महज़, सच

बेहतरीन!
डॉ. कुमार विश्वाश और अरविन्द केजरीवाल की दो बात से मैं सहमत हूँ, यही मेरे पिता का व्यक्तित्व रहा है जिसकी मैं प्रत्याषी रूप से साक्षी हूँ और  इसी "सच" के सफ़र में किस भट्टी में मैं तपी हूँ इसके वह साक्षी हैं, बस यही एक बात जिसकी मैंने धुनि रमाई हुई है "सच और ईमानदारी" इसपर चलने वालो को ना ही कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है बल्कि एक लंबा संघर्षपूर्ण जीवन जीना पड़ता है दूसरा "अहंकार".. कहावत है "अकड़ तो केवल मुर्दों में होती है और सूखी लकड़ी ही जल्दी टूटती है"

रोटी के पहले निवाले के साथ ही जैसे ही सुना केजरीवाल की हिदायत "साथियो घमंड मत करना, मुझे डर भी लग रहा है "और विश्वाश साहब का ट्वीट "सम्मान के साथ बीजेपी का विपक्ष में स्वागत है" मुंह से बस एक शब्द निकला "वाह"

मैंने लगातार तीसरी बार केजरीवाल को वोट दिया है यह सोच कर नहीं की जीत होगी या हार बल्कि यह सोच कर की हर "आम आदमी" की यही सोच होती है, वह ही सबसे बड़ा भक्षक है और सबसे बड़ा रक्षक भी।

निरंतर प्रयास करने से क्या नहीं मिलता, देर से ही सही, कम ही सही लेकिन आत्म संतुष्टि और आत्मविश्वाश से परिपूर्ण जीवन जिसमे हम सर उठा कर और नज़रे मिला कर सबके सामने खड़े हो सकते हैं..

सत्य बोलने में जो आनंद है वो बेईमानी और झूठ बोलने में कहाँ, एक झूठ बोल कर, ना जाने आप ज़िन्दगी में क्या खो बैठे और आपकी वजह से किसी को ना जाने कितनी तकलीफों का सामना करना पड़े।

सामाजिक परिधि तो अंतहीन है, सूक्ष्म रूप से केवल अपने रिश्तों को ही देख लें आप खुद ही भांप जाएंगे.. जिन लोगो को आपने खो दिया, जिस तकलीफ का आपने सामना किया, पीढ़ा की जिस अग्नि में आप जले उसके बाद आपको आत्मग्लानि होती है, उन रिश्तों को खोने का पश्चाताप होता है, आप अपमान सहते हैं, आप विश्वाश खोते हैं, आप किसी ना किसी बहाने से खुद को ही झूठ बोल कर, अपनी कुंठा और अपने अंदर के विनाशक को दबाने के लिए, जीने के लिए, खुद को धोखे में रखते हैं की आप सही थे या समय खराब था..  या आपको उस दर्द और लंबे संघर्ष के बाद आपका आत्मविश्वाश अधिक गहरा हो जाता है, आप और विनम्र हो जाते हैं और दुसरे के दर्द को समझ पाते हैं, उनको भी माफ़ कर देते हैं जिनके कारण आपको कष्ट सहना पड़ा और साथ ही इश्वर पर और भरोसा होता चला जाता है और आप समझ जाते हैं की आपको ज़िन्दगी के कुछ मूल सिखाने के लिए उसे चाबुक चलाने ज़रूरी थे..

पश्चाताप के आंसू नहीं, रह जाती है तो केवल मुस्कराहट की "असली सफ़र तो अब शुरू हुआ है, अब तक तो बस  गिर कर घुटनो के बल रेंग रहे थे, खड़े हुए हैं अभी दौड़ना बाकी है"

मंजिल तक पहुँचने में जो लोग रास्ते में छोड़ गए या छूट गए वो अगर "सच" बोलने के कारण अलग हुए तो यकीं मानिए वापस ज़रूर आएंगे और यदि आपने "झूठ" बोलकर उनको खो दिया तो कर्मो से ठीक कीजिये ना की बातों से, आखिर कब तक अपने आपको फन्नेखां समझेंगे? जब काँधे पर ले जाने वाले भी नहीं बचेंगे तब?

खैर, यह तो सियासी पारी का आगाज़ मात्र है, अगर "आम" बने रहे तो दर्द भी मिलते रहेंगे और जीत के अंजामी ब्युगल भी बजते रहेंगे, और लोग आपके मुरीद होते रहेंगे..

चलती हूँ, नमस्ते!

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Published on February 10, 2015 08:49
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