रिज़र्व बैंक की भूमिका



बैंकिंग सुविधा आज के परिवेश में सफल योजना मानी जाती है. आज देशभर में सौ से अधिक बैंकों की स्थापना हो चुकी है तथा बैंकों की लाखों शाखाएं देशभर में कार्य कर रही हैं. रिज़र्व बैंक की स्थापना 1 अप्रैल सन्‌ 1935 को एक अंग्रेज़ द्वारा की गयी थी. 
 इस बैंक का मुख्य कार्यालय भारत देश की वाणिज्य राजधानी मुंबई में है. बैंक का विशालकाय भवन सम्पूर्ण देश के वित्त, अर्थ एवं व्यापार को चलाता है अर्थात् देश के हर छोटे-बड़े बैंकिंग खाते रिज़र्व बैंक के पब्लिक डीलिंग कक्ष से गुज़रते हैं. भारत देश के बड़े–बड़े शहरोंमें रिज़र्व बैंक की शाखाएं हैं.  यह निश्चित है कि रिज़र्व बैंक की भूमिका बैंकिंग क्षेत्र में विशिष्ट रूप से मानी जाती है. रिज़र्व बैंक बहुत सारे काम करता है, परन्तु सबसे बड़ा महत्व का काम है रुपये छापना और उसे जारी करना. परन्तु इस कार्य के लिए रिज़र्व बैंक को अपनी कस्टडी में विशिष्ट प्रकार की रकम, सोना व विदेशी मुद्रा डिपाज़िट के रूप में रखनी पड़ती है. इसका निर्णय बैंक सदस्यों एवं बोर्ड द्वारा 1957में लिया गया. इसी कारण इस बैंक पर अन्य बैंकों को विश्वास करना पड़ता है जबकि यह सारा कार्य भारत सरकार के अधीन है और भारत सरकार इसके लिए एक गवर्नर नियुक्त करता है. जिस दिन इस बैंक की स्थापना हुई थी उस दिन इस बैंक के पहले गवर्नर एक अंग्रेज़ व्यक्ति नियुक्त हुए थे. उनका नाम था ‘सर ऑस्बॉर्न स्मिथ’. 

उसके तीन वर्ष बाद अर्थात् सन्‌ 1938में बैंक ने नोटों का चलन कैसे अमल में लाया जाए इस पर निर्णय लिया और बाद में रुपये छापने लगे. पश्चात् लोगों को धन की महत्ता समझ में आने लगी. परन्तु इसका विपरीत परिणाम होने लगा. अगले सात वर्षों में अर्थात् सन्‌ 1945 में देश के धनी परिवार सट्टेबाज़ी करने लगे और सट्टेबाज़ी का प्रमाण बढ़ता गया जिसमें रुपयों का काला बाज़ार होने लगा. इसके लिए रिज़र्व बैंक के बोर्ड ने पर्याप्त उपाय सोचकर उचित निर्णय लिया और जनवरी 1946 में बाज़ार में चलने वाले 500, 1000 व 10,000 के बड़े नोट बंद कर दिए गए. उस समय अफरा-तफरी मच गयी. परन्तु काला बाज़ार, सट्टेबाज़ी तथा लोगों द्वारा रुपयों के प्रति बेजवाबदारी ख़त्म हुई. 
उसके बाद बैंक के सामने दो प्रश्न खड़े हो गए – एक अपनी शाखाओं का राष्ट्रीयकरण और दूसरा रुपयों का अवमूल्यन. इस आपाधापी में उप बैंक खोलने का प्रस्ताव सामने आया. सन्‌ 1949 में बैंक ने अपना राष्ट्रीयकरण घोषित किया तथा कुछ प्रतिशत से रुपयों का अवमूल्यन भी किया गया.
रिज़र्व बैंक के इतिहास में यह लिखा हुआ है कि सन्‌ 1960 में बड़ी पूँजी वाली लक्ष्मी बैंक का दिवाला निकल गया और वह डूब गयी. जब बड़ी बैंक डूब गयी तो उसका धरातल देखकर उससे छोटी अनेक बैंक भी डूबने लगीं. रिज़र्व बैंक के अधिकारियों की समझ में आ गया कि उसका दीवाला न निकले, क्योंकि रिज़र्व बैंक सभी बैंकों का स्टैंड था. इसलिए रिज़र्व बैंक ने सभी बैंकों से अपने पास कालावधि के आधार पर डिपाजिट व्यवस्था आरम्भ करने के आदेश दिए और उस पूँजी पर बीमा सुविधाएं प्रदान की जाने लगीं. 1960 से लेकर 1968 तक 200 से अधिक संख्या में छोटी बैंक डूब गयीं थीं. इसमें जनता का हित देखकर दूसरी बड़ी बैंकों में छोटी बैंकों ने विलय किया. परन्तु इसमें सबसे महत्वपूर्ण भूमिका रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया का ही रहा था. रही-सही बैंकों का विकास देखकर एवं बैंकों का तालमेल देखकर जुलाई 1969 में 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुआ. राष्ट्रीयकरण होने के बाद राष्ट्रीय बैंकों का विस्तार होने लगा.
धीरे-धीरे देश का विकास होने लगा. इससे पहले भारत के लोग बैंकिंग व्यवस्था को समझ नहीं पाये थे. परन्तु जबसे बैंकों में व्यक्तिगत बचत खाते खुलने लगे तब से लोगों का पैसा बैंकों में जमा होने लगा. ईमानदार एवं सभ्य ग्राहकों को ऋण की सुविधाएं प्राप्त होने लगीं. यह व्यवस्था वाहन खरीदने के लिए की जाने लगीं. जिससे ऑटो कारखानों का उत्पादन बढ़ने लगा. पर तुरंत ही खनिज़ तेलों की कीमतें बढ़ने लगीं. बैंकों की भाषा में कॉल मनी के रेट भी बढ़ने लगे. परन्तु इसे नियंत्रण में लाया गया. 
इस तरह रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया समाज के लिए एवं देश की अर्थव्यवस्था सुधारने के लिए बहुत अच्छा काम कर रहा है. रिज़र्व बैंक को 80 वर्ष पूर्ण होने वाले हैं. वित्तीय क्षेत्र में 80 वर्ष का यह प्रतिष्ठान आज पूरे भारत देश में स्तम्भ की भाँती खड़ा है और इस स्तम्भ से हम सभी व्यक्तिगत लाभ उठा सकते हैं. यदि ऐसे संस्थान से हम किसी भी प्रकार से अनभिज्ञ हैं तो यह हमारी अज्ञानता है.
 'अभिव्यक्ति' पुस्तक से
- साहित्यकार लक्ष्मण राव 
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Published on March 17, 2015 05:42
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