कविता यूँ ही नहीं बन पाती यूँ ही कभी भी कलम कागज़ लेकर बैठ...

कविता यूँ ही नहीं बन पाती

यूँ ही कभी भी कलम कागज़ लेकर बैठ जाऊं,
और स्वतः ही बह निकले एक अद्भुत कविता,
ऐसा हो नहीं पाता |
कितना भी प्रयास कर लूँ,
किन्तु अब भी शब्द कविता के दास हैं,
न मेरे, न ही शब्दों की दास है मेरी कविता |

इधर उधर से शब्दों को बीन बीन कर,
तुकबंदी के गारे में चिन-चिन कर,
कहाँ कविता जन्म ले पाती है ?

शब्द तो पाषाण होते हैं,
भावनाओं को राम नाम की तरह,
लिखा जाता है जब उन पर,
तभी वह हृदय-सागर में तैर पाते हैं |
और हमारे उद्गारों और पाठकों के बीच,
समुन्द्र-सेतु सा मार्ग बना पाते हैं |

मोती की तरह चुनना होता है शब्दों को,
फिर पिरोना होता है संवेदनाओं के धागे में,
तभी तो हृदय-स्पर्शी कविता
जन्म ले पाती है |

                           गौरव शर्मा
 •  0 comments  •  flag
Share on Twitter
Published on July 25, 2014 20:33
No comments have been added yet.