सा घबराना इसीलिए जरूरी होता है क्यूँकि अगर थोड़ी भी घबराहट नहीं है तो या तो वो काम जरूरी नहीं है या फिर वो काम करने लायक ही नहीं है।
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असल में बातें हमेशा अधूरी ही रहती हैं। ऐसा तो कभी होता ही नहीं कि हम बोल पाएँ कि मेरी उससे जिंदगी भर की सारी बातें पूरी हो गईं। हम सभी अपने-अपने हिस्से की अधूरी बातों के साथ ही एक दिन यूँ ही मर जाएँगे।
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चंदर को ‘उस चुड़ैल से तो अच्छे ही हो तुम’ वाली लाइन में से केवल ‘अच्छे ही हो तुम’ बार-बार सुनाई पड़ रहा था। ऑटो में बाहर से हवा आकर धीरे-धीरे चंदर के चेहरे से होते हुए सुधा के चेहरे को टटोलकर देख रही थी। हवा खुश थी, ऑटो खुश था, सड़क खुश थी, शहर खुश था, चंदर थोड़ा-सा खुश था। चंदर की खुशी में थोड़ी-सी हिचकिचाहट बिखरी हुई थी।
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चंदर को बहुत देर तक नींद नहीं आई जैसे कि वो अपने घर पर नहीं किसी और के घर सोया हो।
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“इंडिया में 90% लड़के ऐसे सोचने में ही रह जाते हैं। वो कॉर्नर सीट की टिकट ले तो लेते हैं लेकिन कुछ कर नहीं पाते। बस पूरी फिल्म में बैठकर पॉपकॉर्न खाते हैं।”
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“जब भी confusion हो कि ये काम करना चाहिए या नहीं करना चाहिए या फिर कोई बात बोलनी चाहिए या नहीं बोलनी चाहिए तो बस, बिना ज्यादा कुछ सोचे वो काम कर के देख लेना चाहिए। वो
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चंदर को आज ऑफिस जाते हुए रास्ते में ये नहीं लग रहा था कि अपने G विंग के फ्लैट नंबर 1102 से ऑफिस जा रहा है। फ्लैट का थोड़ा-सा हिस्सा ‘घर’ हो चुका था।
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अ से a lot can happen over गोलगप्पे
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“दारू ले लो। बड़ी सैड स्टोरी लग रही है तुम्हारी। लव स्टोरी सैड हो या हैप्पी मैं बिना दारू के झेल नहीं पाती।”
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“बस इतनी-सी बात! उसको समझाना चाहिए था न कि मुंबई में रहने के लिए थोड़ी बेचैनी और थोड़ा पागलपन चाहिए।”
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“मुंबई की सबसे खराब बात यही है कि यहाँ अकेले रोने के लिए भी जगह बड़ी मुश्किल से मिलती है। वहाँ दोस्तों के साथ मैं सही से रो नहीं पाता था।”
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“क्या करती हो याद आती है तो?” “तो? सू सू आती है सू सू कर लेती हूँ। ऐसे ही याद आती है तो याद कर लेती हूँ।”
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असल में किसी को भी किसी दूसरे के सारी बातें कभी सही लग ही नहीं सकतीं। लेकिन सच ये है कि चंदर कभी नहीं चाहता था कि सुधा सिगरेट छोड़े क्यूँकि सिगरेट पीकर वो बड़ी ही सही बातें करती थी।
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“तुम्हें कभी नहीं छोड़ूँगी क्यूँकि तुम्हें कभी पकड़ा ही नहीं।”
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सूरज समंदर की प्याली में नमक जैसा घुल गया तब बोली-
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थोड़ा अजीब है लेकिन समंदर जितना बेचैन होता है हम उसके पास पहुँचकर उतना ही शांत हो जाते हैं। यही जिंदगी का हाल है पूरा बेचैन हुए बिना जैसे शांति मिल ही नहीं सकती।
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उसके होंठों पर जो समंदर चिपका हुआ था वो अब चंदर के गाल और कान पर थोड़ा-थोड़ा बिखर गया था। चंदर को अपने गालों पर गीला-गीला समंदर, रेत, सुधा, सुधा की साँसें और मोमेंट महसूस हुए। ठीक इस मोमेंट चंदर को जिंदगी से कोई शिकायत नहीं थी।
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या। कमरे में बाहर से बहुत थोड़ा-सा उजाला आ रहा था। इतना उजाला जो केवल बत्ती बंद होने के पाँच मिनट बाद दिखना शुरू होता है। बाहर के उजाले ने कमरे में घुसकर चंदर को परछाईं बना दिया। चंदर की परछाईं ने सुधा को छूकर उजाला कर दिया।
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“दिन भर पहने-पहने निशान पड़ जाता है।” चंदर ने निशान को महसूस किया और उसको अपनी सहलाहट से भरने की कोशिश करने लगा।
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कमरे के उजाले ने सुधा और चंदर की परछाइयों को मिलाकर एक कर दिया। चंदर और सुधा दोनों ने एक-दूसरे के समंदर को अपने होंठों से छुआ। ऐसे छुआ जिससे एक-दूसरे का कोई भी कोना सूखा न रहे। सुधा ने चंदर की महक से साँस ली। चंदर ने कमरे के अंधेरे को अपनी आँखों में भर लिया। कपड़ों ने अपने-आप को खुद ही आजाद कर लिया और कमरे के कोने में जाकर पसर गए। गद्दे पर जैसे चंदर और सुधा एक-दूसरे में घुले जा रहे थे, गद्दे के पास रखे दोनों के कपड़े एक-दूसरे में उलझे जा रहे थे। कपड़ों में थोड़ी-सी रेत, थोड़ी-सी शाम, थोड़ा उजाला और थोड़ा-सा समंदर था। चंदर और सुधा वो महसूस कर रहे थे जो दुनिया के पहले आदमी ने दुनिया की पहली औरत के साथ ...more
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प्यार जैसा शब्द खोजने के बाद दुनिया ने नए शब्द ढूँढ़ना बंद कर दिया जबकि दो लोग आपस में रोज कुछ ऐसा नया ढूँढ़ लेते हैं जिसको प्यार बोलकर छोटा नहीं किया जा सकता। चंदर सुधा में रोज नया शब्द ढूँढ़ रहा था और सुधा चंदर में रोज नयी किताब।
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“यार, मॉर्निंग केवल मॉर्निंग नहीं हो सकती, गुड बैड के चक्कर में क्या पड़ना?”
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चंदर और सुधा की बातें वैसी होती जा रही थीं जैसी एक स्टेज के बाद हो जाती हैं। जब बातों का कोई मतलब नहीं रह जाता, जब बातें बात बढ़ाने के लिए नहीं बस वक्त बढ़ाने के लिए की जाती हैं। दुनिया ने सालों से नयी बातें ढूँढ़ी नहीं है। बस हर बार बातें करने वाले लोग नए हो जाते हैं। इस दुनिया में जो कुछ भी महसूस करने लायक है उसे इस दुनिया के पहले आदमी औरत ने महसूस किया था और इस दुनिया के आखिरी आदमी औरत महसूस करेंगे। जिंदगी एक ऐसा राज़ है जो बिना जाने हर जेनेरेशन बस आगे बढ़ाते चले जाती है।
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“कोई और वजह दो शादी न करने की।” “बोरिंग हो तुम, आज तक तुमने प्यार के लिए प्रपोज भी नहीं किया और शादी करनी है।” “प्यार के लिए प्रोपोज करना कितना चीप लगता है!” “क्या चीप लगता है?” “यही ‘आइ लव यू’ बोलना। दुनिया में इससे ज्यादा बोरिंग कुछ नहीं होता। एक लड़का इससे ज्यादा बोरिंग कुछ नहीं बोल सकता। लड़की ‘लव यू टू’ से ज्यादा बोरिंग कुछ नहीं बोल सकती।”
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जो लोग प्यार में होते हैं वो अपने साथ एक शहर, एक दुनिया लेकर चलते हैं। वो शहर जो मूवी हॉल की भीड़ के बीच में कॉर्नर सीट पर बसा हुआ होता है, वो शहर जो मेट्रो की सीट पर आस-पास की नजरों को इग्नोर करता हुआ होता है। वो शहर जिसको केवल वो पहचान पाते हैं जिन्होंने कभी अपना शहर ढूँढ़ लिया होता है या फिर जिनका शहर खो चुका होता है। हम सभी ने अपने न जाने कितने शहर खो दिए हैं, इतने शहर जिनको जोड़कर एक नयी दुनिया बन सकती थी।
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दिन और रात दोनों रोज एक-दूसरे के करीब आते हैं लेकिन कभी ठहरकर एक नहीं हो पाते। ऐसे चंदर और सुधा थे।
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बस कोई बिना रोमांस वाला प्यार करे।
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। वो दिन क्यूँ आकर क्यूँ चले जाते हैं पता नहीं चलता। वो न हमारी कहानी आगे बढ़ाते हैं न ही कुछ बताते हैं। उन दिनों को अगर जिंदगी से हटाकर देखो तब कुछ अधूरा रह जाता है और अगर जोड़ दो तो भी कहानी पूरी नहीं बनती। कभी-कभार उदास शामें, उदास बातें भी करते रहना चाहिए।
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“प्यार के लिए सेक्स जरूरी है, सेक्स के लिए प्यार नहीं, डफर।”
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“क्यूँकि तुम्हारे हिसाब से प्यार के लिए सेक्स जरूरी है और सेक्स के लिए प्यार जरूरी है। मुझे लगता है शादी के लिए ये दोनों ही जरूरी नहीं हैं।” “तो एक काम करते हैं।” “क्या?” “ब्ला ब्ला ब्ला… कर लेते हैं।” जिंदगी की औकात बस ब्ला ब्ला ब्ला भर की है, हम ब्ला ब्ला ब्ला करने आते हैं और ब्ला ब्ला ब्ला करके चले जाते हैं।
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