वेब सीरीज जुबिली का मीन-मेख
इससे पहले कि आप मेरी तरफ से जुबिली की मीन-मेख पढें, पहली बात, जुबिली देखी जा सकती है. सीरीज अच्छी है. लेकिन...
यह लेकिन शब्द जो है, वह आगे कई मीन-मेखों, छिद्रान्वेषणों के लिए इस्तेमाल किया जाएगा. तो जिनको जुबिली बहुत पसंद आई हो, वे लोग आगे न पढ़ें. जिनको परपीड़ा से सुख मिलता है, पढ़ते रहें. जुबिली भले ही फिल्मों की कहानी से जुड़ी है, पर यह धीमी है, और यह आपको उदासियों से भर देगा.
दूसरी बात, (पहली बात मैंने पहली लाईन में ही कह दी है) कि किसी भी सीरीज को सिर्फ इसलिए नहीं देखा जा सकता है, या देखा जाना चाहिए कि निर्देशक विक्रमादित्य मोटवाणी है. बेशक, मोटवाणी पाए के निर्देशक हैं. काम सलीके से करते हैं. लेकिन...
लेकिन, जुबिली में कई लूप होल्स निर्देशक महोदय ने छोड़े हैं. फिल्मों पर आधारित सीरीज को जरूरत से ज्यादा फिल्मी बनाना हो, और कई चीज को तो इतनी बार दोहराया गया है कि ऊबाऊ होने लगती है चीजें.
मसलन, मदन कुमार के स्क्रीन टेस्ट को इतनी बार दोहराया गया है कि फॉरवर्ड करके देखना पड़ा. पहले एपिसोड में एक ऊबाऊ मुजरा भी है. पूरी सीरीज में संवाद भारी भरकम हैं कई बार संगीत कर्णप्रिय नहीं, बोदा भी लगता है. लेकिन...
लेकिन, जब तक आप जुबिली देखते हैं आप इसके किरदारों के साथ रहते हैं. हर किरदार को देखकर मन में एक सवाल तो उठता है, अरे ये किस के जैसा गढ़ा गया है या असल जिंदगी में यह है कौन? देविका रानी? अशोक कुमार? हिमाशु राय? देव आनंद या राज कपूर? नरगिस या सुरैया?
इस सीरीज में आपको कुछ बेहतरीन अदाकारी देखने को मिलेगी. इसलिए इसको एक ही रात में बिंज वॉच करके बदमजा न करें. बढ़िया से चबा-चबाकर खाएं. लेकिन...
लेकिन, आपने मोटवाणी की लुटेरा देखी है तो आपको जुबिली वैसी ही लगेगी. वैसे ही धीमे-धीमे एक आदमी के कत्ल की कहानी खुलती है और मदन कुमार उर्फ अपारशक्ति खुराना की दुविधा नजर आती है. अपारशक्ति खुराना ने बढ़िया अभिनय किया है. बढ़िया इसलिए क्योंकि वह अब तक इस तरह के गंभीर किरदार में नजर नहीं आए थे. लेकिन..
अपार शक्ति खुराना पहले कुछ एपिसोड में तो गंभीर और एकरस किरदार में ठीक लगते हैं पर बाद में बोरिंग लगने लगते हैं. उनकी किरदार पर लेखक को थोड़ा और काम करना चाहिए था. बिनोद दास के किरदार को बनाकर लेखक और निर्देशक ने उसको अनाथ छोड़ दिया. प्रसेनजीत अपने किरदार के हर फ्रेम में शानदार लगे हैं. लेकिन...
काश कोई अदिति राव हैदरी को समझा पाता कि आदमी (इस केस में अभिनेत्री) के मुखमंडल पर दुई ठो भाव ही नहीं रहते. एक होंठ आपस में चिपके हुए और दूसरा चवन्नी भर होंठ खुले हुए. लकड़ी जैसा फेस (फेस सुंदर है, भाव के अर्थ में कह रहे हैं) बनाकर कैसे एक्टिंग की है इनने? कास्टिंग किसने की है मुकेश छाबड़ा ने? लेकिन...
अदिति राव हैदरी के बर्फ की सिल्ली जैसी अदाकारी के सामने वामिकी गब्बी ने क्या जोरदार अभिनय किया है. अब आप गेस करते रह जाएंगे कि यह नरगिस है या सुरैया! उसी तरह जय खन्ना के किरदार में सिद्धांत कभी देव आनंद तो कभी राज कपूर बनने की कोशिश करते हैं. पर चालढाल से वह देव साहब जैसे ही दिखते हैं. लेकिन..
लेकिन आज आप लिखकर रख लीजिए, यह बंदा आगे बड़ा नाम करेगा. इसमें संभावनाएं बहुत हैं. इसमें स्टार बनने की क्षमता है. ऐसा इसलिए क्योंकि बंदे ने अपने हर जज्बात दिखाए हैं. खुशी, उदासियां, आंसू, नाच, खिलखिलाहट. सिद्धांत अभी करियर के शुरुआती दौर में ही हैं. इस लिहाज से उनका काम उम्दा है. लेकिन...
जुबिली के बारे कई समीक्षकों ने भांग खाकर तगड़ी राइटिंग बताई है. भक्क. आपको लूप होल बताता हूं. जमशेद खान का मेकअप मैन, उसके कत्ल के बाद उससे जुड़े सामान इकट्ठे करता है. कहां और कैसे? लेखक उसको सीधे मुंबई ले आता है. कैसे? चलिए बंदा न्याय के लिए बंबई आता है, पर उसके बाद उसको फोन की रिकॉर्डिंग सुनते हुए दिखाया जाता है वह भी रूसी जासूसों के साथ. कैसे?
यह सही है कि लेखकों को कुछ भी लिखने की छूट होती है. लेकिन...
जुबिली का कालखंड 1947 से 1953 का है और उसमें सिनेमास्कोप की बात होती है. लगभग ठीक ही है क्योंकि भारत में सिनेमास्कोप की पहली फिल्म कागज के फूल थी जो 1959 में रिलीज हुई थी. लेकिन...
आप को ध्यान देना चाहिए कि दुनिया की पहली सिनेमास्कोप फिल्म द रोब थी, जो 1953 में रिलीज हुई थी. शायद अमेरिकी में इस तकनीक के आने से पहले ही भारत में यह तकनीक मोटवाणी जी ले आए हैं.
राम कपूर ने कमीने किस्म के फाइनेंसर के रोल में बहुत प्रभावित किया. वह एक तरह से फिल्मी दुनिया के आलोक नाथ होते जा रहे थे. यह वैराइटी बढ़िया लगी. उनके किरदार को लेखक ने गहराई नहीं दी.
सेट-फेट, सिनेमैटोग्राफी तो बढ़िया है लेकिन आपको एक राज की बात बताऊं. इस्मत चुगताई का एक उपन्यास है, अजीब आदमी. मोटे तौर पर देवानंद और गुरुदत्त के जीवन से किरदार उठाए हैं उसमें इस्मत आपा ने. बेहतरीन उपन्यास है. जुबिली में जय खन्ना का किरदार उपन्यास के धर्मदेव से मिलता है और फाइनेंसर वालिया का किरदार उपन्यास के निर्माता किरदार वर्मा से.
कसम से, पढ़कर देखिएगा उपन्यास.
हो सकता है कि आने वाले सीजन में वर्मा जी ओह सॉरी, वालिया साहब का किरदार किसी हीरोईन के धोखे का शिकार होकर दिवालिया हो जाए, उपन्यास में ऐसा इच हुआ था. साहित्य का ऐसा प्रेरणा के रूप में ऐसा इस्तेमाल भी करते हैं फिल्म वाले. लेकिन...
मदन कुमार को पूरी सीरीज में 967 बार बहनचोद कहा गया है. ऐसा क्यों? एकाध बार तो ठीक है, वेबसीरीज को सर्टिफिकेट ही गालियों से मिलता है इसलिए मान लेते हैं. पर हर किसी के मुंह से मदन कुमार को गाली दिलवाई है मोटवाणी ने.
यह बात कुछ जमी नहीं. इसलिए जुबिली देखिए जरूर लेकिन....
यह लेकिन शब्द जो है, वह आगे कई मीन-मेखों, छिद्रान्वेषणों के लिए इस्तेमाल किया जाएगा. तो जिनको जुबिली बहुत पसंद आई हो, वे लोग आगे न पढ़ें. जिनको परपीड़ा से सुख मिलता है, पढ़ते रहें. जुबिली भले ही फिल्मों की कहानी से जुड़ी है, पर यह धीमी है, और यह आपको उदासियों से भर देगा.
दूसरी बात, (पहली बात मैंने पहली लाईन में ही कह दी है) कि किसी भी सीरीज को सिर्फ इसलिए नहीं देखा जा सकता है, या देखा जाना चाहिए कि निर्देशक विक्रमादित्य मोटवाणी है. बेशक, मोटवाणी पाए के निर्देशक हैं. काम सलीके से करते हैं. लेकिन...
लेकिन, जुबिली में कई लूप होल्स निर्देशक महोदय ने छोड़े हैं. फिल्मों पर आधारित सीरीज को जरूरत से ज्यादा फिल्मी बनाना हो, और कई चीज को तो इतनी बार दोहराया गया है कि ऊबाऊ होने लगती है चीजें.
मसलन, मदन कुमार के स्क्रीन टेस्ट को इतनी बार दोहराया गया है कि फॉरवर्ड करके देखना पड़ा. पहले एपिसोड में एक ऊबाऊ मुजरा भी है. पूरी सीरीज में संवाद भारी भरकम हैं कई बार संगीत कर्णप्रिय नहीं, बोदा भी लगता है. लेकिन...
लेकिन, जब तक आप जुबिली देखते हैं आप इसके किरदारों के साथ रहते हैं. हर किरदार को देखकर मन में एक सवाल तो उठता है, अरे ये किस के जैसा गढ़ा गया है या असल जिंदगी में यह है कौन? देविका रानी? अशोक कुमार? हिमाशु राय? देव आनंद या राज कपूर? नरगिस या सुरैया?
इस सीरीज में आपको कुछ बेहतरीन अदाकारी देखने को मिलेगी. इसलिए इसको एक ही रात में बिंज वॉच करके बदमजा न करें. बढ़िया से चबा-चबाकर खाएं. लेकिन...
लेकिन, आपने मोटवाणी की लुटेरा देखी है तो आपको जुबिली वैसी ही लगेगी. वैसे ही धीमे-धीमे एक आदमी के कत्ल की कहानी खुलती है और मदन कुमार उर्फ अपारशक्ति खुराना की दुविधा नजर आती है. अपारशक्ति खुराना ने बढ़िया अभिनय किया है. बढ़िया इसलिए क्योंकि वह अब तक इस तरह के गंभीर किरदार में नजर नहीं आए थे. लेकिन..
अपार शक्ति खुराना पहले कुछ एपिसोड में तो गंभीर और एकरस किरदार में ठीक लगते हैं पर बाद में बोरिंग लगने लगते हैं. उनकी किरदार पर लेखक को थोड़ा और काम करना चाहिए था. बिनोद दास के किरदार को बनाकर लेखक और निर्देशक ने उसको अनाथ छोड़ दिया. प्रसेनजीत अपने किरदार के हर फ्रेम में शानदार लगे हैं. लेकिन...
काश कोई अदिति राव हैदरी को समझा पाता कि आदमी (इस केस में अभिनेत्री) के मुखमंडल पर दुई ठो भाव ही नहीं रहते. एक होंठ आपस में चिपके हुए और दूसरा चवन्नी भर होंठ खुले हुए. लकड़ी जैसा फेस (फेस सुंदर है, भाव के अर्थ में कह रहे हैं) बनाकर कैसे एक्टिंग की है इनने? कास्टिंग किसने की है मुकेश छाबड़ा ने? लेकिन...
अदिति राव हैदरी के बर्फ की सिल्ली जैसी अदाकारी के सामने वामिकी गब्बी ने क्या जोरदार अभिनय किया है. अब आप गेस करते रह जाएंगे कि यह नरगिस है या सुरैया! उसी तरह जय खन्ना के किरदार में सिद्धांत कभी देव आनंद तो कभी राज कपूर बनने की कोशिश करते हैं. पर चालढाल से वह देव साहब जैसे ही दिखते हैं. लेकिन..
लेकिन आज आप लिखकर रख लीजिए, यह बंदा आगे बड़ा नाम करेगा. इसमें संभावनाएं बहुत हैं. इसमें स्टार बनने की क्षमता है. ऐसा इसलिए क्योंकि बंदे ने अपने हर जज्बात दिखाए हैं. खुशी, उदासियां, आंसू, नाच, खिलखिलाहट. सिद्धांत अभी करियर के शुरुआती दौर में ही हैं. इस लिहाज से उनका काम उम्दा है. लेकिन...
जुबिली के बारे कई समीक्षकों ने भांग खाकर तगड़ी राइटिंग बताई है. भक्क. आपको लूप होल बताता हूं. जमशेद खान का मेकअप मैन, उसके कत्ल के बाद उससे जुड़े सामान इकट्ठे करता है. कहां और कैसे? लेखक उसको सीधे मुंबई ले आता है. कैसे? चलिए बंदा न्याय के लिए बंबई आता है, पर उसके बाद उसको फोन की रिकॉर्डिंग सुनते हुए दिखाया जाता है वह भी रूसी जासूसों के साथ. कैसे?
यह सही है कि लेखकों को कुछ भी लिखने की छूट होती है. लेकिन...
जुबिली का कालखंड 1947 से 1953 का है और उसमें सिनेमास्कोप की बात होती है. लगभग ठीक ही है क्योंकि भारत में सिनेमास्कोप की पहली फिल्म कागज के फूल थी जो 1959 में रिलीज हुई थी. लेकिन...
आप को ध्यान देना चाहिए कि दुनिया की पहली सिनेमास्कोप फिल्म द रोब थी, जो 1953 में रिलीज हुई थी. शायद अमेरिकी में इस तकनीक के आने से पहले ही भारत में यह तकनीक मोटवाणी जी ले आए हैं.
राम कपूर ने कमीने किस्म के फाइनेंसर के रोल में बहुत प्रभावित किया. वह एक तरह से फिल्मी दुनिया के आलोक नाथ होते जा रहे थे. यह वैराइटी बढ़िया लगी. उनके किरदार को लेखक ने गहराई नहीं दी.
सेट-फेट, सिनेमैटोग्राफी तो बढ़िया है लेकिन आपको एक राज की बात बताऊं. इस्मत चुगताई का एक उपन्यास है, अजीब आदमी. मोटे तौर पर देवानंद और गुरुदत्त के जीवन से किरदार उठाए हैं उसमें इस्मत आपा ने. बेहतरीन उपन्यास है. जुबिली में जय खन्ना का किरदार उपन्यास के धर्मदेव से मिलता है और फाइनेंसर वालिया का किरदार उपन्यास के निर्माता किरदार वर्मा से.
कसम से, पढ़कर देखिएगा उपन्यास.
हो सकता है कि आने वाले सीजन में वर्मा जी ओह सॉरी, वालिया साहब का किरदार किसी हीरोईन के धोखे का शिकार होकर दिवालिया हो जाए, उपन्यास में ऐसा इच हुआ था. साहित्य का ऐसा प्रेरणा के रूप में ऐसा इस्तेमाल भी करते हैं फिल्म वाले. लेकिन...
मदन कुमार को पूरी सीरीज में 967 बार बहनचोद कहा गया है. ऐसा क्यों? एकाध बार तो ठीक है, वेबसीरीज को सर्टिफिकेट ही गालियों से मिलता है इसलिए मान लेते हैं. पर हर किसी के मुंह से मदन कुमार को गाली दिलवाई है मोटवाणी ने.
यह बात कुछ जमी नहीं. इसलिए जुबिली देखिए जरूर लेकिन....
Published on April 25, 2023 10:45
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