मेरे मन के तर्क....ज़िन्दगी जब-तब बेरहम बनती रही इसे बड़ा क...



मेरे मन के तर्क....

ज़िन्दगी जब-तब बेरहम बनती रही इसे बड़ा करने को, पर मन भी ज़िद पर अड़ा रहा बच्चा ही बना रहने को |


सपनों की रेज़गारी जोड़ता रहा मिट्टी की कच्ची गुल्लक में ,ज़िन्दगी दौलत मानती रही सिर में चांदी इकट्ठी होने को |


गुल्लक कई बार टूटी, सपने बिखरे, कुछ खो भी गए, लेकिन,दो ही रूपये बस और लगे उसे इस मायूसी से उबरने को |
मन कहता रहा, साँसें खर्च कर खुशियां दुहना महंगा है,मैं तो गुल्लक हिला हिला कर सपने गिराता हूँ खर्चने को |
जीना नहीं कहते पलों को भुखमरों की तरह निगलने को,चबाओ, स्वाद लो, पेट ही नहीं, मन भी अपना भरने दो |
बचकाने ख़्वाबों का नूर आँखों में बसा लो, उन्हें चमकने दो,चाँद चाहिए न, उठो, लपको, ख्वाहिश को क्यों घुटने दो |
दिल चाहे जब तक श्रृंगार की कविता ही उसे रचने दो, उदास लफ़्ज़ों को जोड़कर करुणा का जाला मत लगने दो |
 •  0 comments  •  flag
Share on Twitter
Published on September 11, 2014 19:26
No comments have been added yet.