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“बहुत हैं, मोस्टली सभी लड़के वन नाइट स्टैंड टाइप होते हैं कभी-न-कभी।”
“बस यही बोल के सब मूड ऑफ कर दिया तुमने, हमेशा कोई भी क्यूट नहीं लगता है। मुझे छोटे-मोटे क्यूट जैसे झूठ से ज्यादा नॉन क्यूट सच पसंद हैं। समझे? रोमांटिक फिल्में मत देखा करो, प्यार करना भूल जाओगे। क्या समझे?”
“और तुम कभी-कभी, लेकिन जब लगते हो तो बहुत लगते हो। कभी वन नाइट स्टैंड मत करना।” “किसी चीज के लिए मना मत किया करो, फिर वही करने का मन करता है मेरा, समझी कुछ?”
जिंदगी की सबसे अच्छी और खराब बात यही है कि ये हमेशा नहीं रहने वाली। ये बात एक उम्र के बाद हम सभी को समझ में आने लगती है कि दिन अच्छे हों या खराब, दोनों बीत जाते हैं। रोते हुए हम अपने सबसे करीब होते हैं और हँसते हुए दूसरों के।
“लाइफ बहुत छोटी है।” “बार-बार बोलने से बड़ी थोड़े हो जाएगी।” “लाइफ बहुत छोटी है।” “एक बार और बोला तुमने तो मर्डर करके लाइफ छोटी कर दूँगी तुम्हारी।”
“हर लाइफ का एक purpose होता है। वो purpose achieve करने के लिए।” “यही प्रॉब्लम है तुम्हारा। तुमने इस रटे हुए जवाब को अपना जवाब मान लिया है। इन्फैक्ट मोस्टली लोगों ने लाइफ के जवाब मान लिए हैं। जैसे स्कूल में मैथ्स के सवाल में x की वैल्यू मान लेते थे। लाइफ मैथ्स जैसी मुश्किल नहीं है। यहाँ मानने से नहीं जानने से काम चलता है।” “कई चीजें हम केवल मान के ही जान सकते हैं। सबकुछ जाना तो नहीं जा सकता। खैर, तुम मीनिंग ऑफ लाइफ बता रही थी। तो बताओ क्या होती है मीनिंग ऑफ लाइफ?” “लाइफ की कोई मीनिंग नहीं होती। उसमें मीनिंग डालना पड़ता है। कभी अपने पागलपन से तो कभी अपने सपनों से। Actually सपने आते ही केवल
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हम सभी की जिंदगी में एक दिन ऐसा आता ही है जब हम रोज सही पते पर पहुँचकर भी भटके हुए होते हैं। जब
“मैं मेहंदी लगवाने जा रही हूँ। हनीमून पे थोड़ा शादी वाला फील भी तो आना चाहिए न!” सुधा जिंदगी में जिंदगी की फील लेने के लिए कुछ भी कर सकती थी, इसी बात से चंदर थोड़ा डरता भी था। सुधा ने न सिर्फ हाथों में बल्कि अपने पैरों में भी मेहंदी लगवाई। लाल रंग की चूड़िया भी खरीदकर लाई। जब वो लौटी तो ठीक वैसी लग रही थी जैसी चंदर को अपने ख्यालों में दिखती थी।
बाथरूम देखकर ऐसा लग रहा था जैसे अगर यहाँ दो लोग साथ नहीं नहाएँ तो बाथरूम बुरा माने सो माने, छत से छन के झाँकती हुई धूप भी बुरा मान जाएगी।
सुधा चंदर के साथ बाथरूम, बाथरूम में आने वाली धूप, शावर का पानी, शैंपू, सोप सब साथ नहाए। नहाने के दौरान चंदर सुधा के बीच जो बातें हुईं, वो भी नहाईं। सुधा चंदर को जहाँ-जहाँ छूती जा रही थी चंदर का उतना हिस्सा नहाता जा रहा था। कुछ देर में दोनों नहाकर नये हो गए।
जो दिन तेजी से बीत जाते हैं, वो अच्छे होते हैं। अच्छे दिनों में रहते हुए कोई ठहर नहीं पाता और दिन बीतने के बाद के दिनों में वो ठहरना ढूँढ़ता है। जिंदगी असल में बस कुछ-न-कुछ ढूँढ़ते रहने की ही कहानी है। कुछ न मिला तो वो ढूँढ़ना है जो नहीं मिलता। जब वो मिल जाए तो वो कुछ नया ढूँढ़ना शुरू कर देना। जिस दिन हमें पता चल जाता है कि हम सही में क्या ढूँढ़ने आए हैं ठीक उसी दिन जिंदगी हमारी तरफ पहला कदम बढ़ाकर हमें ढूँढ़ना शुरू कर देती है।
जिनको कभी-कभी गुस्सा आता है उनको जब गुस्सा आता है तो वो कंट्रोल नहीं कर पाते। इसलिए थोड़ा-थोड़ा गुस्सा करते रहना चाहिए, रिश्तों और जिंदगी चलाते रहने के लिए अच्छा रहता है।
जिस ढर्रे पे जिंदगी चला करती है उसमें किसी को नाटक करना सीखने के लिए कोई ट्रेनिंग लेने की जरूरत नहीं होती। हर कोई कभी-न-कभी जिंदगी में जिंदगी का नाटक करता ही है।
हमारी असली यात्रा उस दिन शुरू होती है जिस दिन हमारा दुनिया की हर चीज से, हर रिश्ते से, भगवान पर से विश्वास उठ जाता है और यात्रा उस दिन खत्म होती है जिस दिन ये सारे विश्वास लौटकर हमें गले लगा लेते हैं। हम सब केवल किसी-न-किसी चीज में विश्वास करना सीखने के लिए पैदा होते हैं। भटकना मंजिल की पहली आहट है। कोई सही से भटक ही ले तो भी बहुत कुछ पा जाता है। सच्ची आजादी का कुल मतलब अपनी मर्जी से भटकना है।
थोड़ा अजीब है लेकिन हमारी जिंदगी के कई असली केवल इसीलिए असली हैं क्यूँकि वो अभी तक नकली साबित नहीं हुए हैं।
चंदर के कमरे में पहुँचते ही बिस्तर ने उठकर उसको गले लगा लिया। नींद उसका सिर सहलाने लगी। कंबल ने उसको ओढ़ लिया। कमरे के बाहर दिन शाम के साथ घुलकर रात को बुला रहा था। तारें टूट-टूटकर रात का अधूरापन भरने लगे। आवाजें झींगुर हो गईं। सबकुछ ठहर रहा था।
ठिकाना तो कोई भी शहर दे देता है, गहरी नींद कम शहर दे पाते हैं।
जिसमें रस्किन बॉन्ड की दो किताबें, मनोहर श्याम जोशी की ‘ट टा प्रोफेसर’, अज्ञेय की ‘शेखर एक जीवनी’, विनोद कुमार शुक्ल की ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’, भगवती चरण वर्मा की ‘चित्रलेखा’, धर्मवीर भारती की ‘गुनाहों का देवता’ और सुरेन्द्र वर्मा की ‘मुझे चाँद चाहिए’ थी। दु
किसी को समझना हो तो उसकी शेल्फ में लगी किताबों को देख लेना चाहिए, किसी कि आत्मा समझनी हो तो उन किताबों में लगी अंडरलाइन को पढ़ना चाहिए।
‘यदि प्रत्येक व्यक्ति अपनी जीवनी लिखने लगे तो संसार में सुंदर पुस्तकों की कमी न रहे’। इस लाइन को पढ़कर चंदर ने किताब के पन्ने को सहलाया और किताब के पन्ने ने वापिस चंदर को सहलाया।
अपनी जिंदगी के बारे में किताब की तरह सोचने से समझ में आता है कि हम रोज कैसी टुच्ची जिंदगी जीने के लिए मरे जा रहे हैं।
किताब और जिंदगी में बस लॉजिक भर का फर्क होता है। किताबों का अंत लॉजिकल होता है, जिंदगी का नहीं होता। जो लोग जिंदगी लॉजिक से ढूँढ़ते हैं उनके जवाब हमेशा गलत होते हैं। ये
ये सुनकर सामने रखी चाय की प्याली ने उठकर पम्मी का मुँह चूम लिया। धूप ने बढ़कर पम्मी के चेहरे को छू लिया। पम्मी के माथे के कुछ बाल हवा चलने की खुशी में लहराकर धूप से खेलने लगे।
“लेकिन तुम मुझे जानते भी नहीं सही से।” “उससे फर्क नहीं पड़ता, तुम मुझे भी तो सही से नहीं जानती। तुम अपने आपको अच्छे से जानती हो न वो काफी है।”
जिनके पास खोने के लिए कुछ नहीं होता वो फैसले जल्दी ले लिया करते हैं।
“शादी का सोचते ही हमारी बातें बोरिंग होने लगीं। तुम मानो या न मानो लेकिन शादी by design थोड़ी बोरिंग होती है। शादी के बोरिंग होने में दोनों लोगों की कोई गलती नहीं होती, it’s design fault you know!”
“फिर तो मिल चुका तुम्हें कोई। वैसे भी हम बातों से नहीं दूसरे की आदतों से बोर होते हैं। जब कोई ऐसा मिले जिसकी आदतों से बोर न हो तब झट से कर लेना शादी या फिर जब किसी के साथ रहते हुए शादी की जरूरत ही महसूस न हो तब करना शादी।”
कई चोटें इसलिए निशान छोड़कर जाती हैं ताकि हम अपनी सब गलतियाँ भूल न जाएँ। गलतियाँ सुधारनी जरूर चाहिए लेकिन मिटानी नहीं चाहिए। गलतियाँ वो पगडंडियाँ होती हैं जो बताती रहती हैं कि हमने शुरू कहाँ से किया था।
“पता है हमें किसके साथ जिंदगी गुजारनी चाहिए?” “किसके साथ?” “बचपन में हमने माचिस की डिबिया में घर की खिड़की के कोने से आनी वाली धूप को छुपाकर रखा होता है। तुमने भी रखा होगा!” “हाँ, रखा था तो उससे जिंदगी गुजारने का क्या रिश्ता है?” “बस जिस दिन तुम्हें अपने अलावा कोई दूसरा ऐसा मिल जाए जो तुम्हारी माचिस की डिबिया बिना खोले ही मान ले कि धूप अभी भी वहाँ डिबिया में होगी तब सोचना नहीं, उसके साथ जिंदगी गुजार लेना।” “और ऐसा कोई मिला ही नहीं तो?” “तो क्या?” “कोई ऐसा मिला ही नहीं तो?” “तो अपनी माचिस की डिबिया खोलकर थोड़ी-सी धूप चख लेना।”
जो move on नहीं कर पाते वो प्यार की असली यात्रा पर निकलते हैं। जिनके आँसू न बहते हैं, न सूखते हैं, वो जिंदगी को करीब से समझ पाते हैं। जिनको गहरी नींद नहीं आती वो समझ पाते हैं कि दुनिया में सुबह से अच्छा कुछ होता ही नहीं। किसी भी चीज को हम सही से समझ ही तब सकते हैं जब हम उसको पाकर खो दें। पाकर पाए रहने वाले अक्सर चूक जाया करते हैं।
अकेले फिल्म जाने में वही फिल्म अलग दिखती है। अंधेरे कमरे में पर्दे पर पूरी फिल्म के दौरान अपनी जिंदगी के कुछ भूले-बिसरे सीन भी दिखाई पड़ते हैं।
रास्ते केवल वो भटकते हैं जिनको रास्ता पता हो, जिनको रास्ता पता ही नहीं होता उनके भटकने को भटकना नहीं बोला जाता है।
हमारे सब जवाब हमारे पास खुद हैं, ये बात समझने के लिए अपने हिस्से भर की दुनिया भटकनी पड़ती ही है। बिना भटके मिली हुई मंजिलें और जवाब दोनों ही नकली होते हैं। वैसे भी जिंदगी की मंजिल भटकना है कहीं पहुँचना नहीं।