समाज में एक वो तबका भी है जिनके दो चेहरे होते है, एक घर-बंद दरवाज़ो के बाहर का चेहरा और दूसरा घिनौना चेहरा जिसकी शिकार कोई असहाय या उस व्यक्ति पर बहुत विश्वास करने वाली या उसकी अपनी पत्नी जो इसको दिनचर्या का हिस्सा मान लेती है। मामले सामने आने पर कभी-कभी पीड़ित को ही दोषी । जिसे सही-गलत कि समझ नहीं उस समाज कि क्यों चिंता करना? ये कविता मेरी ऐसी ही बहनो पर हैजो चुप-चाप घुटबना दिया जाता है जिस डर से कई स्त्रियां ये बात अपने तक रख कर खुद में घुटती रहती है। हाँ, कहना आसान और करना मुश्किल पर अपने लि...
Published on February 08, 2014 03:34